गुरुवार, 5 सितंबर 2013

सरकार फूँके, जनता सूँघे




शीतांशु कुमार सहाय
    जिससे जनता का सीधा जुड़ाव होता है उसकी कीमत बढ़ाने में सरकार कोई संकोच नहीं करती। काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की केन्द्र सरकार की अक्षम आर्थिक नीतियों के चलते प्रतिदिन महंगाई बढ़ रही है। अब सरकार केवल वैसी मुख्य वस्तु की कीमत बढ़ा रही है जिससे स्वतः सभी वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाएँ। ऐसी मुख्य वस्तुओं में तेल यानी पेट्रोल व डीजल शामिल हैं जो वर्तमान अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। सड़क परिवहन का मुख्य आधार तेल ही है। लिहाजा कहीं जाना और माल की ढुलाई स्वतः महंगी हो जाती है। यों दैनिक आवश्यकताओं की विभिन्न वस्तुओं की कीमतें आकाश छूने लगती हैं। तेल से सम्बद्ध कई सेवाएँ भी महंगी हो जाती हैं। संप्रग सरकार लगातार कीमतें बढ़ा रही है। तेल की कीमत बढ़ाकर वह 80 रुपये प्रति लीटर के निकट ले आयी है। सरकारी अमला तो बेतहाशा तेल जला रहा है मगर जनता को सरकार ने नसीहत दी है कि वह तेल कम-से-कम खपत करे। आश्चर्य है कि जो स्वयं नियम का उल्लंघन कर रहा है, वह दूसरों को कायदे में रहने की सलाह देने से बाज नहीं आ रहा है! सरकारी ओहदों पर बैठे नेता व अधिकारी तेल को पानी की तरह बहा रहे हैं। मंत्री, उनके कर्मी, केंद्रीय व राज्य सरकारों के कर्मियों के अलावा अन्य सरकारी विभागों में तेल के खर्च की कोई सीमा नहीं है। रुपये की घटती कीमत से खाली होते सरकारी खजाने ने सरकार को चिन्ता में डाल दिया है। तेल की खपत कम करने के उपायों पर चर्चा के लिए सरकार माथापच्ची कर रही है। इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बैठक में उस अभियान पर चर्चा हुई है जिसके तहत पेट्रोलियम मंत्रालय 16 सितम्बर से पेट्रोल व डीजल की खपत कम करने के लिए लोगों को जागरूक करने पर विचार कर रहा है।
    दरअसल, केन्द्र सरकार का मानना है कि तेल की यदि 3 प्रतिशत खपत भी कम हो गयी तो 16 हजार करोड़ रुपये वार्षिक की बचत हो सकती है। रात में पेट्रोल पम्प को बन्द करने के अलावा केंद्र सरकार के मंत्री तेल की खपत को कम करने के तमाम उपायों पर माथापच्ची कर रहे हैं लेकिन असलियत में तेल का सर्वाधिक खर्च खुद सरकारी अमला अपने ऊपर ही कर रहा है। वैसे रात में पेट्रोल पम्प बन्दी की योजना को फिलहाल टाल दिया गया है। मनमोहन सरकार के सुर-में-सुर मिलाकर नेता कहने लगे हैं कि आम आदमी को पेट्रोल की खपत कम करनी चाहिये; ताकि पेट्रोल की कीमतें कम हो सके। दूसरे को हिदायत देने वाले ये नेता और बाबू खुद कितने पानी में हैं। उन्हें खुद के गिरेहबान में झाँकने की जरूरत है। विदित हो कि वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान दिल्ली स्थित केंद्र सरकार का कार्यालय खर्च 5,200 करोड़ था। सरकारी विभागों में तेल पर कितना खर्च किया जा रहा है, यह पता लगाना भूसे के ढेर में सूई खोजने जैसा है। इसकी वजह है कि सरकारी विभागों में तेल पर खर्च की जाने वाली राशि का अलग से कोई ब्योरा दर्ज नहीं होता है। इसे कार्यालय खर्च के मद में ही शामिल किया जाता है। इस मद में स्टेशनरी से लेकर टॉयलेट पेपर तक के खर्च शामिल होते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तेल पर खर्च को प्रशासनिक खर्च के मद में शामिल किया जाता है। इसके चलते ईंधन पर खर्च का पता नहीं चलता है। दिल्ली में केंद्रीय मंत्रियों के महीने के पेट्रोल खर्च की बात करें तो 77 केंद्रीय मंत्री एक महीने में 200 लीटर प्रति मंत्री के हिसाब से करीब 46,200 लीटर डीजल-पेट्रोल फूँक रहे हैं। वर्षभर के पेट्रोल खर्च की बात करें तो दिल्ली में केंद्र सरकार के अधिकारी वर्ष में 2 लाख 56 हजार लीटर पेट्रोल या डीजल जला रहे हैं। पेट्रोल का मूल्य यदि 74.10 रुपये प्रति लीटर मानंे और मात्र दिल्ली में रहने वाले मंत्रियों-अधिकारियों के तेल खर्च का हिसाब जोड़ें तो यह लगभग 230 करोड़ रुपये मासिक यानी 2,760 करोड़ रुपये वार्षिक है। चूँकि मंत्रियों व अधिकारियों के तेल खर्च की कोई सीमा नहीं है इसलिये इस आँकड़े को 3000 करोड़ रुपये माना जा सकता है। इस अनुमान में सैकड़ों कर अधिकारियों, अर्द्ध सैनिक बल के अधिकारियों, सेनाधिकारियों, सीबीआइ, अन्य खुफिया एजेंसियों व रेलवे के अधिकारियों के तेल खर्च शामिल नहीं हैं।

    ऐसे में आवश्यकता है कि जनता को तेल की खपत कम करने के लिए जागरूक करने से पहले सरकार अपने अमले पर तेल की व्यर्थ खपत पर अंकुश लगाये। कई राजनीतिक पदधारियों के काफिले में दिखावे के लिए खाली वाहनों की फेहरिश्त चलती है। इस पर अंकुश तो लगाया ही जा सकता है। कई बार सरकारी गाड़ियों का प्रयोग व्यक्तिगत कार्यों में होता है। ढेर सारे सरकारी अधिकारियों की पत्नियाँ बाजार में अपने पतियों की सरकारी गाड़ियों से घूमती हैं तो कई अधिकारियों के बच्चों को भी सरकारी कारों से विद्यालय छोड़ा और लाया जाता है। देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में ऐसे दृश्य आम हैं। इंदिरा गाँधी ने 1972 में एक सरकारी आदेश जारी किया था। उसमें सरकारी कार के निजी इस्तेमाल को गैर-वाजिब बताया गया था। पर, उस आदेश की धज्जियाँ उड़ रही है। ऐसे में विपक्ष ने सरकारी खर्चों में तेल की भारी खपत पर सरकार पर निशाना साधा है। विपक्षी दलों का कहना है कि पहले सरकार को अपने खर्चे कम करने चाहिये फिर जनता को नसीहत देनी चाहिये। वैसे केवल सरकार को ही कोसना उचित नहीं। आमजन को भी अधिकतम सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करना चाहिये और आनेवाली पीढ़ी के लिए तेल बचाना चाहिये।

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