शुक्रवार, 23 मई 2014

नरेन्द्र मोदी की सरकार से कई अपेक्षाएँ / MANY EXPECTATIONS BY NARENDRA MODI'S CENTRAL GOVERNMENT



-शीतांशु कुमार सहाय
भारतीय गणतंत्र विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र है। 2014 के लोकसभा आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की असाधारण जीत में भारतीय लोकतंत्र ने एक नये युग की शुरुआत की है। इस शानदार जीत का सम्पूर्ण श्रेय एक व्यक्ति विशेष के सबल नेतृत्व को जाता है। एक ऐसा नेतृत्व, जिसने लोगों को विकास के रास्ते पर ले जाने के सपने दिखाये हैं। अब जब आम चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके हैं, जनता अपनी सारी अपेक्षाआं की पूर्ति के लिए इस नेतृत्व की तरफ टकटकी लगाकर देख रही है।
-चुनौतीपूर्ण होगा मोदी का कार्यकाल
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह प्रथम बार नहीं है कि किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री राष्ट्र के प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित करने जा रहे हैं, परन्तु मोदी देश के प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुजरात राज्य में तीन बार सरकार बनायी है और अब उसके बाद राष्ट्र के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने जा रहे हैं। गुजरात में उनका मुख्यमंत्री का कार्यकाल चुनौतीपूर्ण रहा और प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने की गंुजाइश है।
-सत्ता का हस्तान्तरण
भारतीय गणतंत्र के आज तक के इतिहास में सत्ता का हस्तान्तरण कभी भी समस्याओं से घिरा नहीं रहा। आपातकाल की कुछ कुख्यात यादें इसका अपवाद हो सकती हैं। पर, कमोबेश भारत में सत्ता का हस्तान्तरण एक सुगम प्रक्रिया है। मोदी प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यभार संभालेंगे पर उन्हें उत्सव मनाने का शायद तनिक भी समय न मिले। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को बहुत सारे मुद्दों पर जूझना है। जैसे- राष्ट्रीय सुरक्षा, बढ़ती हुई महँगाई, सड़ते हुए अनाज भंडार, एक अनिश्चित मॉनसून की तैयारी, सूखा व बाढ़ पीड़ितों की राहत व्यवस्था, बढ़ता राजस्व घाटा और सबसे ज्यादा औद्योगिक विकास को प्रेरित करना। सबसे बड़ी बात तो ये है कि इन सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए उन्हें शीघ्र ही एकजुट होना पड़ेगा। शपथ ग्रहण समारोह की स्याही शायद सूख भी न पाये और प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमण्डल के सदस्यांे को इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत होना पड़ेगा। ये वे अपेक्षाएँ हैं जिन्हें इन नेताओं ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार दुहराकर जनता को इसकी पूर्ति के लिए आश्वस्त कर दिया है।
-अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विरासत
मिली-जुली राजनीति मोदी के लिए नयी नहीं है। जब उन्हें भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया गया, उस वक्त राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) में भारतीय जनता पार्टी के अलावा 2 अन्य पार्टियाँ थीं। पर, जैसे-जैसे मोदी का राष्ट्रीय-राजनीतिक कद बढ़ता गया और उनका चुनाव प्रचार जोर होने लगा तो राजग को लगभग दर्जनभर पार्टियों की भागीदारी प्राप्त हो गयी। ऐसा इसलिए संभव हो सका; क्योंकि मोदी भाजपा के अन्दर और अन्य दलों में भी अपने मित्रों को यह आश्वस्त करने में सफल हो गये कि उनमंे अपने पूर्ववर्ती नेता अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विरासत को संभालने की क्षमता है। मोदी के भाषणों में वाजपेयी की वाक्चातुर्यता का आभास होता है। मोदी ने अपना आक्रामक रवैया छोड़ दिया है और वे वृहद् राजनीतिक जिम्मेदारी के लिए तैयार हैं। आम चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद यह तय हो गया  कि भाजपा को सरकार बनाने के लिए अन्य दलों के समर्थन की आवश्यकता नहीं है पर मोदी ने स्पष्ट कहा है कि वे राजग के घटक दलों को अपने साथ लेकर चलेंगे और नवनिर्मित 16वीं लोकसभा के सारे चुने हुए सदस्य उनकी टीम के सदस्य हैं; क्योंकि वे भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं।

-सत्ताधिकार और उत्तरदायित्व
शक्ति के साथ सत्ता का अधिकार मात्र नहीं जुड़ा होता; बल्कि अतिशय उत्तरदायित्व भी जुड़े होते हैं। नरेन्द्र मोदी की यात्रा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के एक प्रचारक के रूप में शुरू हुई थी। मोदी आरएसएस के आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन चुनावों में आरएसएस के कार्यकर्त्ताओं की अहम् भूमिका रही है। इसलिए आरएसएस भी मोदी से उम्मीद लगाये बैठा है कि वे सत्तासीन होने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदर्शों को आगे बढ़ायेंगे। वैसे आरएसएस ने स्पष्ट किया है कि वह सत्ता में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र को गुजरात के अपने 12 साल के कार्यकाल के अनुभव से लाभ होगा। पिछली केन्द्र सरकार के कार्यकाल में जब राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक विकास रूक गया था और विदेशी निवेश न्यूनतम हो गए थे, उस समय भी गुजरात ऑटोमोबाइल और दवाओं के उद्योग का गढ़ बना था। विकास का यह प्रारूप जो गुजरात में सफल रहा, वह प्रारूप राष्ट्रीय स्तर पर भी सफल होगा- यह सबसे बड़ा प्रश्न है। अगर इस प्रश्न का उत्तर मोदी के पास ‘हाँ’ है तो उन्हें इस उत्तर को सही सिद्ध करने के लिए कठिन परीक्षा से गुजरना होगा।

-एक राजनेता का उदय 
2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी इस सदी के सबसे विवादास्पद नेताओं में से एक रहे हैं। पर, समय के साथ उन्होंने अपनी छवि सुधारी और वे अपनी साम्प्रदायिक छवि से ऊपर उठ चुके हैं। वाराणसी में हुई उनकी असाधारण जीत और मतों का शेयर यह स्पष्ट दर्शाता है कि मुस्लिम मतदाताओं ने भी मोदी को समर्थन दिया है। वस्तुतः आजादी के बाद यह पहली बार हुआ है कि भारतीय मतदाताओं ने जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय के विभाजन से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माण और विकास की उम्मीद में मतदान किया है। यह भारतीय राजनीति में एक नवीन स्वर्णिम युग का शुभारम्भ है।
-नये परिप्रेक्ष्य में विदेश नीति
अभी प्रधानमंत्री कार्यालय के नये आगन्तुक पर सम्पूर्ण विश्व की नजरें टिकी हैं। सिर्फ उद्योग और व्यापार के मुद्दे ही नहीं, नयी सरकार की विदेश नीति भी चर्चा का विषय है। विदेश नीति आदर्शवाद और व्यावहारिकतावाद का मिश्रण होती है। प्रधानमंत्री को अपनी टीम में कुशल कूटनीतिज्ञों को शामिल करने की आवश्यकता है जो समुचित और कठोर निर्णय ले सके।
-सरकारी संस्थानों की विश्वसनीयता
नरेन्द्र मोदी का प्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि वे सरकारी संस्थानों की विश्वसनीयता लौटाएँ। वे लोगों के मन में यह विश्वास जगाएँ कि राजनीति सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं है; अपितु सामाजिक परिवर्तन का मुख्य यंत्र है।

-राष्ट्रप्रेम व विकासअपने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मोदी देशप्रेम, विकास, रोजगार, आर्थिक अवसर, समता, महिलाओं की सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता- इन मुद्दों को धुरी बनाकर जनता से मत माँगते रहे। बदले में उन्होंने ‘कम सरकार और ज्यादा शासन’ का नारा दिया और लोगों में भागीदारी और सशक्तीकरण की राजनीतिक आस जगायी। वायदों को निभाने का समय अब आ गया है। नयी सरकार के प्रथम 100 दिन अगले 5 वर्षों की कार्यप्रणाली की झाँकी पेश करेंगे। उम्मीद है, नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरे उतरेंगे और भारतवर्ष को विश्व मानचित्र पर एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र के रूप में स्थापित करेंगे।

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