रविवार, 25 सितंबर 2016

मुक्ति का मार्ग दिखानेवाला सन्त श्रीसाईं Shreesai Baba

प्रस्तुत रचना शीतांशु कुमार सहाय की शीघ्र प्रकाशित होनेवाली पुस्तक ‘श्रीसाईंचरितामृतम्’ से ली गयी है।

-शीतांशु कुमार सहाय

नाना चोपदार की माँ थी वह वृद्धा। चोपदार धार्मिक प्रवृत्तिवाले थे जो स्थानीय स्तर पर शिरडी में प्रसिद्ध थे। एक बार एक खेत में घूमती हुई उस वृद्धा ने नीम के पेड़ की छाँव में शारीरिक सौष्ठव व अतुलनीय सौन्दर्यवाले तरुण को ध्यानमग्न देखा। दिन व रात के आने-जाने और मौसम के परिवर्तन का उस पर कोई असर न हो रहा था। देवस्वरूप उस तपस्वी बालक के सम्मोहक व्यक्तित्व की चर्चा उसने गाँव में की। हुजूम जुटने लगा। पर, बालक पर किसी से दिन में नहीं मिलता। वह रात को निर्भीक घूमता। त्याग व वैराग्य की इस प्रतिमूर्ति को खण्डोवा के म्हालसापति ने चाँद पाटिल के साले के पुत्र की बारात के साथ पुनः शिरडी में पधारे उस युवा सन्त को ‘आओ साईं’ कहकर स्वागत किया। तब से जन-जन के प्रिय होते गये साईं और अप्रतिम सम्मान ने बना दिया उन्हें साईं बाबा।
नामदेव और कबीर जहाँ बालरूप में प्रकट हुए, वहीं तरुणावस्था में साईं बाबा शिरडी में एक नीम वृक्ष तले अवतीर्ण हुए। से तीनों सन्त अयोनिज थे अर्थात् उनका जन्म माता के गर्भ से नहीं हुआ। ़ऐतिहासिक प्रमाणों से विदित होता है कि साईं का अवतरण 28 सितम्बर 1835 ईस्वी को हुआ। कुछ प्रमाण 1838 ईस्वी की ओर भी इशारा करते हैं।
साईं बाबा तब प्रकट हुए, जब धर्मों-सम्प्रदायों में बँटकर लोग अशान्ति फ।ला रहे थे। इसलिए उन्होंने ‘सबका मालिक एक’ कहकर एकेश्वरवाद व धर्मसाम्यता की ऐसी मिसाल दी, जो अब भी प्रासंगिक और अतुलनीय है। यही कारण है कि सभी धर्मों ने उन्हें अपना साईं (भगवान) माना।
वे कौन थे? उनके माता-पिता कौन थे? वे कहाँ से आये थे? उनका जन्म (अवतार) कब हुआ? ये प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। स्वयं साईं बाबा ने भी इस सन्दर्भ में कुछ नहीं बताया। आखिर वे बतायें भी कैसे? वे तो स्वयं परब्रह्म अर्थात् आदिशक्ति स्वरूप थे, अयोनिज थे। परब्रह्म तो स्वयं ही समस्त जीवों के जनक हैं, उनका जनक कोई हो ही नहीं सकता। इसलिए साईं ने माता-पिता का नाम नहीं बताया। हाँ, उन्होंने शिरडी को अपने गुरुदेव की पवित्र भूमि अवश्य बताया।
कहते हैं कि कुछ सिद्ध व्यक्तियों पर ईश्वरीय शक्ति कुछ समय के लिए प्रकट होती है। उस दौरान उससे पूछे गये प्रश्नों के उत्तर वह बिल्कुल सही देता है। खण्डोबा में म्हालसापति के खेत के निकट भगवान खण्डोबा का मन्दिर था। एक भक्त पर खण्डोबा की शक्ति प्रकट हुई तो साईं के भक्तों ने उनसे साईं के बारे में पूछा। भगवान खण्डोबा ने कुदाल मँगाकर बताये गये स्थान पर खुदाई करवायी। खुदाई में प्राप्त ईंट-पत्थरों को हटाने पर एक दरवाजा दिखायी दिया, जहाँ चार दीपक जल रहे थे। दरवाजे का रास्ता एक गुफा की ओर जा रहा था, जहाँ गाय के मुख के आकार का भवन, लकड़ी के तख्ते, मालाएँ आदि दिखायी पड़ीं। खण्डोबा ने बताया कि इस तरुण (साईं) ने यहाँ बारह वर्षों तक तप किया था। दरअसल, तपोपरान्त ही शिरडीवासियों के बीच सिद्ध पुरुष के रूप में साईं प्रकट हुए।
साईं बाबा के गुरु कौन थे, यह भी किसी को पता नहीं है। स्वयं साईं खुदाईवाले स्थान को ’गुरु स्थान’ कहते थे परन्तु कभी गुरु का नाम नहीं बताया। हालाँकि समकालीन सन्त जौहर को वे गुरु कहते और जौहर बाबा अपना गुरु साईं बाबा को बताते थे।
साईं बाबा के कारण ही महाराष्ट्र के अहमदनगर जिलान्तर्गत कोपर तालुका स्थित शिरडी इन दिनों विश्वविख्यात तीर्थ स्थल बन गया है। शिरडी की एक प्राचीन व वीरान मस्जिद को उन्होंने अपना निवास बनाया। यहाँ उन्होंने जीवन के महत्त्वपूर्ण साठ साल व्यतीत किये। उस मस्जिद अर्थात् अपने निवास स्थान को साईं ने ‘द्वारकामाई’ का अर्थपूर्ण नाम दिया। ‘स्कन्दपुराण’ में उल्लेख है कि जिस स्थान के द्वार चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) के व्यक्तियों को चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) देने के लिए सदैव खुले रहें, उसे ‘द्वारका या द्वारिका’ कहा जाता है। द्वारकामाई के सन्दर्भ में भी यही उक्ति पूरी तरह सच सिद्ध होती थी। तभी तो सभी जाति-धर्मों के रंक से राजा तक, भोगी से योगी तक, निरक्षर से विद्वान तक, सेवक से उच्चाधिकारी तक, गृहस्थ से संन्यासी तक- सबने उनकी इस कदर भक्ति की कि वे सन्त (साईं बाबा) से भगवान (साईंनाथ) हो गये।
श्रद्धा और धैर्य (सब्र) को जीवन में धारण करने की शिक्षा देनेवाले साईंनाथ ने योगबल से शिरडी में पवित्र अग्नि (धूनी) प्रज्वलित की, जिसे लकड़ी व हवन सामग्रियों से निरन्तर प्रज्वलित अवस्था में रखा गया है। धूनी व भस्म को उन्होंने ‘ऊदी’ का नाम दिया। ऊदी का तिलक लगाकर और उसका सेवन करके तब से अब तक लाखों-करोड़ों भक्त विभिन्न रोगों या दुःखों से मुक्त हो चुकहैं। ऊदी की आज भी उतनी ही महत्ता है; क्योंकि जीवन काल में साईंनाथ स्वयं इसे भक्तों के बीच कल्याणार्थ बाँटते थे।
महान क्रियायोगी व भविष्यद्रष्टा इस सन्त ने समाज में भक्ति, मुक्ति और धार्मिक एकता के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण का व्यावहारिक आन्दोलन भी चलाया। ग्लोबल वार्मिंग अर्थात् विश्वस्तर पर बढ़ रहे मौसमी तापमान व मौसमी अनिश्चितता के इस काल में साईंनाथ का वह आन्दोलन शतशः अनुकरणीय प्रतीत हो रहा है। अपने व्यवहार से उन्होंने बताया कि मनुष्य सहित समस्त जन्तुओं के जीवन, स्वास्थ्य, भोजन ही नहीं; ऋतुओं की अनुकूलता भी वनस्पतियों से सम्बद्ध हैं। उन्होंने द्वारकामाई की फुलवारी स्वयं बनायी और पौधों को भी स्वयं ही सींचते थे। शिरडी से तीन किलोमीटर दूर राहाता से गेन्दा, जूही, जई सहित कई तरह के पेड़-पौधे लाकर लगाये। उनका एक भक्त वामन तात्या उन्हें प्रतिदिन मिट्टी के दो घड़े देता। बाबा स्वयं कुएँ से उन घड़ों में जल भरते और पेड़-पौधों को सींचते थे। सन्ध्या काल में उन घड़ों को वे नीम पेड़ के तले रख देते, जो अगली सुबह तक स्वयं टूट जाते। पुनः तात्या दो नये घड़े लेकर बाबा की सेवा में पहुँच जाता।
वास्तव में साईं के प्रत्येक भौतिक कार्य का आध्यात्मिक अर्थ होता था। तात्या के दिये हुए दो घड़े वस्तुतः श्रद्धा और सबूरी के प्रतीक थे। वे सब्र अर्थात् धैर्य को सबूरी कहा करते थे। प्रत्येक सुबह तक घड़ों का फूट जाना यह बताता है कि शुरुआत में श्रद्धा और सब्र स्थायी नहीं हो पाते। जब तक ये स्थायी न हो जायें, तब तक इनके स्थायित्व का प्रयास जारी रहना चाहिये। शरीर त्यागने के बाद भी साईंनाथ विश्वभर के भक्तों के मन की मिट्टी में दबे आध्यात्मिकता के बीज को स्नेह के जल से सींच रहे हैं।
विक्रम सम्वत् 1975 की विजयादशमी अर्थात् 15 अक्तूबर 1918 ईस्वी को ब्रह्मलीन होनेवाले शिरडी के इस महान संन्यासी ने घरेलू भौतिक जीवन जीते हुए ब्रह्म-उपासना के सहज तरीके बताये। आध्यात्मिक इतिहास में वे एकमात्र संन्यासी हुए, जिन्होंने एक ही स्थान पर रहकर भक्ति व मुक्ति का मार्ग दिखाया। सभी धर्मों का सम्मान करते हुए उन्होंने मानवता को सबसे बड़ा धर्म बताया। जातिवाद के विरुद्ध वे कहा करते थे कि ईश्वर सबको समान बनाया। यहाँ मनुष्य ने ऊँच-नीच व मनुष्य-मनुष्य में भेद उत्पन्न कर दिया, जो सामाजिक एकता के लिए खतरा बन गया। गरीबों व लाचारों की सेवा को साईं ने देवपूजन से बड़ा पुण्यकर्म बताया और आजीवन ऐसा करते भी रहे। इसलिए ऐसा तो कहना ही पड़ेगा कि साईं बाबा के उपदेश कष्टसाध्य न होकर सहज व्यवहार में ग्रहणयोग्य हैं। गुरुजों, माता, पिता व बड़े-बुजुर्गों के सम्मान की सलाह तो वे हर दिन अपने भक्तों को देते थे। नक्सली, आतंकी और हिंसा से भरे वर्तमान माहौल में साईं बाबा की सलाह अधिक प्रासंगिक बन गयी है।
जनकल्याण में निरन्तर तल्लीन महासन्त साईं ने प्रतिदिन सोना भी छोड़ दिया। वे एक दिन छोड़कर आराम करने हेतु चावड़ी चले जाते थे, जो द्वारकामाई से थोड़ी दूर पर था। बाद में उनके भक्तगण शोभायात्रा के साथ हरिगुणगान करते साईं बाबा को चावड़ी तक लाने लगे। इस स्मृति में प्रत्येक वृहस्पतिवार को द्वारकामाई से साईं बाबा की पालकी चावड़ी तक ले जायी जाती है। इस शोभायात्रा में देश-विदेश के भक्त विशेष रूप से शामिल होते हैं।
विलक्षण स्वभाव के चमत्कारी सन्त थे सााईं बाबा। समाज को औश्र खण्डित होने से बचाने के लिए उन्होंने न तो किसी धर्म या सम्प्रदाय की शुरुआत की और न ही किसी धर्म की बुराई। उन्होंने योग, ध्यान आदि की प्राचीन विधियों को तोड़-मरोड़कर उसे स्वयं द्वारा प्रणीत या आविष्कृत भी नहीं बताया। साईं ने ईशभक्ति के लिए किसी जटिल प्रक्रिया में पड़ने के बदले कहीं भी किसी भी स्थिति में उन्हें (ईश्वर) याद करते रहने की सलाह दी।
ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण को वे मुक्ति का मार्ग मानते रहे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुक्ति का यह मार्ग दिखानेवाला एक गुरु चाहिये। जब तक ब्रह्मज्ञानी गुरु न मिलें, तब तक ईश्वर के भी रूप (राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, अल्लाह, ईसा) को गुरु मानकर भक्ति तो शुरू कर ही देनी चाहिये। जब उचित पात्रता आ जायेगी तो ईश्वर ही ब्रह्मज्ञानी गुरु के पास किसी-न-किसी माध्यम से पहुँचा देंगे।

1 टिप्पणी:

Arvind Kumar ने कहा…

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