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बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

महर्षि भृगु

भृगु शब्द संस्कृत के ``भ्राज्´´ धातु से बना है। भ्राज् का अर्थ है ``प्रकाशित होना´´ अत: भृगु का अर्थ है ``प्रकाशमान´´ भृगु का अर्थ ``पापों को नष्ट करने वाले´´ या ``अग्नि´´ के जलने के रूप में भी किया गया है। भृगु के अवतरण का समय सृष्टि की रचना के प्रारम्भ से ही जुड़ा हुआ है। जब आदि शक्ति परब्रह्म ने सृष्टि रचने का विचार किया, तब उन्होंने सर्वप्रथम मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। मन से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम `मनु´ पड़ा और ये सभी आदि पुरुष माने गये। भृगु भी इन्हीं मानस पुत्रों में से एक हैं। कुछ विद्वान इन्हें वरुण का पुत्र भी मानते हैं। कुछ विद्वानों द्वारा इन्हें अग्नि से उत्पन्न बताया गया है, तो कुछ ने इन्हें ब्रह्मा की त्वचा एवं हृदय से उत्पन्न बताया है। शास्त्रों में इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र ही माना जाता है। महर्षि भृगु ने ब्रह्मविद्या वरुण से प्राप्त की। वरुण के उपदेश से इन्होंने कठोर तप किया और ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया। ये ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्पविद्या, विज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि के उच्च कोटि के ज्ञाता थे। भृगुरचित विशाल ग्रन्थ हैं `भृगु संहिता। महर्षि भृगु के वंशज `भार्गव´ कहलाते हैं।
भृगु महान् ज्योतिष, त्रिकालदर्शी तथा अपनी ज्योतिष विद्या के लिए थे। ज्योतिष की जातक पद्धति भृगुक्त बतायी जाती है। भृगु रचित विशाल ग्रंथ `भृगु संहिता´ आज भी उपलब्ध है जिसकी मूल प्रति नेपाल के पुस्तकालय में ताम्रपत्र पर सुरक्षित रखी है। इस विशाल कार्य ग्रंथ को कई बैलगाड़ियों पर लाद कर ले जाया गया था। भारतवर्ष में भी कई हस्तलिखित प्रतियां पंडितों के पास उपलब्ध हैं किन्तु वे अपूर्ण हैं। इसमें मनुष्यों की जितनी भी संभावित जन्म पत्रिया हो सकती हैं, उनमें प्रत्येक जन्मपत्री के तीन जन्म का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस महान् ग्रंथ की सत्यता निर्विवाद मान्य है। श्री केएम मुंशी जैसे बड़े-बड़े विद्वान इस ग्रंथ का निरीक्षण एवं परीक्षण कर चुके हैं एवं इसको कसौटी पर खरा पाया। आज भी दुनियां के विद्वान इस अनोखे ग्रंथ को देख दातों तले उगली दबाते हैं।
महर्षि भृगु अग्नि के उत्पादक थे, समस्त संसार उनका ऋणी है। वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पृथ्वी पर अग्नि को प्रदीप्त किया था। ऋग्वेद में वर्णन है कि उन्होंने मातरिश्वन् से अग्नि ली और उसको पृथ्वी पर लाये। किन्तु आज के संदर्भ में इसका तात्पर्य यह भी निकलता है और समीचीन भी हो कि भृगु एक महान वैज्ञानिक थे जिन्होंने सर्वप्रथम पृथ्वी पर अग्नि को उत्पादित किया था। आज भी पारसी लोग महिर्ष भृगु की अथवन् के रूप में पूजा करते हैं।
भृगु का उल्लेख संजीवनी विद्या प्रवर्तक के रूप में भी है। उन्होंने संजीवनी बूटी खोजी थी और मृत प्राणी को जिन्दा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परम्परागत यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। इस संबंध में महाभारत एवं पुराण में कथा उपलब्ध होती है। पद्यपुराण के अनुसार भृगु ने लगभग 1000 वर्ष तक हिमालय के निकुंज में होम का धुंआ पीकर कठोर तपस्या द्वारा भगवान शंकर की आराधना की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर यह विद्या इनको प्रदान की।
भृगु का उल्लेख महान् धर्मवेत्ता के रूप में भी है। मानव धर्म निरुपण का प्रमुख ग्रंथ `मनृस्मृति´ महर्षि भृगु द्वारा ही कही गई थी। अत: उसे `भृगु स्मृति´ भी कहते हैं। इस संबंध में मनुस्मृति का श्लोक द्रष्टव्य है-- इति मानव धर्मशास्त्र भृगु प्रोक्तंपठन् द्विज:
महर्षि भृगु का आयुर्वेद से घनिष्ठ संबंध था। अथर्ववेद एवं आयुर्वेद संबंधी प्राचीन ग्रंथों में इनको प्रामाणिक आचार्य की भाति उल्लिखित किया गया है। आयुर्वेद में प्राकृतिक चिकित्सा का भी महत्व है। भृगु ऋषि ने सूर्य की किरणों द्वारा रोगों के शमन की चर्चा की है। वर्षा जल सूर्य की किरणों से प्रेरित होकर आता है। वह शल्य के समान पीड़ा देने वाले रोगों को दूर करने में समर्थ है।
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भृगु की दो पत्नी बताई गई हैं। पहली पत्नी असुरों के पुलोम वंश की कन्या पौलोमा थी। इसकी सगाई पहले अपने ही वंश के एक पुरुष से, जिसका नाम महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 13 के अनुसार दंस था, हुई थी। परन्तु उसके पिता ने यह संबंध छोड़कर उसका विवाह भृगु से कर दिया। जब च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में, एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) उसको हर ले गया। शोक और दुख के कारण उसका गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। कहा गया है कि सूर्य के समान दिव्य शिशु को गर्भ से च्युत देख कर असुर ने पुलोमा को छोड़ दिया और स्वयं जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् पुलोमा रोती हुई, शिशु को गोद में उठाकर आश्रम लौटी। तब उसके अश्रुओं से एक नदी बह चली, जिसका नाम ब्रह्मा ने `वधूसरा´ रखा। ऋषि च्यवन ने अपना आश्रम इसी के तट पर बनाया था। पौलोमा की और संतान विख्यात ऋषि शुक्र हुए। यह असुरों के गुरु थे। महाभारत तथा पुराणों में उनको भृगु का पुत्र बताया गया है, परन्तु ऋग्वेद से ज्ञात होता है वह भृगु के पौत्र और कवि ऋषि के सुपुत्र थे। शुक्र ऋषि के दो विवाह हुए थे। पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयन्ती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ। उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। शुक्र ऋषि की दूसरी स्त्री का गोधा थी, जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे। पौलोमा के गर्भ से पांच और पुत्र बताये गये हैं। भृगु की दूसरी पत्नी थी यज्ञ और दक्षिण की पुत्री ख्याति। उसके दो पुत्र हुए धाता और विधाता और एक पुत्री लक्ष्मी। धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के पुत्र वर्तमान हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृंकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेदश्री नाम के पुत्र हुए। इनसे भृगु वंश बढ़ा। भृगु के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-- `महिर्षणाम भृगुरहम्´

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