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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

विवेक व आनंद के संगम : स्वामी विवेकानन्द Confluence of Discretion And Ananda : Swami Vivekananda

-शीतांशु कुमार सहाय 
    भारतीय बौध्दिक क्रांति के सूत्रक थे स्वामी विवेकानन्द। उन का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ ईस्वी को कोलकाता में हुआ था। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उन के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के अटार्नी थे और बहुत ही उदार एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। वे पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे और अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्रनाथ की माँ भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारोंवाली महिला थीं। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। संगीत, साहित्य और दर्शन में विवेकानंद की विशेष रुचि थी। तैराकी, घुड़सवारी और कुश्ती उन का शौक था। उनपर अपने पिता के तर्कसंगत विचारों तथा माँ की धार्मिक प्रवृत्ति का असर था।१८८४ में उन के पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गयी। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। पिता की मृत्यु के बाद अत्यंत गरीबी में भी उन का चित्त कभी नहीं डिगा। नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भींगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।
स्वामी विवेकानंद पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज थे। स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्राचार्य डॉ. विलियम हस्टी ने उन के बारे में लिखा, ''मैंने काफी भ्रमण किया है लेकिन दर्शनशास्त्र के छात्रों में ऐसा मेधावी और संभावनाओं से पूर्ण छात्र कहीं नहीं, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं देखा।''  
विवेकानन्द भारतीय बौध्दिक क्रांति का सूत्रपात किया। स्वामी विवेकानंद ने उद्धोष किया -- ''समस्त संसार हमारी मातृभूमि का ऋणी है।'' स्वामीजी ने अध्यात्म को अंधविश्वास एवं कालबाह्य हो चुके कर्मकांड से मुक्त कराया, हिन्दुत्व की युगानुकूल व्याख्या की तथा अध्यात्म को मानव के सर्वांगीण विकास का केन्द्र-बिन्दु बताया। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। वे स्वदेश-प्रेम को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसलिए भारत की स्वाधीनता के लिए निरंतर युवा-वर्ग को अपने बौध्दिक आख्यानों से जगाते रहे- Arise, awake and stop not till the goal is reached.
उन्होंने किसी भी विचारधारा में विश्वास नहीं किया, जब तक कि खुद नहीं जान लिया कि आखिर सत्य क्या है। अपनी जिज्ञासाएँ शांत करने के लिए पहले 'ब्रह्म समाज' में गए किंतु वहाँ उन के चित्त को संतोष नहीं हुआ। इस के अलावा कई साधु-संतों के पास भटकने के बाद अंतत: स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सामने हार गए। रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उन के पास तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिस का उन्हें इंतजार है। रामकृष्ण के व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया जिस से नरेंद्र का जीवन बदल गया। १८८१ में स्वामी रामकृष्ण परमहंस को उन्होंने अपना गुरु बनाया। परमहंस की कृपा से इन को आत्मसाक्षात्कार हुआ, उन के मन की अशांति जाती रही। 
रामकृष्ण के शिष्यों में नरेंद्र प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इन का नाम 'विवेकानंद' हुआ। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु की सेवा में हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सब की सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उन के बिस्तर के पास से रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उन के दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उन के इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा। 
१८८६ में रामकृष्ण के निधन के बाद जीवन एवं कार्यों को उन्होंने नया मोड़ दिया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। विवेकानंद वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। गेरुआ वस्त्र पहन उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म संसद आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। 
सन्‌ १८९३ में अमेरिका स्थित शिकागो नगर में विश्व धर्म संसद (पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स) में उन्होंने सनातन धर्म (भारत) का प्रतिनिधित्व किया। यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ के लोग बहुत प्रयत्न किये कि स्वामी विवेकानंद को विश्व धर्म संसद में बोलने का समय ही मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। ११ सितंबर १८९३ को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन "अमेरिका के भाइयों और बहनो" से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। इस शुरुआत से ही सभी के मन में बदलाव हो गया; क्योंकि पश्चिम में सभी 'लेडीस एंड जेंटलमैन' कहकर शुरुआत करते हैं। उन के तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए। उन्हें निमंत्रणों का तांता लग गया। 
स्वामी विवेकानंद ने देश-दुनिया का काफी भ्रमण किया। उन के विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इन के भक्तों का बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोग को भारतीय तत्त्व-ज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उन की वक्ततृत्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ की मीडिया ने उन्हें 'साइक्लॉनिक हिन्दू' का नाम दिया। ''अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा''-- यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उन का शिष्यत्व ग्रहण किया। विदेशों में भी उन्होंने अनेक स्थान की यात्राएँ की। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा मिली। 
१८९९ में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा की तथा भारतीय आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। अमेरिका और यूरोप के हर देश में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही भारत का वेदांत दर्शन पँहुचा। विवेकानंद पर वेदांत दर्शन, बुद्ध के 'आष्टांगिक मार्ग' और गीता के 'कर्मवाद' का गहरा प्रभाव पड़ा। वेदांत, बौद्ध और गीता के दर्शन को मिलाकर उन्होंने अपना दर्शन गढ़ा ऐसा नहीं कहा जा सकता। उन के दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा। उन के अनुसार 'ईश्वर' निराकर हैं। ईश्वर सभी तत्त्वों में निहित एकत्व है। जगत ईश्वर की ही सृष्टि है। आत्मा का कर्त्तव्य है कि शरीर रहते ही 'आत्मा के अमरत्व' को जानना। मनुष्य का चरम भाग्य 'अमरता की अनुभूति' ही है। राजयोग ही मोक्ष का मार्ग है।

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