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गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

बीमारियों की जड़ पेट के कीडे़

       इस सम्पूर्ण सृष्टि में मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए हर प्रकार से हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये। परन्तु, मानव अपनी क्षणिक मानसिक तृप्ति के लिये तरह-तरह के सडे़-गले व्यंजन जो शरीर के लिये हानिकारक हैं, खाता रहता है। इससे शरीर में अनेकों तरह के कीडे़ पैदा हो जाते है और यही शरीर की अधिकतर बीमारियों के जनक बनते है। ये कीडे़ दो तरह के होते हैं। प्रथम, बाहर के कीडे़ और द्वितीय, भीतर के कीडे़। बाहर के कीडे़ सर में मैल और शरीर में पसीने की वजह से जन्मते हैं, जिन्हं जूँ, लीख और चीलर आदि नामों से जानते हैं। अन्दर के कीड़े तीन तरह के होते हैं। प्रथम पखाने से पैदा होते है, जो गुदा में ही रहते हैं और गुदा द्वार के आसपास काटकर खून चूसते हैं। इन्हे चुननू आदि अनेकों नामों से जानते हैं। जब यह ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। दूसरे तरह के कीडे़ कफ के दूषित होने पर पैदा होते हैं, जो छः तरह के होते हैं। ये आमाशय में रहते हैं और उसमें हर ओर घूमते है। जब ये ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। तीसरे तरह के कीडे़ रक्त के दूषित होने पर पैदा हो सकते हैं, ये सफेद व बहुत ही बारीक होते हैं और रक्त के साथ-साथ चलते हुये हृदय, फेफडे़, मस्तिष्क आदि में पहुँचकर उनकी दीवारों में घाव बना देते हैं। इससे सूजन भी आ सकती है और यह सभी अंग प्रभावित होने लगते हैं। इनके खून में ही मल विसर्जन के कारण खून भी धीरे-धीरे दूषित होने लगता है, जिससे कोढ़ जनित अनेकों रोग होने का खतरा बन जाता है।

      एलोपैथिक चिकित्सा के मतानुसार अमाशय के कीड़े खान-पान की अनियमितता के कारण पैदा होते हैं,जो छः प्रकार के होते है। 1- राउण्ड वर्म 2- पिन वर्म 3- हुक वर्म 5-व्हिप वर्म 6-गिनी वर्म आदि तरह के कीडे़ जन्म लेते हैं।

कीडे़ क्यों पैदा होते हैं- बासी एवं मैदे की बनी चीजें अधिकता से खाने, ज्यादा मीठा गुड़-चीनी अधिकता से खाने, दूध या दूध से बनी अधिक चीजें खाने, उड़द और दही वगैरा के बने व्यंजन ज्यादा मात्रा में खाने, अजीर्ण में भोजन करने, दूध और दही के साथ-साथ नमक लगातार खाने, मीठा रायता जैसे पतले पदार्थ अत्यधिक पीने से मनुष्य शरीर में कीडे़ पैदा हो जाते हैं। कीडे़ पैदा होने के लक्षण एवं बीमारियाँ  शरीर के अन्दर मल, कफ व रक्त में अनेकों तरह के कीडे़  पैदा होते हैं। इनमें खासकर बड़ी आंत में पैदा होने वाली फीता कृमि (पटार) ज्यादा खतरनाक होती है। जो प्रत्येक स्त्री-पुरूष व बच्चों के पूरे जीवनकाल में अनेक बीमारियों के जन्म देती हैं, जो निम्नवत है:-
1- आंतां में कीड़ों के काटने व उनके मल विसर्जन से सूजन आना, पेट में हल्का-हल्का दर्द, अजीर्ण, अपच, मंदाग्नि, गैस, कब्ज आदि का होना।      2- शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ना, जिससे अनेकों रोगों का आक्रमण ।     3- बड़ों व बच्चों में स्मरण शक्ति की कमी, पढ़ने में मन न लगना, कोई बात याद करने पर भूल जाना।       4- नींद कम आना, सुस्ती, चिड़चिड़ापन, पागलपन, मिर्गी, हाथ कांपना, पीलिया रोग आदि होना।    5- पित्ती, फोड़े, खुजली, कोढ़, आँखों के चारों ओर सूजन, मुँह में झंाई, मुहांसे आदि होना।     6- पुरुषों में प्रमेह, स्वप्नदोष, शीघ्रपतन, बार-बार पेशाब जाना आदि।     7-स्त्रियों की योनि से सफेद पदार्थ बराबर निकलना, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर आदि।   8- बार-बार मुँह में पानी आना, अरुचि तथा दिल की धड़कन बढ़ना, ब्लडप्रेशर आदि।    9- ज्यादा भूख लगना, बार-बार खाना, खाने से तृप्ति न होना, पेट निकल आना।   10- भूख कम लगना, शरीर कमजोर होना, आंखो की रोशनी कमजोर होना।    11- अच्छा पौष्टिक भोजन करने पर भी शरीर न बनना क्योंकि पेट के कीड़े आधा खाना खा जाते है।    12- फेफड़ो की तकलीफ, सांस लेने में दिक्कत, दमा की शिकायत, एलर्जी आदि।    13- बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में कमी आना।     14- बच्चों का दांत किटकिटाना, बिस्तर पर पेशाब करना, नींद में चौंक जाना, उल्टी होना।      15- आंतो में कीड़ो के काटने पर घाव होने से लीवर एवं बड़ी आंत में कैंसर होने का खतरा। कैंसर के जीवाणु खाना के साथ लीवर व आंत में पहुँचकर कीड़ो के काटने से हुए घाव में सड़न पैदा कर कैंसर का रूप ले लेते हैं।

      ये कीड़े संसार के समस्त स्त्री-पुरुष व बच्चों में पाये जाते है। यह छोटे-बडे 1 सेन्टीमीटर से 1मीटर तक लम्बे हो सकते हैं एवं इनका जीवनकाल 10से12वर्ष तक रहता है। यह पेट की आंतो को काटकर खून पीते है जिससे आंतो में सूजन आ जाती है। साथ ही यह कीड़े जहरीला मल विसर्जित भी करते हैं जिससे पूरा पाचन तंत्र बिगड़ जाता है। यह जहरीला पदार्थ आंतो द्वारा खींचकर खून में मिला दिया जाता है जिससे खून में खराबी आ जाती है। यही दूषित खून पूरे शरीर के सभी अंगों जैसे हृदय, फेफड़े, गुर्दे, मस्तिष्क आदि में जाता है जिससे इनका कार्य भी बाधित होता है और अनेक रोग जन्म ले लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है और अनेक रोग हावी हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को प्रतिवर्ष कीड़े की दवा जरूर लेनी चाहिए। एलोपैथिक दवाओं में ज्यादातर कीड़े मर जाते हैं, परन्तु जो ज्यादा खतरनाक कीड़े होते हैं, जैसे- गोलकृमि, फीताकृमि, कद्दूदाना आदि, जिन्हें पटार भी कहते हैं, वे नहीं मरतें हैं। इन कीड़ों पर एलोपैथिक दवाओं को कोई प्रभाव नहीं पडता है, इन्हें केवल आयुर्वेदिक दवाओं से ही खत्म किया जा सकता है। ये कीड़े मरने के बाद फिर से हो जाते हैं। इसका कारण खान-पान की अनियमितता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये प्रत्येक वर्ष कीड़े की दवा अवश्य खानी चाहिये।

कृमि रोग की चिकित्सा- 1- बायबिरंग, नारंगी का सूखा छिलका, चीनी(शक्कर) को समभाग पीसकर रख लें। 6ग्राम चूर्ण को सुबह खाली पेट सादे पानी के साथ 10दिन तक प्रतिदिन लें। दस दिन बाद कैस्टर आयल (अरंडी का तेल) 25ग्राम की मात्रा में शाम को रोगी को पिला दें। सुबह मरे हुए कीड़े निकल जायेंगे।
2- पिसी हुई अजवायन 5ग्राम को चीनी के साथ लगातार 10दिन तक सादे पानी से खिलाते रहने से भी कीड़े पखाने के साथ मरकर निकल जाते है।
3- पका हुआ टमाटर दो नग, कालानमक डालकर सुबह-सुबह 15 दिन लगातार खाने से बालकों के चुननू आदि कीड़े मरकर पखाने के साथ निकल जाते है। सुबह खाली पेट ही टमाटर खिलायें, खाने के एक घंटे बाद ही कुछ खाने को दें।
4- बायबिरंग का पिसा हुआ चूर्ण तथा त्रिफला चूर्ण समभाग को 5ग्राम की मात्रा में चीनी या गुड़ के साथ सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे बाद सादे पानी से लगातार 10दिन दें। सभी तरह के कृमियों के लिए लाभदायक है।
5- नीबू के पत्तों का रस 2ग्राम में 5 या 6 नीम के पत्ते पीसकर शहद के साथ 9 दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
6- पीपरा मूल और हींग को मीठे बकरी के दूध के साथ 2ग्राम की मात्रा में 6दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

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