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बुधवार, 24 अप्रैल 2013

अध्यात्म ही परम ज्ञान : स्वामी विवेकानन्द Spirituality Is The Supreme Knowledge : Swami Vivekananda

अध्यात्म ही मनुष्य का परम ज्ञान स्वामी विवेकानन्द


 -प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।जिस प्रकार बहुत सी नदियां, जिनका उद्रम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अंत में समुद्र में ही गिरती हैं, उसी प्रकार ये सभी विभिन्न संप्रदाय तथा धर्म, जो विभिन्न दृष्टि-बिंदुओं से प्रकट होते हैं, सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते हुए अंतत: तुम्हीं को प्राप्त होते हैं। किसी एक धर्म का सत्य होना अन्य सभी धर्मों के सत्य होने के ऊपर निर्भर करता है। उदाहरण-स्वरूप, अगर मेरे छ: अंगुलियां हैं और किसी दूसरे व्यक्ति के नहीं हैं, तो तुम कह सकते हो कि मेरे छ: अंगुलियों का होना असामान्य है। यही बात इस तर्क के संबंध में भी कही जा सकती है कि कोई एक धर्म सत्य है और अन्य सभी झूठे हैं। किसी एक धर्म का सत्य होना वैसे ही अस्वाभाविक है, जैसे संसार में किसी एक ही व्यक्ति के छ: अंगुलियों का होना। इस तरह हम देखते हैं कि अगर कोई एक धर्म सत्य है, तो अन्य सभी धर्म भी सत्य हैं। उनके अधारभूत तत्त्वों में अंतर पड़ सकता है, पर तत्त्वत: सभी एक हैं। अगर मेरी पांचों अंगुलियां सत्य हैं, तो वे सिद्ध करती हैं कि तुम्हारी पांचों अंगुलियां भी सत्य हैं।  क्या धर्म को भी स्वयं को उस बुद्धि के आविष्कार द्वारा सत्य प्रमाणित करना है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं? ब्राह्म ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा विश्वास भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अंवेषणों के द्वारा ध्वंस प्राप्त हो जाए, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था- कोरे अंधविश्वास का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाए, उतना ही अच्छा। मेरी अपनी दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल धुल जरूर जाएगा, पर इस अनुसंधान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्त्व विजयी होकर निकल आएंगे। वह केवल विज्ञान सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक जितनी कि भौतिकी या रसायनशास्त्र की उपलब्धियां हैं- प्रत्युत् और भी अधिक सशक्त हो उठेगा, क्योंकि भौतिक या रसायनशास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अंत:साक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है।धर्म का अध्ययन अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक आधार पर होना चाहिए। धर्म संबंधी सभी संकीर्ण, सीमित, युद्धरत धारणाओं को नष्ट होना चाहिए। संप्रदाय, जाति या राष्ट्र की भावना पर आधारित सारे धर्मों का परित्याग करना होगा। हर जाति या राष्ट्र का अपना-अपना अलग ईश्वर मानना और दूसरों को भ्रांत कहना, एक अंधविश्वास है, उसे अतीत की वस्तु हो जाना चाहिए। ऐसे सारे विचारों से मुक्ति पाना होगा। अब प्रश्न आता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है? हां कर सकता है। यह मनुष्य को शाश्वत जीवन प्रदान करता है। आज मनुष्य जिस स्थिति में है, वह धर्म ही की बदौलत है और धर्म ही इस मानव पशु को एक ईश्वर बना देगा। यह है धर्म की क्षमता। 

मानव समाज से धर्म को निकाल दो, फिर शेष क्या बचेगा? पशुओं से भरे जंगल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जैसे कि मैं अभी कह चुका हूं, इंद्रिय-सुख को मानवता का चरम लक्ष्य मानना महज मूर्खता है, मानव जीवन का लक्ष्य ज्ञान है। पशु जितना आनन्द अपनी इंद्रियों के माध्यम से पाता है, उससे अधिक आनन्द मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति का बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनन्द प्राप्त करते हैं। इसलिए मनुष्य का परम ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है। इस ज्ञान के होते ही परमानन्द की प्राप्ति होती है। संसार की सारी चीजें मिथ्या, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनन्द की तृतीय या चतुर्थ स्तर की अभिव्यक्तियां हैं। मुख्य बात है ईश्वर-प्राप्ति की आकांक्षा। 
हमारे सभी स्वार्थों की पूर्ति बाहरी संसार के द्वारा हो जाती है। अत: हमें ईश्वर के सिवा अन्य सभी वस्तुओं की आकांक्षा होती है। अत: जब हमें इस बाह्म संसार के उस पार की चीजों की आवश्यकता होती है, तभी हम उनकी पूर्ति अंत:स्थ स्त्रोत या ईश्वर से करना चाहते हैं। हमारी आवश्यकताएं जब तक इस भौतिक सृष्टि की संकुचित सीमा के भीतर की वस्तुओं तक ही परिमित रहती हैं, तब तक हमें ईश्वर की कोई जरूरत नहीं पड़ती। जब हम यहां के हर एक चीज से तृप्त होकर ऊब जाते हैं, तभी हमारी दृष्टि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सृष्टि से परे दौड़ती है। जब आवश्यकता होती है, तभी उसकी मांग भी होती है। इसलिए इस संसार की बालक्रिड़ा से, जितनी जल्दी हो सके निपट लो। तभी तुम्हें इस संसार के परे की किसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत होगी और धर्म के प्रथम सोपान पर तुम कदम रख सकोगे।

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