शीतांशु कुमार सहाय
आज नौ फरवरी है, मेरा जन्मदिन। अतः मैंने सोचा कि आज कुछ ऐसा लिखा जाये जिसे मेरे प्यारे मित्र वास्तव में पढ़ें और ज्ञान में वृद्धि करें।
मित्रों! सभी जानते हैं कि भारत ने विश्व को कई अमूल्य उपहार दिये हैं। इन उपहारों में एक है अध्यात्म-विज्ञान जो सबके कल्याण का कारक है- शारीरिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से भी। जिस समय कृत्रिम उपग्रहों का आविष्कार नहीं हुआ था, उस समय ही हमारे मनीषियों ने कई आकाशीय पिण्डों की पृथ्वी से दूरी और उनकी गति आदि के बारे में बताया था जो आज भी आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरा है। नौ ग्रहों का पृथ्वी और इस पर रहने वाले जीवों पर प्रभाव आदि का विश्लेषण हजारों वर्षों पूर्व ही किया गया। साथ ही समाज का ताना-बाना इस प्रकार बुना गया था जिसमें सार्वजनिक धन का समाज में इतना समान वितरण था कि कोई भिखारी यहाँ नहीं था। सबके हाथ में रोजगार था, सभी हुनरमन्द थे, सभी ज्ञानवान थे, सभी सामाजिक व राजकीय नियमों को पूर्णतः मानने वाले सभ्य व उच्च आचरणवान भारतीय थे। कार्य के अनुसार वर्ण-व्यवस्था होने के बावजूद जातिगत या धर्मगत वैमनस्यता नहीं थी। ऐसे ही गुणों ने भारत को विश्वगुरु की संज्ञा दिलायी। यही गुण अंग्रेजों को रास न आया और उन्होंने यहाँ अपने शासन को मजबूत करने के लिए अपने कई विशेषज्ञों से सर्वेक्षण कराया जिनमें एक था मैस्क्युले। उसने भारत भ्रमण के बाद दो फरवरी 1835 ईश्वी को ब्रिटिश संसद में जो वक्तव्य दिया, मैं उसके प्रमुख अंश को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ--
''मैं भारत के कोने कोने मे घूमा हूँ मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो भिखारी हो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन-दोलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता हम इस देश को जीत पाएंगे, जब तक इसकी रीड की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो है इसकी आध्यात्मिक संस्कृति और इसकी विरासत! इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि हम पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बादल डाले; क्यूंकि यदि भारतीय सोचने लगे कि जो भी विदेशी है और अँग्रेजी है, वही अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे आत्म गौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते है। एक पूरी तरह से दमित देश!''
चित्र में मैस्क्युले और उसका मूल अँग्रेजी अंश भी मित्रों के लिए पेश कर रहा हूँ।
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