-शीतांशु कुमार सहाय
चित्र में आदिशक्ति द्वारा त्रिदेवों की उत्पत्ति |
सनातन धर्म के बारे में बनी व प्रचलित अधिकतर अवधारणाएँ विवादित हैं। वास्तव में वैसी अवधारणाएँ ही विवादित हैं, जिनका आधार वेद पर आधारित नहीं है। सुनी-सुनायी बातों पर कोई विचार बना लेने से ही विवाद का जन्म होता है। वास्तव में अधिकतर लोग वेदों को पढ़े बिना ही सनातन धर्म पर तर्क प्रस्तुत कर देते हैं। यह गलत है। वेदों को पढ़ें और उसके तथ्यों को गम्भीरता से समझें और तब विचार व्यक्त करें। अधिकतर हिन्दुओं ने वेद नहीं पढ़ी, जो उनकी सबसे बड़ी भूल है।
मेरे एक मुसलमान मित्र तौहीद अनवर ने बताया- आपके धर्म में वेद, रामायण, गीता आदि पढ़ना दकियानूसी विचारधारा का प्रतीक माना जाता है। जीवन गुजर जाती है पर वेद के चन्द पन्ने भी पढ़ नहीं पाते। मित्र ने आगे कहा- आप जिस पण्डित या ब्राह्मण को धर्म व धर्मग्रन्थ का प्रतीक मानते हैं, वह भी जीवन में एक बार भी वेद आदि नहीं पढ़ा। यदि पढ़ा होता तो चन्द रुपयों के लिए पूजा करवाने से आना-कानी नहीं करता या किसी मन्दिर आदि में प्रवेश से पहले पैसे की वसूली के लिए छीछालेदर नहीं करता। मित्र अविराम बोले जा रहा था- इस्लाम में नैतिक नियम बना दिया गया है कि बच्चे पाँच-दस वर्ष की अवस्था में कम-से-कम एक आवृत्ति कुरानशरीफ अवश्य पढ़ें और उसका अर्थ मौलवी या किसी जानकार से समझे। पर, आपके धर्म में बच्चे को वेद, रामायण या गीता आदि पढ़ने का कोई नियम नहीं है। यदि कोई अपने पुत्र या पुत्री को ऐसा करवाता भी है तो आपका समाज उसे पुरानपंथी कहकर चिढ़ाता है। यदि ग्रन्थों को पढ़ने की परम्परा रहती तो हिन्दुओं में इतनी भ्रान्तियाँ नहीं आतीं।
मैं मित्र की बात सुनकर अवाक् रह गया। वास्तव में स्थिति का बिल्कुल सही आकलन किया था तौहीद ने। वास्तव में तौहीद का बड़ा भाई मेरा मित्र है। इस लिहाज से वह मुझे भैया कहता है। तौहीद हिन्दी और उर्दू में पुस्तकों का लेखन भी करता है और पेशे से शिक्षक है।
सनातन धर्म की एक भ्रान्ति यह भी है कि लोग मानते हैं कि इस धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। अन्य धर्मवालों को छोड़ दीजिये, सनातनधर्मी अर्थात् हिन्दू भी यही मानते हैं। घोर आश्चर्य है कि इस भ्रान्ति को वेद पढ़े बिना ही प्रचारित कर दिया गया अथवा गलत अर्थ लगाकर भ्रान्ति फैलायी गयी। वास्तव में ‘कोटि’ शब्द का अर्थ ‘करोड़’ ही नहीं ‘प्रकार’ भी होता है। वेद में 33 प्रकार के देवताओं की चर्चा है, 33 करोड़ की नहीं। यहाँ जानिये कि उच्चकोटि का अर्थ ऊँचा करोड़ नहीं, अच्छा प्रकार होता है। वेदों का तात्पर्य तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवी-देवताओं से है। इन प्रकारों में हजारों देवी-देवता शामिल हैं। पर, सनातन धर्म एक ही आदिशक्ति की उपासना करने को प्ररित करता है। धार्मिक ग्रंथों में साफ-साफ लिखा है-- ''निरंजनो निराकारो एको देवो महेश्वरः'' अर्थात इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार महादेव हैं। साथ ही यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य बात है कि हिन्दू सनातन धर्म मानव की उत्पत्ति के साथ ही बना है और प्राकृतिक है, इसीलिए हमारे धर्म में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर जीना बताया गया है।
प्रकृति में भगवान---
प्रकृति को भी भगवान की उपाधि दी गयी है; ताकि लोग प्रकृति के साथ खिलवाड़ न करें। जैसे :- गंगा को देवी माना जाता है; क्योंकि गंगाजल में सैकड़ों प्रकार की हिमालय की औषधियां घुली होती हैं। गाय को माता कहा जाता है; क्योंकि गाय का दूध अमृत है और गोबर एवं गौमूत्र में कई प्रकार की औषधीय गुण पाए जाते हैं। तुलसी के पौधे को भगवान इसीलिए माना जाता है कि तुलसी के पौधे के हर भाग में विभिन्न औषधीय गुण हैं। इसी तरह वट और पीपल के वृक्ष घने होने के कारण ज्यादा ऑक्सीजन देते हैं और थके हुए राहगीर को छाया भी प्रदान करते हैं। यही कारण है कि हमारे धर्मग्रंथों में प्रकृति पूजा को प्राथमिकता दी गयी है। प्रकृति से ही मनुष्य जाति है न कि मनुष्य जाति से प्रकृति है। प्रकृति को धर्म से जोड़ा जाना और उनकी पूजा करना सर्वथा उपर्युक्त है। यही कारण है कि धर्मग्रंथों में सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायु, अग्नि को भी देवता माना गया है। इसी प्रकार कुल 33 प्रकार के देवी-देवता हैं।
प्रकृति की प्रार्थना---
वेद प्राकृतिक तत्त्व की प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते हैं। ये नदी, पहाड़, समुद्र, बादल, अग्नि, जल, वायु, आकाश और हरे-भरे प्यारे वृक्ष हमारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं। इनकी पूजा नहीं प्रार्थना की जाती है। यह ईश्वर और हमारे बीच सेतु का कार्य करते हैं।
33 प्रकार के देवी-देवता---
8 वसु ये हैं-- अग्नि, पृथिवि, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, घौ:, चन्द्रमा ओर नक्षत्र। इनका नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते हैं। ये ही सबके निवास करने के स्थान हैं। 11 रूद्र ये हैं-- जो शरीर में दश प्राण हैं अर्थात प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और 11वां जीवात्मा। जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते हैं। वे निकलते हुए उनको रुलाते हैं, इससे इनका नाम रूद्र है। सृष्टि की उत्पत्ति के दौरान रुद्र की उत्पत्ति ब्रह्मा के क्रोध आने पर उनके भौंहों के बीच से हुआ था। उत्पत्ति के समय रुद्र रो रहे थे। अतः जब भी ये किसी कि शरीर से निकलते हैं तो सबको रुलाते हैं। इसी प्रकार आदित्य 12 महीनो को कहते हैं। वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते हैं, इसी से इनका नाम आदित्य है। ऐसे ही 'इंद्र' नाम बिजली का है। वह उत्तम ऐश्वर्य का मुख्य हेतु है और 'यज्ञ' को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है तथा पशुओं की यज्ञ संज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन पालन होता है। ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से 33 देव कहलाते हैं। इनमें से कोई भी उपासना के योग्य नही है। व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव हैं। वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं- 1.ब्रह्मयज्ञ, 2.देवयज्ञ, 3.पितृयज्ञ, 4.वैश्वदेव यज्ञ और 5.अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं।
केवल ब्रह्म ही उपासना योग्य---
मनुष्य के उपासना के योग्य देव तो एक ब्रह्म ही है। सब जगत के बनाने से ब्रह्मा, सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को दण्ड देकर रुलाने से रूद्र, मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव हैं। ईश्वर एक ही है और वही प्रार्थनीय तथा पूजनीय है। वही स्रष्टा है, वही सृष्टि है। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी उस ईश्वर के संदेश वाहक हैं। हजारों देवी-देवता उसी एक के प्रति नमन करते हैं। वेद, वेदांत और उपनिषद एक ही परमतत्त्व को मानते हैं। ब्रह्म को ही आदिशक्ति या परमेश्वर कहा जाता है। सनातन हिन्दू धर्म की मान्यता है कि सृष्टि उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अनंत प्रक्रिया पर चलती है। गीता में कहा गया है कि जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अदृश्य से दृश्यमान हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अदृश्य में लीन हो जाता है। वह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्त्व से मिलकर बनी है। परमेश्वर सबसे बढ़कर है।
धर्म के मूल तत्त्व---
किसी भी धर्म के मूल तत्त्व उस धर्म को मानने वालों के विचार, मान्यताएं, आचार तथा संसार एवं लोगों के प्रति उनके दृष्टिकोण को ढालते हैं। हिंदू धर्म की बुनियादी पांच बातें हैं-- 1. वंदना, 2. वेदपाठ, 3. व्रत, 4. तीर्थ, और 5. दान। यम नियम का पालन करना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है। यम अर्थात 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह। नियम अर्थात 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्रणिधान। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पांच या आठ वक्त (समय) की मानी गई है, लेकिन सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्त्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में गायत्री से ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। मोक्ष की धारणा और इसे प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया गया है। यह सनातन धर्म की महत्त्वपूर्ण देन में से एक है। मोक्ष में रुचि न भी हो तो भी मोक्ष ज्ञान प्राप्त करना अर्थात इस धारणा के बारे में जानना प्रमुख कर्तव्य है। पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का सनातन हिंदू धर्म में बहुत ही महत्त्व माना गया है। दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गांठे खोलना जरूरी है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्त्व का वर्णन किया गया है।
वेद ही धर्म ग्रंथ है---
कितने लोग हैं जिन्होंने वेद पढ़े? सभी ने पुराणों की कथाएं जरूर सुनी और उन पर ही विश्वास किया तथा उन्हीं के आधार पर अपना जीवन जिया और कर्मकांड किए। पुराण, रामायण और महाभारत धर्मग्रंथ नहीं इतिहास ग्रंथ हैं। ऋषियों द्वारा पवित्र ग्रंथों, चार वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एवं अचूकता पर जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ़ नींव को बनाए रखता है। कहा जाता है कि वेदों को अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।
कर्म पर विश्वास व सर्वधर्म समभाव---
सनातन हिन्दू धर्म भाग्य से ज्यादा कर्म पर विश्वास रखता है। कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है। कर्म एवं कार्य-कारण के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रिया से अपनी नियति स्वयं तय करता है। इसी से प्रारब्ध बनता है। कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया गया है। सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हुई आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से ही यह चक्र समाप्त होता है। ''आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः।'' ऋग्वेद के इस मंत्र का अर्थ है कि किसी भी सदविचार को अपनी तरफ किसी भी दिशा से आने दें। ये विचार सनातन धर्म एवं धर्मनिष्ठ साधक के सच्चे व्यवहार को दर्शाते हैं। चाहे वे विचार किसी भी व्यक्ति, समाज, धर्म या सम्प्रदाय से हो। यही सर्वधर्म समभाव है।
अतः हमें नियमित रूप से ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये, उसके तथ्यों को समझना चाहिये और उसपर अमल करना चाहिये। ऐसा करने से ही सफल जीवन का आनन्द लिया जा सकता है।
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