अमेरिका पर हुए 9/11 के हमले की 13वीं बरसी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर 11 सितंबर 2001 के हमले और इसी दिन 1893 में शिकागो में दिए गए स्वामी विवेकानंद के भाषण में फर्क बताया। प्रधानमंत्री ने कहा है कि अगर दुनिया स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं पर अमल करती तो 9/11 जैसी कायराना हरकत न होती। 121 साल पहले स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में विश्व बंधुत्व का संदेश दिया था।
धर्म संसद में भाषण से पहले स्वामी विवेकानंद सिर्फ नरेंद्र थे जो बहुत मुश्किलों का सामना करते हुए जापान, चीन और कनाडा की यात्रा कर अमेरिका पहुंचे थे। उनको तो धर्म संसद में बोलने का मौका भी नहीं दिया जा रहा था लेकिन जब उन्होंने अमेरिका के भाइयों और बहनों के संबोधन से भाषण शुरू किया तो पूरे दो मिनट तक आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में तालियां बजती रहीं। इसके बाद धर्म संसद सम्मोहित होकर स्वामी जी को सुनती रही। अमेरिकी मीडिया ने उन्हें भारत से आया 'तूफानी संन्यासी' 'दैवीय वक्ता' और 'पश्चिमी दुनिया के लिए भारतीय ज्ञान का दूत' जैसे शब्दों से सम्मान दिया। अमेरिका पर स्वामी विवेकानंद ने जो असर छोड़ा वो आज भी कायम है। इसीलिए, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब भारतीय संसद को संबोधित किया तो स्वामी विवेकानंद का संदेश उनकी जुबान पर भी था। हिंदू धर्म के प्रतीक के रूप में गेरुए कपड़े से अमेरिका का पहला परिचय स्वामी विवेकानंद ने ही कराया था। उनके भाषण ने अमेरिका पर ऐसा असर छोड़ा कि गेरुए कपड़े अमेरिकी फैशन में शुमार किए जाने लगे। शिकागो-भाषण से ही दुनिया ने ये जाना कि भारत गरीब देश जरूर है लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान में वो बहुत अमीर है। 121 साल पहले दुनिया के धर्मों पर हुई विश्व संसद में दिए गए स्वामी विवेकानंद के भाषण ने भारत के बारे में अमेरिका ही नहीं समूची दुनिया की सोच को बदल दिया।
स्वामी विवेकानंद कैसे गए अमेरिका---
अमेरिका जाने से पहले नरेंद्र नाथ मद्रास में थे। तब उन्होंने अखबारों में शिकागो में हो रही धर्म संसद के बारे में सुना था। कहते हैं नरेंद्रनाथ को उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने सपने में आकर धर्म संसद में जाने का संदेश दिया था लेकिन नरेंद्र नाथ के पास पश्चिम देशों में जाने के लिए पैसे नहीं थे। नरेंद्र नाथ ने खेत्री के महाराज से संपर्क किया और उन्हीं के सुझाव पर अपना नाम स्वामी विवेकानंद रख लिया। महाराजा खेत्री की मदद से ही 31 मई 1893 को स्वामी विवेकानंद, चीन-जापान और कनाडा होते हुए अमेरिका की यात्रा पर निकल पड़े।
धर्म संसद में बुलाए नहीं गए थे विवेकानंद---
30 जुलाई 1893 को स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो पहुंचे, लेकिन वो ये जानकर परेशान हो गए कि सिर्फ जानी-मानी संस्थाओं के प्रतिनिधियों को ही विश्व धर्म संसद में बोलने का मौका मिलेगा। विवेकानंद ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें हार्वर्ड में भाषण देने के लिए बुलाया। राइट विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे, जब उन्होंने जाना कि धर्म संसद के लिए स्वामी जी के पास किसी संस्था का परिचय नहीं है, तब उन्होंने कहा कि स्वामी जी, आपसे आपके परिचय के लिए पूछना ऐसा ही है जैसे सूरज से पूछा जाए कि स्वर्ग में वो किस अधिकार से चमक रहा है। इसके बाद प्रोफेसर राइट ने धर्म संसद के चेयरमैन को चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ये व्यक्ति हमारे सभी प्रोफेसरों के ज्ञान से भी ज्यादा ज्ञानी है। स्वामी विवेकानंद धर्मसंसद में किसी संस्था के नहीं बल्कि भारत के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल किए गए।
भाषण में स्वामी विवेकानंद ने कहा---
11 सितंबर 1893 को शिकागो में धर्मसंसद शुरू हुई। स्वामी विवेकानंद का नाम पुकारा गया। सकुचाते हुए स्वामी विवेकानंद मंच पर पहुंचे। वो घबराए हुए थे। माथे पर आए पसीने को उन्होंने पोंछा। लोगों को लगा कि भारत से आया ये नौजवान संन्यासी कुछ बोल नहीं पाएगा। स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु का ध्यान किया और इसके बाद उनके मुंह से जो बोल निकले, उसे धर्म संसद सुनती रह गई। स्वामी विवेकानंद के पहले शब्द थे अमेरिका के भाइयो और बहनो। ये सुनते ही वहां करीब दो मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रही। इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान से भरा ऐसा ओजस्वी भाषण दिया जो इतिहास बन गया। स्वामी विवेकानंद के भाषण में उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का दिया गया वैदिक दर्शन का ज्ञान था। इस भाषण में दुनिया को शांति से जीने का संदेश छुपा था। इसी भाषण में वो संदेश भी है जिसमें स्वामी विवेकानंद ने कट्टरता और हिंसा की जमकर आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि सांप्रदायिकता कट्टरता और उसी की भयानक उपज धर्मांधता ने लंबे वक्त से इस सुंदर धरती को जकड़ रखा है। ऐसे लोगों ने धरती को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार उसे मानव रक्त से रंग दिया, सभ्यताओं को तबाह किया और सभी देशों को निराशा के गर्त में धकेल दिया। इसके बाद जितने दिन भी धर्म संसद चली स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म, और भारत के बारे में दुनिया को वो ज्ञान दिया जिसने भारत की नई छवि बना दी। इस धर्म संसद के बाद स्वामी विवेकानंद विश्व प्रसिद्ध हस्ती बन गए। हाथ बांधे हुआ उनका पोज शिकागो पोज के नाम से जाना जाने लगा। स्वामी विवेकानंद के ऐतिहासिक भाषण के बाद इसे थॉमस हैरीसन नाम के फोटोग्राफर ने खींचा था। हैरीसन ने स्वामी जी की आठ तस्वीरें ली थीं जिनमें से पांच पर स्वामी जी ने अपने हस्ताक्षर भी किए थे। अगले तीन साल तक स्वामी विवेकानंद अमेरिका में और लंदन में वेदांत की शिक्षाओं का प्रसार करते रहे।
विवेकानंद अमेरिका से श्रीलंका पहुंचे---
15 जनवरी 1897 को विवेकानंद अमेरिका से श्रीलंका पहुंचे। उनका जोरदार स्वागत हुआ। इसके बाद वो रामेश्वरम से रेल के रास्ते आगे बढ़े। रास्ते में लोग रेल रोककर उनका भाषण सुनने की जिद करते थे। विवेकानंद विदेशों में भारत के आध्यात्मिक ज्ञान की बात करते थे लेकिन भारत में वो विकास की बात करते थे। गरीबी, जाति व्यवस्था और साम्राज्यवाद को खत्म करने की बात करते थे। रामेश्वरम से मद्रास होते हुए विवेकानंद कोलकाता पहुंचे, वो कोलकाता जो उनकी जन्मभूमि थी और लंबे वक्त तक उनकी कर्मभूमि रही।
राम कृष्ण मिशन की नींव रखी---
शिकागो की धर्म संसद से भारत लौटने पर 1 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद ने राम कृष्ण मिशन की नींव रखी। राम कृष्ण मिशन नए भारत के निर्माण के लिए अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ-सफाई के काम से जुड़ गया। स्वामी विवेकानंद नौजवानों के आदर्श बन गए। 1898 में उन्होंने बेलूर मठ की स्थापना की। 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ में ही स्वामी विवेकानंद का निधन हो गया लेकिन उनके कहे शब्द आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा हैं, जिसका मूल मंत्र है-- ''उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुंचने से पहले रुको मत।'' (Wake up, wake up and do not stop before reaching the target.)
नरेंद्रनाथ के स्वामी विवेकानंद बनने की राह---
रविंद्रनाथ टैगोर, अरविंदो घोष और महात्मा गांधी की तरह स्वामी विवेकानंद को भारत की आत्मा को जगाने वाले भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के तौर पर देखा जाता है। उनमें छुपे महानता के ये गुण बचपन से ही दिखने लगे थे। 12 जनवरी 1863 को कोलकाता हाईकोर्ट में वकील विश्वनाथ दत्त और उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी के घर में नरेंद्र नाथ का जन्म हुआ था। विश्वनाथ दत्त प्रगतिशील सोच वाले शख्स थे, जबकि भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की थीं। नरेंद्र नाथ के जीवन पर माता और पिता दोनों की सोच का गहरा असर पड़ा। बचपन में चंचल स्वभाव वाले नरेंद्र बड़े होकर एक धीर-गंभीर और पढ़ने में रुचि रखने वाले नौजवान में बदल गए। धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास और विज्ञान हर विषय में उनकी रुचि थी। नरेंद्र ने शास्त्रीय संगीत भी सीखा और 1881 में जनरल एसेंबली इंस्टीट्यूशन नाम से जाने जाने वाले स्कॉटिश चर्च कॉलेज से चित्रकला की परीक्षा पास की। 1884 में उन्हें कला में स्नातक की डिग्री मिली। उनकी बहुमुखी प्रतिभा देख कर जनरल एसेंबली इंस्टीट्यूशन के प्रिसिंपल विलियम हेस्टी ने उन्हें जीनियस कहा था। 28 सितंबर 1895 को शिकागो एडवोकेट नाम के अंग्रेजी अखबार ने उनके बारे में लिखा कि विवेकानंद ऐसी अंग्रेजी बोलता है जैसे वो उसकी मातृभाषा हो। नरेंद्र नाथ जीनियस थे और ज्ञान के लिए इस जीनियस की भूख खत्म नहीं हो रही थी। वो ईश्वर को तलाश रहे थे। इसी तलाश ने उन्हें ब्रह्म समाज के केशुब चंद्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर वाले धड़े से जोड़ दिया। नरेंद्रनाथ की जिज्ञासा यहां भी शांत नहीं हुई। फिर, एक दिन क्लास में मशहूर कवि विलियम वर्डस् वर्थ की कविता में ट्रांस शब्द का अर्थ समझाते हुए प्रोफेसर हेस्टी ने कहा कि जिसे सचमुच इसका अर्थ जानना हो उसे रामकृष्ण परमहंस से मिलना चाहिए और यहीं से एक शिष्य से गुरु की मुलाकात तय हो गई। कहते हैं गुरु के बिना बुद्धिमान से बुद्धिमान शख्स भी अपने जीवन के लक्ष्य और अर्थ नहीं तलाश पाता है। स्वामी विवेकानंद के साथ भी यही हुआ, जबतक कि उनकी मुलाकात राम कृष्ण परमहंस से नहीं हुई थी।
गुरु रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्रनाथ की मुलाकात---
स्वामी विवेकानंद अगर ज्ञान की रौशनी थे तो रामकृष्ण परमहंस वो प्रकाश पुंज थे जिनके ज्ञान की रौशनी ने नरेंद्रनाथ को विवेकानंद बना दिया था। अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से रामकृष्ण परमहंस के बारे में सुनकर, नवंबर 1881 को वो उनसे मिलने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर पहुंचे थे। रामकृष्ण परमहंस से भी नरेंद्र नाथ ने वही सवाल किया जो वो औरों से कर चुके थे, कि क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया-हां मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूं जितना कि तुम्हें देख सकता हूं। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूं। रामकृष्ण परमहंस के जवाब से नरेंद्रनाथ प्रभावित तो हुए लेकिन शुरुआत में वो उनकी सोच को समझ नहीं सके। हालांकि इस मुलाकात के बाद उन्होंने नियम से रामकृष्ण परमहंस के पास जाना शुरू कर दिया। वो रामकृष्ण परमहंस के विचारों से सहमत नहीं थे। निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को शुरुआत में उन्होंने धर्मविरोधी तक समझा। तर्क-वितर्क में वो रामकृष्ण परहमंस का विरोध करते थे, तब उन्हें यही जवाब मिलता था कि सत्य को सभी कोण से देखने की कोशिश करो। इसके बाद नरेंद्र के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया, जब 1884 में उनके पिता का देहांत हो गया। अमीर घर के नरेंद्र एकाएक गरीब हो गए। उनके घर पर उधार चुकाने की मांग करने वालों की भीड़ जमा होने लगी। नरेंद्र ने रोजगार तलाशने की भी कोशिश की लेकिन नाकाम रहने पर वो रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। उन्होंने परमहंस से कहा कि वो मां काली से उनके परिवार की माली हालत सुधारने के लिए प्रार्थना करें। रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि वो खुद काली मां से प्रार्थना क्यों नहीं करते। कहा जाता है कि नरेंद्र तीन बार काली मंदिर में गए लेकिन हर बार उन्होंने अपने लिए ज्ञान और भक्ति मांगी। इस आध्यात्मिक तजुर्बे के बाद नरेंद्र ने सांसारिक मोह का त्याग कर दिया और राम कृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया। राम कृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद को जीवन का ज्ञान दिया। 16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस के निधन के दो साल बाद नरेंद्र भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े।
भारत भ्रमण---
भारत भ्रमण के दौरान वो देश में फैली गरीबी, पिछड़ेपन को देखकर विचलित हो उठे। छह साल तक नरेंद्रनाथ भारत की समस्या और आध्यात्म के गूढ़ सवालों पर विचार करते रहे। कहा जाता है कि इसी यात्रा के अंत में कन्याकुमारी में नरेंद्र को ये ज्ञान मिला कि नए भारत के निर्माण से ही देश की समस्या दूर की जा सकती है। भारत के पुनर्निर्माण का लगाव ही उन्हें शिकागो की धर्मसंसद तक ले गया।
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