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सोमवार, 16 सितंबर 2019

विश्वकर्मा पूजा : कीजिये कर्म की पूजा, बने रहिये कर्मशील Vishwakarma Puja

शीतांशु कुमार सहाय
विश्व को कर्म करने और निरन्तर कर्मशील रहने का सन्देश देनेवाले देव विश्वकर्मा के वार्षिक पूजन का दिन है १७ सितम्बर। वैसे तो सृष्टि के आरम्भिक काल से ही विश्वकर्मा की आराधना की जा रही है पर आज के विकासवादी माहौल में उन की आराधना का महत्त्व कुछ अधिक ही हो गया है। निर्माण-गतिविधियों को ही वर्तमान विकास का आधार माना जाता है। यों निर्माण के देव विश्वकर्मा के भक्तों की संख्या में वृद्धि हुई है। 
      सनातन धर्म के ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि नवनिर्माण की विशेषज्ञता के कारण ही उन्हें देवताओं का अभियन्ता माना गया। भारतीय परम्परा में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को प्रथम अभियन्ता और वास्तुविद् माना गया है। समूचे विश्व का ढाँचा, लोक-परलोक का खाका उन्होंने ही तैयार किया। वे ही प्रथम आविष्कारक हैं। यान्त्रिकी, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र तकनीक, वैमानिकी विद्या, नवविद्या आदि के जो प्रसंग मिलते हैं, उन सब के अधिष्ठाता विश्वकर्मा ही माने जाते हैं। 
दरअसल, भारतीय परम्परा में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म (भगवान) हूँ की भी संकल्पना है। इसे कई लोग ने अपनाया, उसे साकार किया। विकास के इस युग में  निर्माण को अंजाम देनेवाले ही भगवान की श्रेणी में हैं, भगवान हैं। 
    धरती छोड़ते समय विश्वकर्मा निर्माण के गुण मनुष्य को दे गये। स्वयं मानव मन के उस उच्च स्थान पर विराजमान हो गये जहाँ पहुँचने के लिए निरन्तर उच्च श्रेणी का परिश्रम करना अनिवार्य है। ऐसे परिश्रम से ही आत्मविकास, समाज या परिवार का विकास सम्भव है। यहाँ यह जानने की बात है कि प्रत्येक ज्ञान अपने-आप में विशेष ज्ञान है। कोई भी ज्ञान जो विकास को बढ़ावा दे, वह ईश्वर की कृपा है। यही कृपा प्राप्त करने के लिए विश्वकर्मा की आराधना की जाती है। विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के लिए अनेक यन्त्रों व शक्ति-सम्पन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है।

वास्तव में केवल बाहरी विकास ही मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य मात्र उदर-पोषण या परिवार-पालन ही नहीं है। भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक व आत्मिक विकास ही मानव जीवन की सम्पूर्णता का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को पूर्ण करने में विश्वकर्मा सहयोग करते हैं। निर्माण या विकास का मतलब केवल वास्तुगत या वस्तुगत ही नहीं, आत्मतत्त्वगत भी है। विकास के इस सोपान पर चढ़ने के लिए निरन्तर सदाचारी प्रयास (कर्म) अनिवार्य है। ऐसा तभी सम्भव है जब केन्द्रीकृत प्रयास हो। जैसे ही केन्द्र प्रसारित हो जाता है तो विकास का लक्ष्य भटक जाता है। इस भटकाव को दूर करने के लिए भगवान विश्वकर्मा की आराधना तो करनी ही पड़ेगी। जय विश्वकर्मा!

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