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मंगलवार, 27 मार्च 2012

भारत का श्रीलंका की खिलाफत के मायने

  मुंबई में आतंकी हमले के बाद से लगातार पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल रवैया, मालदीव मुद्दे पर ख़ामोशी और अब श्रीलंका के विरुद्ध अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन- ये तीन गंभीर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मसले हैं जो वर्तमान केंद्रीय सरकार की लचर विदेश नीति के प्रमाण हैं। 
  शीतांशु कुमार सहाय
संयुक्तराष्ट मानवाधिकार परिषद यानी यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ 22 मार्च को लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में भारत सहित 23 अन्य देशों ने मतदान किया। बात अन्य देशों का नहीं, बल्कि भारत का है। भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर श्रीलंका की खिलाफत आसानी से गले नहीं उतरती। वैसे भी लिबरेशन टाइगर्स आफ तमिल ईलम (लिट्टे) के खात्मे के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा दिये गए सैन्य सहयोग के कारण श्रीलंकाई तमिल  अबतक भारतीय पक्ष में नहीं बोलते हैं। संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव पर पक्ष में 24 मत और खिलाफ में 15 मत पड़े जबकि मतदान से आठ देश अनुपस्थित रहे। चीन और रूस ने प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान किया। प्रस्ताव में कोलम्बो से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के कथित उल्लंघन से निपटने का आह्वान किया गया है। ज्ञात हो कि श्रीलंकाई सेना ने 26 वर्षों के गृहयुद्ध को समाप्त करते हुए मई 2009 में लिट्टे का सफाया कर दिया। युद्ध के अंतिम चरण में हजारों नागरिक मारे गए। प्रस्ताव में श्रीलंका से तमिल टाइगर्स के खिलाफ युद्ध के अंतिम चरण में हुए कथित मानवाधिकारों के हनन की जांच कराने का अनुरोध किया गया है। श्रीलंका से पूछा गया है कि मानवाधिकारों के कथित हनन से वह कैसे निपटेगा और युद्ध पर आंतरिक जांच की अनुशंसाओं को कैसे लागू करेगा? उल्लेखनीय है कि चीन एवं रूस ने श्रीलंका का समर्थन और प्रस्ताव का विरोध किया। मुंबई में आतंकी हमले के बाद से लगातार पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल रवैया, मालदीव मुद्दे पर ख़ामोशी और अब श्रीलंका के विरुद्ध अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन- ये तीन गंभीर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मसले हैं जो वर्तमान केंद्रीय सरकार की लचर विदेश नीति के प्रमाण हैं। यहां यह जानने की बात है कि चीन ने श्रीलंका का समर्थन कर भारत से एक और हितैषी पड़ोसी को भारत का विरोधी बना दिया। यों तीन पड़ोसी भारत के विरोधी हो गए- चीन, पाकिस्तान और अब श्रीलंका। बांग्लादेश को भी सहयोगी नहीं ही मानना चाहिये। यों उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाओं के पड़ोसियों को केंद्रीय सरकार की गलत विदेश नीति ने शत्रु बना दिया। विविध स्वार्थों की पूर्ति को मज़बूरी का नाम देकर मनमोहन सरकार आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर हो रही अंधेरगर्दी से खुद का बचाव करती है। बार-बार देशहित की बलि चढ़ाने के बावजूद केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बनी हुई है। 2-जी घोटाले के पौने दो लाख करोड़ रुपए को काफी पीछे छोड़कर साढ़े दस लाख करोड़ रुपए का कोयला घोटाला सामने आ गया है। आतंकवाद चरम पर है, नक्सलवाद के दलदल से उबरने के बजाय धंसते ही जा रहे हैं हम, महंगाई आसमान पर है... फिर भी यह सरकार क्यों बची हुई है? कहाँ है विपक्ष ? क्यों नहीं भाजपा जैसे राष्ष्ट्रवादी दल ने श्रीलंका का समर्थन करने हेतु सरकार पर दबाव बनाया? क्यों नहीं देश की मीडिया ने श्रीलंका मसले पर राष्ष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए बहस किया? क्यों खामोश रहे हमारे बुद्धिजीवी ? बहरहाल, तिब्बत और नेपाल के बाद अब श्रीलंका के मसले पर हमारी कूटनीति की उदासीनता या नासमझी ने इन तीनों पड़ोसियों को चीन के करीब और भारत से दूर कर दिया है। यही क्रम जारी रहा तो ये भी पौराणिक-सांस्कृतिक संबंधों को भुलाकर हमारे खिलाफ चीन की शह पर उठ खड़े हो सकते हैं। इस संदर्भ में भारत ने आश्वासन दिया है कि वह श्रीलंका के साथ खड़ा रहेगा। यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ 22 मार्च 2012 को लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के बाद भारत ने कोलम्बो के साथ अपने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक रिश्तों का हवाला दे उसे साधने की कोशिश की। भारत ने कहा कि वह श्रीलंका के साथ हमेशा खड़ा करेगा। कोलम्बो के खिलाफ प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने वाले 23 अन्य देशों का साथ देने के बाद भारत ने श्रीलंका के साथ अपने मजबूत सम्बंधों का हवाला दिया। यह सच है कि भारत व श्रीलंका के बीच पौराणिक-सांस्कृतिक संबंध हैं, तो फिर लाचारी क्या थी मनमोहन सरकार की कि वह पड़ोसी के खिलाफ अमेरिका के पक्ष में मतदान को विवश हो गई? संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार परिषद में प्रस्ताव बहुमत से पारित होने के बाद श्रीलंका ने नाराजगी प्रकट की लेकिन इसके तुरंत बाद ही भारत सरकार की सफाई आई कि यह भारत, अमेरिका व श्रीलंका के सम्बंधों पर असर नहीं डालेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्ली में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पर भारत के मतदान को सही ठहराया। उन्होंने कहा कि अमेरिकी प्रस्ताव का भारतीय समर्थन सरकार के रूख पर आधारित है। समझ में अब आया कि मनमोहन सरकार का रूख आखिर देशहित में कितना है? उन्होंने श्रीलंका से तमिलों को न्याय देने की अपील भी की। प्रधानमंत्री ने कहा, "हमें भला-बुरा देखना पड़ता है... हमने अपने रूख के अनुसार प्रस्ताव पर मतदान किया है... हम श्रीलंका की सम्प्रुभता का उल्लंघन नहीं करना चाहते लेकिन हमारी चिंताओं का समाधान होना चाहिए, ताकि तमिलों को न्याय मिले और वे सम्मानित जीवन गुजार सकें।" यों श्रीलंका में उठी भारत विरोधी बयार के बीच भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी किया। बयान को हू-ब-हू आप भी जानिये, "एक ऐसे पड़ोसी देश जिसके साथ हजारों वर्षों के मैत्रीपूर्ण सम्बंध और आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रिश्ते हैं, हम उस देश के घटनाक्रमों से अछूते नहीं रह सकते।" विदेश मंत्रालय की बात समझ में आती है   कि भारत प्रस्ताव के व्यापक संदेश और उद्देश्यों से सहमत है परन्तु संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार परिषद की ओर से कोई भी सहायता श्रीलंका की सहमति से ही दी जा सकती है। मंत्रालय की बातों पर विश्वास करें तो यह विदित होता है कि भारत मानता है कि मानवाधिकारों के बढ़ावे और उनके संरक्षण की जिम्मेदारी सम्बंधित देश की होती है। प्रस्ताव में श्रीलंका से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के कथित उल्लंघन से निपटने का आह्वान किया गया है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके ने यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में भारत के मतदान का स्वागत किया है। डीएमके ने कहा कि तमिलों को उनके अधिकार सुनिश्चित कराना महत्त्वपूर्ण है। अब पूरी तरह समझ लीजिये कि राष्ट्रहित से ऊपर है डीएमके के सहयोग से चल रही केंद्र की कांग्रेसी सरकार को बचाना। श्रीलंका के विरोध में मतदान कर मनमोहन सरकार ने यही संदेश दिया है। हाल ही में कारावास से बाहर आर्इं डीएमके की सांसद कनिमोझी ने कहा है कि तमिलनाडु के सभी दल प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने के लिये सरकार से मांग कर रही थीं। कनिमोझी ने कहा, "भारत ने प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया, यह वास्तव में अच्छी बात है।" उन्होंने कहा कि श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय कानून का पालन किया जाना महत्त्वपूर्ण है। कनिमोझी के अनुसार, तमिलों को उनके अधिकार दिलाना और उनके पुनर्वास की बंदोबस्ती महत्त्वपूर्ण है।" इस बीच श्रीलंका ने भी कहा कि उसके खिलाफ प्रस्ताव लाए जाने के बावजूद भारत व अमेरिका के साथ उसकी मित्रता पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। श्रीलंका के कार्यवाहक सूचना मंत्री लक्ष्मण यापा अबेयवर्दना ने कहा है कि भारत की आंतरिक राजनीतिक स्थिति ने भारत को श्रीलंका के खिलाफ लाए गए अमेरिकी समर्थित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के लिये बाध्य किया है। मतलब यह कि मनमोहन सरकार की लाचारी अब अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय हो गया है। अबेयवर्दना ने माना है कि प्रस्ताव पर भारत ने जो फैसला किया है उससे नई दिल्ली के साथ कोलम्बो के सम्बंध प्रभावित नहीं होंगे। पर, उनका यह कहना कि भारत अपनी मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर विचार करते हुए श्रीलंका पर स्वतंत्र  फैसला कर सकता है, भारत सरकार की कमजोरी ही प्रदर्शित करता है। दरअसल, केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस को हाल के विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और अमेरिका समर्थित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के लिये तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर केंद्रीय सरकार पर दबाव बनाया। अबेयवर्दना के इस विश्वास पर कि भारत बाद में भी श्रीलंका को आवश्यकता पड़ने पर सहायता करेगा, खरा उतरेगा ही।

शनिवार, 24 मार्च 2012

स्वैच्छिक समलैंगिकता अब अपराध नहीं

  शीतांशु कुमार सहाय
दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में केंद्रीय सरकार के विभिन्न हलफनामों पर विचार के बाद न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी तथा न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि केंद्र ने मामले को काफी हल्के में लिया है जिसकी निंदा किये जाने की जरूरत है। केंद्रीय सरकार ने समलैंगिक मामले पर उच्चतम न्यायालय में अपना रूख स्पष्ट करते हुए 21 मार्च 2012 को कहा कि इस मामले को अपराध के दायरे से बाहर रखने में कोई त्रुटि नहीं है। 
अब अपने देश में पुरुष का पुरुष के साथ और लड़की का लड़की के साथ का शारीरिक सम्बन्ध बनाना अपराध नहीं कहलाएगा। 21 मार्च 2012 को सर्वोच्च न्यायालय में भारत सरकार ने अपनी सफाई में ऐसा ही कहा। सरकार ने वैज्ञानिक-अध्यात्म पर आधारित समृद्ध भारतीय परम्परा को दरकिनार करते हुए समलैंगिकता को मौलिक अधिकार बता दिया।
उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने के अहम मुद्दे पर ढीला रूख अख्तियार करने को लेकर 20 मार्च 2012 को केंद्र सरकार की खिंचाई की थी। इस बात पर भी न्यायाधीशों ने चिंता जताई है कि इतने अहम मुद्दों पर संसद चर्चा नहीं करती और न्यायपालिका पर सीमा लांघने का आरोप लगाती है। दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में सरकार के विभिन्न हलफनामों पर विचार के बाद न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी तथा न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि केंद्र ने मामले को काफी हल्के में लिया है जिसकी निंदा किये जाने की जरूरत है। पीठ ने कहा कि भारत सरकार ने इस मामले को काफी हल्के में लिया है। केंद्र सरकार के इस बर्ताव की निंदा किये जाने की जरूरत जताई है न्यायमूर्तियों ने। जनहित के मुद्दे पर संसद की उदासीनता के बावत सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि पिछले 60 सालों के दौरान संसद ने इतने अहम मुद्दे पर चर्चा नहीं की। जब ऐसे मामलों पर न्यायालय निर्णय लेता है तो न्यायपालिका की ओर से सीमा लांघने की शिकायत करने लगते हैं सांसद।
बड़े अफसोस के साथ सर्वोच्च न्यायपालिका यानी सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च विधायिका से पूछा, ‘‘सर्वोच्च विधायिका के पास ऐसे मुद्दों के लिए वक्त नहीं है। इन मुद्दों पर विचार करने के लिये विधायिका (संसद) को वक्त मिले, इसके लिये इस देश के लोग कब तक इंतजार करेंगे?’’ अपनी टिप्पणी में पीठ ने यह भी कहा कि विधि आयोग ने भी आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने की सिफारिश कर दी थी जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध को अपराध माना गया है और इसकी सजा के तौर पर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है।
दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय को यह टिप्पणी तब करनी पड़ी जब जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल ने वरिष्ठ वकील अशोक देसाई के जरिये अपनी बात रखी कि विभिन्न कानूनों में सरकार संशोधन करती रही है लेकिन सरकार इसका फैसला न्यायालय पर छोड़ देती है। बेनेगल समलैंगिक यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से हटाने के पक्षधर हैं। बेनेगल ने कहा कि सरकार लंबे समय से कानूनों में संशोधन करने में नाकाम रही है।
औद्योगिक विवाद कानून में पिछले 40 साल से संशोधन नहीं किया गया है और इस अधिनियम में ‘उद्योग’ शब्द अर्थहीन हो गया है। सरकार सोचती है कि न्यायालय ही इनपर फैसला ले। इसके बाद पीठ ने कहा, ‘‘जब भी न्यायालय कुछ करता है तो वे यह भी कहते हैं कि यह न्यायिक सीमा लांघना है।’’ इससे पहले न्यायालय ने कहा कि यह खास मामला है जिसमें सरकार ने उच्च न्यायालय में मामला लड़ने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उदासीन रूख अपनाया है।
पीठ ने कहा, हमें नहीं पता कि वे कितने मामले में उदासीन हैं। यह खास मामला है जहां केंद्र उच्च न्यायालय में बहस के बाद अब उदासीन रूख अपना रहा है। सरकार मामले में तटस्थ रूख के साथ आई है। किसे स्वीकार किया जाना चाहिए, उच्च न्यायालय में जो हलफनामा दायर किया गया था उसे या शीर्ष अदालत में उदासीन रूख को?
इस बात पर भी न्यायालय की ओर से चिंता जताई गई कि विधि आयोग की सिफारिश के बावजूद पिछले 60 साल में संसद ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में संशोधन पर विचार नहीं किया है। न्यायालय ने कहा कि विधायिका के पास इन मुद्दों पर विचार के लिये समय नहीं तो आखिर आम जनता कबतक इंतजार करेगी? शीर्ष अदालत समलैंगिक अधिकार विरोधी कार्यकर्ताओं और राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जो दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध कर रहे हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और व्यवस्था दी थी कि एकांत में दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाया गया शारीरिक संबंध अपराध नहीं है। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना गया है जिसमें उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है। वरिष्ठ भाजपा नेता बीपी सिंघल ने उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहकर सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी थी कि इस तरह की गतिविधियां अवैध, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के मूल्यों के खिलाफ हैं। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और एपोस्टोलिक चर्चेज जैसे धार्मिक संगठनों ने भी फैसले को चुनौती दी थी।
योगगुरु बाबा रामदेव, ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल, दिल्ली बाल संरक्षण आयोग और तमिलनाडु मुस्लिम मुन्नेत्र कड़गम ने भी उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया था। केंद्र ने पूर्व में शीर्ष अदालत को सूचित किया था कि समलैंगिकों की संख्या करीब 25 लाख है और इनमें से सात प्रतिशत (1.75 लाख) एचआईवी से ग्रस्त हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा था कि वह अत्यधिक जोखिम वाले चार लाख लोगों, ‘पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों’(एमएसएम) को अपने एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के दायरे में लाने की योजना बना रहा है और यह पहले ही करीब दो   लाख लोगों को इसके दायरे में ला चुका है। एचआईवी ग्रस्त लोगों के कल्याण एवं पुनर्वास के लिये काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘नाज’ फाउंडेशन ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और कानून को उस समय हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब मामला आपसी सहमति वाले वयस्कों से जुड़ा हो। यह उन्हें समाज में अलग-थलग करने के बराबर है। वे अपनी यौन अभिव्यक्ति का खुलासा करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि समाज में इसे अपराध बना दिया गया है। इसके अतिरिक्त परिवार का कोई व्यक्ति यदि यौन अपराध करता है तो इस व्यभिचार को अपराध नहीं माना गया है।
केंद्र सरकार ने समलैंगिक मामले पर उच्चतम न्यायालय में अपना रूख स्पष्ट करते हुए 21 मार्च 2012  को कहा कि इस मामले को अपराध के दायरे से बाहर रखने में कोई त्रुटि नहीं है। महान्यायवादी जीई वाहनवती ने न्यायालय से कहा कि समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला उन्हें स्वीकार्य है। केंद्र ने न्यायालय से कहा कि आम सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध मानना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

मंगलवार, 20 मार्च 2012

मुलायम को संभालनी चाहिये तीसरे मोर्चे का कमान

शीतांशु कुमार सहाय
  मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर तीसरे मोर्चे के तिकड़म के लिये अपने को स्वतंत्र रखा है। यही कारण है कि मुलायम के इर्द-गिर्द तीसरे मोर्चे का कठोर आवरण आरंभिक रूप को प्राप्त करता जा रहा है। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चे के नीचे आने को तैयार बैठे हैं।
पांच राज्यों में सम्पन्न विधानसभा चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में तीसरे मोर्चे की आहट सुनाई देने लगी है। मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर तीसरे मोर्चे के तिकड़म के लिये अपने को स्वतंत्र रखा है। यही कारण है कि मुलायम के इर्द-गिर्द तीसरे मोर्चे का कठोर आवरण आरंभिक रूप को प्राप्त करता जा रहा है। राजनीतिक परिक्रमण तेजी से जारी है और इसके केंद्र में नजर आ रहे हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पिता। मुलायमसिंह यदि समय के बदलाव की आहट को सुन पा रहे हैं तो उन्हें तीसरे मोर्चे की घुरी की कमान संभाल लेनी चाहिए।
वास्तव में उत्तर प्रदेश के जनादेश ने केंद्रीय राजनीति में भूचाल ला दिया है। इस राजनीतिक भूचाल में कांग्रेस और भाजपा दोनों की नीतियां हिचकोले खा रही हैं। वैसे कांग्रेस की आर्थिक उदारवाद की महंगाई बढ़ाऊ नीतियों से जनता तो पहले से ही खफा है, अब उद्योगपतियों की नजर में भी केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां हाशिये पर हैं। इन नीतियों को पांच राज्यों में जनता ने नकारते हुए अपना जनादेश दिया।
यह जनादेश जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर है। साथ ही इसने कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता और भाजपा की धार्मिक कट्टरता को भी आईना दिखाया है। भ्रष्ट आचरण के साथ मायावती जिस सामाजिक यांत्रिकी के बूते बसपा को अखिल भारतीय आधार देना चाहती थीं, उसके आकार को लघु करके मतदाता ने स्पष्ट संकेत दिया है कि राजनीतिक प्रवृत्तियों में अतिवाद अब जनता बर्दाश्त नहीं करेगी। जनता या यों कहें कि मतदाताओं की यह जागरूकता भारतीय लोकतंत्र को पुख्ता व परिपक्व बनाने वाली है। परिणामों के तत्काल बाद तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव की जरुरत बताकर केंद्रीय सरकार को डगमगा दिया।
नतीजों ने केंद्र में अनिश्चय के अंधकार को गहरा दिया है। कांग्रेस और भाजपा की नीतियां लगभग एक जैसी हैं। दोनों की वर्तमान असलियत को सबने चुनावी माहौल में देख लिया। यों अबतक  आतंकवादी निरोधी खुफिया केंद्र (एनसीटीसी) का विरोध कर रही भाजपा ने इसे 19 मार्च को लोकसभा व 20 मार्च को राज्यसभा में पारित होने दिया जबकि राज्यसभा में विपक्ष बहुमत में है। राज्यसभा में 20 मार्च को आतंकवादी निरोधी खुफिया केंद्र (एनसीटीसी) पर भारतीय जनता पार्टी का संशोधन प्रस्ताव गिर गया। प्रस्ताव के पक्ष में 77 मत पड़े जबकि विरोध में 99 मत पड़े। 
बात बसपा की करें तो पूरे पांच सालों तक काम करने का सुनहरा मौका मिलने के बावजूद बसपा ने दबंगों को लुभाने के लिये उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में आने वाले 22 प्रकार के अपराधों को संज्ञान में लेने वाले मामलों को हत्या और बलात्कार तक ही सीमित कर दिया था। उत्तरप्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला भी सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से जारी था। चिकित्सा और तकनीकी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले दलित छात्रों का जातीय और अंग्रेजी में दक्ष न होने के आधार पर इस हद तक उत्पीड़न जारी रहा कि अबतक 18 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में यदि कहा जा रहा है कि मायावती का दलित वोट बैंक भी खिसका है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं।
जनता के बुनियादी हितों और घोषणा-पत्र में किये वायदों से आंख चुराने के कारण ही मतदाता ने कांग्रेस, भाजपा और बसपा से मोहभंग होने की तसदीक कर दी। वैसे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद मायावती दलित हितों की रक्षा व सर्वजन के नारे के बूते दिल्ली की गद्दी हथियाने की दौड़ में लग गई थीं। मायावती का यह स्वप्न तो चकनाचूर हुआ ही, बहुजन समाज पार्टी को अखिल भारतीय आधार देने के मंसूबे भी धराशायी हो गए।
भाजपा को यदि गोवा, उत्तराखण्ड और पंजाब में नाक बचाने की खातिर बढ़त मिल भी गई तो वह उसके राष्टÑीय वजूद रखने वाले नेताओं की बजाए क्षेत्रीय नेताओं और स्थानीय मुद्दों के कारण मिली है। उत्तर प्रदेश में बाबूसिंह कुशवाहा को शरण देकर भाजपा ने भी मनमोहन सिंह और मायावती की राह पकड़ ली। मणिपुर जरूर इस दृष्टि से अपवाद रहा कि वहां स्थानीय मुद्दे निष्प्रभावी रहे। यह राज्य पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से उग्रवाद व अलगाववाद की चपेट में है। राज्य की भौगोलिक अखण्डता को क्षेत्रीय मुद्दे व आंदोलन चुनौती साबित हो रहे हैं। विशेष सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग को लेकर इस्पाती महिला इरोम शर्मिला पिछले 11 सालों से लगातार अनशन जारी रखी हुई हैं। उनकी इस मांग को व्यापक जनसमर्थन भी हासिल है। बावजूद इसके कोई करिश्मा  नहीं हुआ, यह अचरज में डालने वाला सवाल है। मणिपुर में कुकी बहुल क्षेत्र को नया जिला बनाने की मांग भी पिछले दिनों इतनी जबर्दस्त थी कि कुकी और नगा संगठनों ने इस पूरे पर्वतीय राज्य में मजबूत नाकेबंदी कर दी थी। इन परिस्थितियों के बाद भी कांग्रेस की मणिपुर में लगातार तीसरी बार जीत यह दर्शाती है कि व्यापक जनाधार वहां कांग्रेस का ही है। ऐसी ही स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और सिकिकम में है।
दरअसल, पांच राज्यों के करीब 14 करोड़ मतदाताओं ने 690 विधानसभा सीटों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करके जो निर्णय दिया है, उससे यही स्वर निकल रहा है कि राष्टÑीय दलों का हृदयविदारक क्षरण हो रहा है। जो कांग्रेस राहुल गांधी बनाम देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर उत्तरप्रदेश में करो या मरो की स्थिति में थी, वह मुंह   छिपाने की शर्मनाक हालत में है। उसके सांप्रदायिक हथकण्डों व निर्लज्ज चाटुकारिता को जनता ने नकार दिया है।
उत्तर प्रदेश में विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ी व दलित जातियों में जो राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जगी थीं, उनका अभी लोप नहीं हुआ है। राष्टÑीय दलों के वंशवादी अहंकार को वे अभी भी कठिन चुनौती साबित हो रही हैं। नतीजतन राज्य-व्यवस्था ज्यादा-से-ज्यादा संघीय स्वरूप ग्रहण करने को व्याकुल है। इस परिप्रेक्ष्य में जहां नीतीश कुमार, ममता बनर्जी व जयललिता की तरह पंजाब में भी प्रकाश सिंह बादल को अपेक्षाकृत ज्यादा स्वायत्तता हासिल हो गई है। वे इस स्वतंत्र शासन में अपने राजनीतिक एजेंडे या घोषणा पत्र में शामिल वायदों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकते हैं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को तो मतदाता ने पूर्ण बहुमत देकर ही विधानसभा में भेजा है।
संप्रग गठबंधन में भागीदार तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव का जो संकेत ठीक चुनाव परिणामों के बाद दिया, वह निराधार नहीं है। क्षेत्रीय दलों की यह अपेक्षा बढ़ी है कि राष्टÑीय राजनीति में मुलायम सिंह महत्त्वपूर्ण भूमिका में अवतरित हों। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चे के नीचे आने को तैयार बैठे हैं। लालू थोड़ा ना-नुकुर कर रहे हैं। इस संभावित तीसरे मोर्चे की पहली परीक्षा इसी साल जुलाई में होने वाले राष्टÑपति चुनाव में होने वाली है। यदि  क्षेत्रीय दल ऐन-केन-प्रकारेण अपना राष्टÑपति देश को देने में कामयाब हो जाते हैं तो इस मोर्चे के अस्तित्व की मान्यता तो प्रमाणित होगी ही, नए लोकसभा चुनाव पूर्व तीसरे मोर्चे का माहौल भी गर्माने लगेगा। तीसरे मोर्चे की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब यह तिकड़मी जातीय तिलिस्म व छद्म धर्मनिरपेक्षता के जंजाल में लिप्त दिखाई न दे। स्पष्ट विचारधारा व जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर वह जनता के बीच हाजिर हो।