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मंगलवार, 27 मार्च 2012

भारत का श्रीलंका की खिलाफत के मायने

  मुंबई में आतंकी हमले के बाद से लगातार पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल रवैया, मालदीव मुद्दे पर ख़ामोशी और अब श्रीलंका के विरुद्ध अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन- ये तीन गंभीर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मसले हैं जो वर्तमान केंद्रीय सरकार की लचर विदेश नीति के प्रमाण हैं। 
  शीतांशु कुमार सहाय
संयुक्तराष्ट मानवाधिकार परिषद यानी यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ 22 मार्च को लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में भारत सहित 23 अन्य देशों ने मतदान किया। बात अन्य देशों का नहीं, बल्कि भारत का है। भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर श्रीलंका की खिलाफत आसानी से गले नहीं उतरती। वैसे भी लिबरेशन टाइगर्स आफ तमिल ईलम (लिट्टे) के खात्मे के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा दिये गए सैन्य सहयोग के कारण श्रीलंकाई तमिल  अबतक भारतीय पक्ष में नहीं बोलते हैं। संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव पर पक्ष में 24 मत और खिलाफ में 15 मत पड़े जबकि मतदान से आठ देश अनुपस्थित रहे। चीन और रूस ने प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान किया। प्रस्ताव में कोलम्बो से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के कथित उल्लंघन से निपटने का आह्वान किया गया है। ज्ञात हो कि श्रीलंकाई सेना ने 26 वर्षों के गृहयुद्ध को समाप्त करते हुए मई 2009 में लिट्टे का सफाया कर दिया। युद्ध के अंतिम चरण में हजारों नागरिक मारे गए। प्रस्ताव में श्रीलंका से तमिल टाइगर्स के खिलाफ युद्ध के अंतिम चरण में हुए कथित मानवाधिकारों के हनन की जांच कराने का अनुरोध किया गया है। श्रीलंका से पूछा गया है कि मानवाधिकारों के कथित हनन से वह कैसे निपटेगा और युद्ध पर आंतरिक जांच की अनुशंसाओं को कैसे लागू करेगा? उल्लेखनीय है कि चीन एवं रूस ने श्रीलंका का समर्थन और प्रस्ताव का विरोध किया। मुंबई में आतंकी हमले के बाद से लगातार पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल रवैया, मालदीव मुद्दे पर ख़ामोशी और अब श्रीलंका के विरुद्ध अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन- ये तीन गंभीर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मसले हैं जो वर्तमान केंद्रीय सरकार की लचर विदेश नीति के प्रमाण हैं। यहां यह जानने की बात है कि चीन ने श्रीलंका का समर्थन कर भारत से एक और हितैषी पड़ोसी को भारत का विरोधी बना दिया। यों तीन पड़ोसी भारत के विरोधी हो गए- चीन, पाकिस्तान और अब श्रीलंका। बांग्लादेश को भी सहयोगी नहीं ही मानना चाहिये। यों उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाओं के पड़ोसियों को केंद्रीय सरकार की गलत विदेश नीति ने शत्रु बना दिया। विविध स्वार्थों की पूर्ति को मज़बूरी का नाम देकर मनमोहन सरकार आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर हो रही अंधेरगर्दी से खुद का बचाव करती है। बार-बार देशहित की बलि चढ़ाने के बावजूद केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बनी हुई है। 2-जी घोटाले के पौने दो लाख करोड़ रुपए को काफी पीछे छोड़कर साढ़े दस लाख करोड़ रुपए का कोयला घोटाला सामने आ गया है। आतंकवाद चरम पर है, नक्सलवाद के दलदल से उबरने के बजाय धंसते ही जा रहे हैं हम, महंगाई आसमान पर है... फिर भी यह सरकार क्यों बची हुई है? कहाँ है विपक्ष ? क्यों नहीं भाजपा जैसे राष्ष्ट्रवादी दल ने श्रीलंका का समर्थन करने हेतु सरकार पर दबाव बनाया? क्यों नहीं देश की मीडिया ने श्रीलंका मसले पर राष्ष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए बहस किया? क्यों खामोश रहे हमारे बुद्धिजीवी ? बहरहाल, तिब्बत और नेपाल के बाद अब श्रीलंका के मसले पर हमारी कूटनीति की उदासीनता या नासमझी ने इन तीनों पड़ोसियों को चीन के करीब और भारत से दूर कर दिया है। यही क्रम जारी रहा तो ये भी पौराणिक-सांस्कृतिक संबंधों को भुलाकर हमारे खिलाफ चीन की शह पर उठ खड़े हो सकते हैं। इस संदर्भ में भारत ने आश्वासन दिया है कि वह श्रीलंका के साथ खड़ा रहेगा। यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ 22 मार्च 2012 को लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के बाद भारत ने कोलम्बो के साथ अपने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक रिश्तों का हवाला दे उसे साधने की कोशिश की। भारत ने कहा कि वह श्रीलंका के साथ हमेशा खड़ा करेगा। कोलम्बो के खिलाफ प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने वाले 23 अन्य देशों का साथ देने के बाद भारत ने श्रीलंका के साथ अपने मजबूत सम्बंधों का हवाला दिया। यह सच है कि भारत व श्रीलंका के बीच पौराणिक-सांस्कृतिक संबंध हैं, तो फिर लाचारी क्या थी मनमोहन सरकार की कि वह पड़ोसी के खिलाफ अमेरिका के पक्ष में मतदान को विवश हो गई? संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार परिषद में प्रस्ताव बहुमत से पारित होने के बाद श्रीलंका ने नाराजगी प्रकट की लेकिन इसके तुरंत बाद ही भारत सरकार की सफाई आई कि यह भारत, अमेरिका व श्रीलंका के सम्बंधों पर असर नहीं डालेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्ली में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पर भारत के मतदान को सही ठहराया। उन्होंने कहा कि अमेरिकी प्रस्ताव का भारतीय समर्थन सरकार के रूख पर आधारित है। समझ में अब आया कि मनमोहन सरकार का रूख आखिर देशहित में कितना है? उन्होंने श्रीलंका से तमिलों को न्याय देने की अपील भी की। प्रधानमंत्री ने कहा, "हमें भला-बुरा देखना पड़ता है... हमने अपने रूख के अनुसार प्रस्ताव पर मतदान किया है... हम श्रीलंका की सम्प्रुभता का उल्लंघन नहीं करना चाहते लेकिन हमारी चिंताओं का समाधान होना चाहिए, ताकि तमिलों को न्याय मिले और वे सम्मानित जीवन गुजार सकें।" यों श्रीलंका में उठी भारत विरोधी बयार के बीच भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी किया। बयान को हू-ब-हू आप भी जानिये, "एक ऐसे पड़ोसी देश जिसके साथ हजारों वर्षों के मैत्रीपूर्ण सम्बंध और आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रिश्ते हैं, हम उस देश के घटनाक्रमों से अछूते नहीं रह सकते।" विदेश मंत्रालय की बात समझ में आती है   कि भारत प्रस्ताव के व्यापक संदेश और उद्देश्यों से सहमत है परन्तु संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार परिषद की ओर से कोई भी सहायता श्रीलंका की सहमति से ही दी जा सकती है। मंत्रालय की बातों पर विश्वास करें तो यह विदित होता है कि भारत मानता है कि मानवाधिकारों के बढ़ावे और उनके संरक्षण की जिम्मेदारी सम्बंधित देश की होती है। प्रस्ताव में श्रीलंका से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के कथित उल्लंघन से निपटने का आह्वान किया गया है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके ने यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ लाए गए अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में भारत के मतदान का स्वागत किया है। डीएमके ने कहा कि तमिलों को उनके अधिकार सुनिश्चित कराना महत्त्वपूर्ण है। अब पूरी तरह समझ लीजिये कि राष्ट्रहित से ऊपर है डीएमके के सहयोग से चल रही केंद्र की कांग्रेसी सरकार को बचाना। श्रीलंका के विरोध में मतदान कर मनमोहन सरकार ने यही संदेश दिया है। हाल ही में कारावास से बाहर आर्इं डीएमके की सांसद कनिमोझी ने कहा है कि तमिलनाडु के सभी दल प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने के लिये सरकार से मांग कर रही थीं। कनिमोझी ने कहा, "भारत ने प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया, यह वास्तव में अच्छी बात है।" उन्होंने कहा कि श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय कानून का पालन किया जाना महत्त्वपूर्ण है। कनिमोझी के अनुसार, तमिलों को उनके अधिकार दिलाना और उनके पुनर्वास की बंदोबस्ती महत्त्वपूर्ण है।" इस बीच श्रीलंका ने भी कहा कि उसके खिलाफ प्रस्ताव लाए जाने के बावजूद भारत व अमेरिका के साथ उसकी मित्रता पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। श्रीलंका के कार्यवाहक सूचना मंत्री लक्ष्मण यापा अबेयवर्दना ने कहा है कि भारत की आंतरिक राजनीतिक स्थिति ने भारत को श्रीलंका के खिलाफ लाए गए अमेरिकी समर्थित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के लिये बाध्य किया है। मतलब यह कि मनमोहन सरकार की लाचारी अब अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय हो गया है। अबेयवर्दना ने माना है कि प्रस्ताव पर भारत ने जो फैसला किया है उससे नई दिल्ली के साथ कोलम्बो के सम्बंध प्रभावित नहीं होंगे। पर, उनका यह कहना कि भारत अपनी मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर विचार करते हुए श्रीलंका पर स्वतंत्र  फैसला कर सकता है, भारत सरकार की कमजोरी ही प्रदर्शित करता है। दरअसल, केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस को हाल के विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और अमेरिका समर्थित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के लिये तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर केंद्रीय सरकार पर दबाव बनाया। अबेयवर्दना के इस विश्वास पर कि भारत बाद में भी श्रीलंका को आवश्यकता पड़ने पर सहायता करेगा, खरा उतरेगा ही।

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