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शनिवार, 24 मार्च 2012

स्वैच्छिक समलैंगिकता अब अपराध नहीं

  शीतांशु कुमार सहाय
दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में केंद्रीय सरकार के विभिन्न हलफनामों पर विचार के बाद न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी तथा न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि केंद्र ने मामले को काफी हल्के में लिया है जिसकी निंदा किये जाने की जरूरत है। केंद्रीय सरकार ने समलैंगिक मामले पर उच्चतम न्यायालय में अपना रूख स्पष्ट करते हुए 21 मार्च 2012 को कहा कि इस मामले को अपराध के दायरे से बाहर रखने में कोई त्रुटि नहीं है। 
अब अपने देश में पुरुष का पुरुष के साथ और लड़की का लड़की के साथ का शारीरिक सम्बन्ध बनाना अपराध नहीं कहलाएगा। 21 मार्च 2012 को सर्वोच्च न्यायालय में भारत सरकार ने अपनी सफाई में ऐसा ही कहा। सरकार ने वैज्ञानिक-अध्यात्म पर आधारित समृद्ध भारतीय परम्परा को दरकिनार करते हुए समलैंगिकता को मौलिक अधिकार बता दिया।
उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने के अहम मुद्दे पर ढीला रूख अख्तियार करने को लेकर 20 मार्च 2012 को केंद्र सरकार की खिंचाई की थी। इस बात पर भी न्यायाधीशों ने चिंता जताई है कि इतने अहम मुद्दों पर संसद चर्चा नहीं करती और न्यायपालिका पर सीमा लांघने का आरोप लगाती है। दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में सरकार के विभिन्न हलफनामों पर विचार के बाद न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी तथा न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि केंद्र ने मामले को काफी हल्के में लिया है जिसकी निंदा किये जाने की जरूरत है। पीठ ने कहा कि भारत सरकार ने इस मामले को काफी हल्के में लिया है। केंद्र सरकार के इस बर्ताव की निंदा किये जाने की जरूरत जताई है न्यायमूर्तियों ने। जनहित के मुद्दे पर संसद की उदासीनता के बावत सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि पिछले 60 सालों के दौरान संसद ने इतने अहम मुद्दे पर चर्चा नहीं की। जब ऐसे मामलों पर न्यायालय निर्णय लेता है तो न्यायपालिका की ओर से सीमा लांघने की शिकायत करने लगते हैं सांसद।
बड़े अफसोस के साथ सर्वोच्च न्यायपालिका यानी सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च विधायिका से पूछा, ‘‘सर्वोच्च विधायिका के पास ऐसे मुद्दों के लिए वक्त नहीं है। इन मुद्दों पर विचार करने के लिये विधायिका (संसद) को वक्त मिले, इसके लिये इस देश के लोग कब तक इंतजार करेंगे?’’ अपनी टिप्पणी में पीठ ने यह भी कहा कि विधि आयोग ने भी आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने की सिफारिश कर दी थी जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध को अपराध माना गया है और इसकी सजा के तौर पर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है।
दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय को यह टिप्पणी तब करनी पड़ी जब जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल ने वरिष्ठ वकील अशोक देसाई के जरिये अपनी बात रखी कि विभिन्न कानूनों में सरकार संशोधन करती रही है लेकिन सरकार इसका फैसला न्यायालय पर छोड़ देती है। बेनेगल समलैंगिक यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से हटाने के पक्षधर हैं। बेनेगल ने कहा कि सरकार लंबे समय से कानूनों में संशोधन करने में नाकाम रही है।
औद्योगिक विवाद कानून में पिछले 40 साल से संशोधन नहीं किया गया है और इस अधिनियम में ‘उद्योग’ शब्द अर्थहीन हो गया है। सरकार सोचती है कि न्यायालय ही इनपर फैसला ले। इसके बाद पीठ ने कहा, ‘‘जब भी न्यायालय कुछ करता है तो वे यह भी कहते हैं कि यह न्यायिक सीमा लांघना है।’’ इससे पहले न्यायालय ने कहा कि यह खास मामला है जिसमें सरकार ने उच्च न्यायालय में मामला लड़ने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उदासीन रूख अपनाया है।
पीठ ने कहा, हमें नहीं पता कि वे कितने मामले में उदासीन हैं। यह खास मामला है जहां केंद्र उच्च न्यायालय में बहस के बाद अब उदासीन रूख अपना रहा है। सरकार मामले में तटस्थ रूख के साथ आई है। किसे स्वीकार किया जाना चाहिए, उच्च न्यायालय में जो हलफनामा दायर किया गया था उसे या शीर्ष अदालत में उदासीन रूख को?
इस बात पर भी न्यायालय की ओर से चिंता जताई गई कि विधि आयोग की सिफारिश के बावजूद पिछले 60 साल में संसद ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में संशोधन पर विचार नहीं किया है। न्यायालय ने कहा कि विधायिका के पास इन मुद्दों पर विचार के लिये समय नहीं तो आखिर आम जनता कबतक इंतजार करेगी? शीर्ष अदालत समलैंगिक अधिकार विरोधी कार्यकर्ताओं और राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जो दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध कर रहे हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और व्यवस्था दी थी कि एकांत में दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाया गया शारीरिक संबंध अपराध नहीं है। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना गया है जिसमें उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है। वरिष्ठ भाजपा नेता बीपी सिंघल ने उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहकर सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी थी कि इस तरह की गतिविधियां अवैध, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के मूल्यों के खिलाफ हैं। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और एपोस्टोलिक चर्चेज जैसे धार्मिक संगठनों ने भी फैसले को चुनौती दी थी।
योगगुरु बाबा रामदेव, ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल, दिल्ली बाल संरक्षण आयोग और तमिलनाडु मुस्लिम मुन्नेत्र कड़गम ने भी उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया था। केंद्र ने पूर्व में शीर्ष अदालत को सूचित किया था कि समलैंगिकों की संख्या करीब 25 लाख है और इनमें से सात प्रतिशत (1.75 लाख) एचआईवी से ग्रस्त हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा था कि वह अत्यधिक जोखिम वाले चार लाख लोगों, ‘पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों’(एमएसएम) को अपने एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के दायरे में लाने की योजना बना रहा है और यह पहले ही करीब दो   लाख लोगों को इसके दायरे में ला चुका है। एचआईवी ग्रस्त लोगों के कल्याण एवं पुनर्वास के लिये काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘नाज’ फाउंडेशन ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और कानून को उस समय हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब मामला आपसी सहमति वाले वयस्कों से जुड़ा हो। यह उन्हें समाज में अलग-थलग करने के बराबर है। वे अपनी यौन अभिव्यक्ति का खुलासा करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि समाज में इसे अपराध बना दिया गया है। इसके अतिरिक्त परिवार का कोई व्यक्ति यदि यौन अपराध करता है तो इस व्यभिचार को अपराध नहीं माना गया है।
केंद्र सरकार ने समलैंगिक मामले पर उच्चतम न्यायालय में अपना रूख स्पष्ट करते हुए 21 मार्च 2012  को कहा कि इस मामले को अपराध के दायरे से बाहर रखने में कोई त्रुटि नहीं है। महान्यायवादी जीई वाहनवती ने न्यायालय से कहा कि समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला उन्हें स्वीकार्य है। केंद्र ने न्यायालय से कहा कि आम सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध मानना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

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