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बुधवार, 9 जनवरी 2013

पनीर (चीज) और मांस से शुक्राणुओं पर असर

दुनिया के कई देश आबादी की दर में लगातार आ रही गिरावट से परेशान हैं. कुछ वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इसके पीछे चीज और मांस खाने की आदत भी जिम्मेदार हो सकती है.

चीज और मांस में मौजूद संतृप्त वसा इंसानों का वजन बढ़ाने के साथ ही उनमें शुक्राणुओं की कमी का भी कारण बनती है. डेनमार्क के रिसर्चरों ने काफी खोजबीन करने के बाद यह पता लगाया है.

अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लिनिकल न्यूट्रीशन में छपी इस रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि संतृप्त वसा खाने वाले डेनमार्क के युवाओं में शुक्राणुओं का गाढ़ापन 38 प्रतिशत कम होता है और साथ ही कम वसा खाने वालों की तुलना में उनके वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या भी करीब 41 प्रतिशत कम होती है. रिसर्च में शामिल प्रमुख वैज्ञानिक टीना जेन्सन ने कहा, "हम ये नहीं कह सकते कि यह आकस्मिक असर है लेकिन मझे लगता है कि दूसरे रिसर्च से भी पता चला है कि भोजन में संतृप्त वसा का संबंध दूसरी समस्याओं और शुक्राणुओं की संख्या से है."

यह पहला रिसर्च नहीं था जिसमें भोजन और जीवनशैली से जुड़ी दूसरे कारकों का शुक्राणुओं और उनकी संख्या पर असर का पता लगाने की कोशिश की गई. 2011 में ब्राजील के रिसर्चरों ने पता लगया था कि खाने में अन्न की मात्रा ज्यादा होने से शुक्राणुओं का गाढ़ापन और गतिशीलता बढ़ती है. इसके अलावा फलों का संबंध भी शुक्राणुओं में गति और तेजी के बढ़ने से है. ब्राजील में और इस तरह के दूसरे रिसर्चों में ऐसे आंकड़ों का विश्लेषण किया गया जो पिता बनने के लिए इलाज करा रहे पुरुषों से जुड़े थे. ऐसे में यह माना जाता है कि इन आंकड़ों का दायरा सीमित था और इन्हें सभी पुरुषों के लिए नहीं माना जा सकता.

जेन्सन और उनके सहयोगियों ने अपने रिसर्च के लिए डेनमार्क के 701 युवाओं का सर्वे किया जिनकी उम्र 20 साल के करीब थी. इसके अलावा उन्होंने सेना में 2008 से 2010 के बीच हुए चेकअप का भी ब्यौरा लिया. सर्वे में शामिल लोगों से पिछले तीन महीने में खाए भोजन के बारे में पूछकर उनके वीर्य का नमूना जमा किये गए. इसके बाद रिसर्चरों ने नतीजों को चार समूहों में बांट दिया. इन समूहों में देखा गया कि किस पुरुष को कितनी ऊर्जा संतृप्त वसा से मिली और फिर हरेक समूह के पुरुषों में पैदा हुए शुक्राणुओं के संख्या की तुलना की गई.

जिन पुरुषों ने अपनी ऊर्जा का 11.2 प्रतिशत से कम संतृप्त वसा से हासिल किया था उनके वीर्य में शुक्राणुओं का गाढ़ापन 5 करोड़ प्रति मिलीलीटर था और कुल शुक्राणुओं की संख्या करीब 16.3 करोड़ थी. इसी तरह 15 प्रतिशत से ज्यादा संतृप्त वसा खाने वालों में यह आंकड़े 4.5 करोड़ प्रति मिलीलीटर और कुल शुक्राणुओं की संख्या 12.8 करोड़ थी.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1.5 करोड़ प्रति मिलीलीटर से ऊपर शुक्राणुओं संख्या को सामान्य माना जाता है. रिसर्च में शामिल लोगों में कम वसा खाने वाले 13 प्रतिशत और ज्यादा वसा खाने वालों में 18 प्रतिशत लोगों में शुक्राणुओं का स्तर सामान्य से कम था.

रिसर्च में यह पता नहीं चल सका कि क्या जीवनशैली से जुड़ी दूसरी चीजों का भी इससे कोई संबंध है. फिर भी जेन्सन और उनकी टीम की खोज कुछ हद तक यह जरूर बता सकती है कि दुनिया भर में शुक्राणुओं की संख्या क्यों कम हो रही है. पिछले साल फ्रांसीसी रिसर्चरों ने पता लगाया कि फ्रांस में औसतन 35 साल के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 1989 के 7.4 करोड़ प्रति मिलीलीटर से घट कर 2005 में 5 करोड़ प्रति मिलीलीटर तक पहुंच गई है. जेन्सन का कहना है, "मेरे ख्याल से मोटापा एक वजह है लेकिन यह (संतृप्त वसा) भी एक संभावित व्याख्या हो सकती है."

जेन्सन का कहना है कि अब अगला कदम यह पता लगाना होगा कि संतृप्त वसा शुक्राणुओं की संख्या पर कैसे असर डालती है और साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या इसे कम करने से पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाई जा सकती है.(dw.de/ सौजन्य- डॉयचे वेले, जर्मन रेडियो)

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