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शनिवार, 11 मई 2013

त्याग पत्र के बाद कार्रवाई होगी बंसल व अश्विनी पर?



अपने देश में एक अजीब सिलसिला जारी है। जैसे-तैसे विधायक या सांसद बनो और करोड़ों-अरबों का घोटाला करो। यदि विपक्षियों द्वारा या किसी अन्य माध्यम से हो-हल्ला हुआ तो पद से त्याग पत्र देकर जनता की मोटी रकम को डगार लो। हाल के वर्षों में इस प्रकरण की इतनी पुनरावृत्ति हुई कि अब यह भारतीय लोकतंत्र की एक परम्परा बन गई है। इस परम्परा का निर्वहन कर विपक्षी दलों के नेता भी आरोपों के घेरे में आए मंत्रियों के त्याग पत्र ही माँगते हैं, उन पर कार्रवाई की बात नहीं करते हैं।
क्या महज त्याग पत्र देने से आरोप धुल जाते हैं? पद छोड़ने मात्र से ही आरोपित पवित्र तो नहीं हो जाता! क्या पद त्यागने वालों पर कानून का डण्डा नहीं चलना चाहिये? क्या इस्तीफा देने वालों से घपले की राशि नहीं वसूली जानी चाहिए? ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं मगर विपक्षियों की माँग में ये प्रश्न शामिल न होना एक गंभीर सच्चाई को उजागर करता है। वह सच्चाई है कि यदि कल विपक्षियों के हाथ में सत्ता आ गई और उनके सहयोगी घपलेबाज निकले तो वह भी उनका त्याग पत्र लेकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेंगे! यह परम्परा लोकतन्त्र के लिए अत्यन्त घातक है। इसी घातक परम्परा की एक बार फिर पुनरावृत्ति हुई शुक्रवार की रात को। पवन की रेल से टिकट कटी तो अश्विनी को कानून से बाहर किया गया। मतलब यह कि रेल मंत्री के पद से पवन कुमार बंसल और विधि (कानून) मंत्री की कुर्सी से अश्विनी कुमार का त्याग पत्र लिया गया।
यों एक तीर से दो निशाना साधा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने। पहली तो यह कि संसद में मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बंसल व अश्विनी सहित प्रधान मंत्री मनमोहन के त्याग पत्र की माँग के मद्देनजर सत्र को बाधित करती रही जो अब चुप रहेगी। दूसरी यह कि इन दोनों मंत्रियों के चलते काँग्रेस व सरकार की काफी छीछालेदर हो रही थी, उम्मीद है उस पर विराम लगेगा। पर,
इस बीच भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मनमोहन को आत्मावलोकन करने की नसीहत दी। उन्होंने कहा कि आत्मावलोकन करने पर प्रधान मंत्री को मात्र पद त्यागने का ही विकल्प सूझेगा। मतलब यह कि मनमोहन सिंह के पद त्यागने की माँग पर भाजपा अब भी अडिग है।
एक तरफ जहाँ काँग्रेसी खेमे में अश्विनी-बंसल से छुटकारा पाने पर राहत व कर्नाटक फतह पर खुशी महसूस की जा रही है, उसी तरह भाजपा खेमे में भी तीन में से दो के त्याग पत्र पर सफलता की खुशी छाई हैं। खुशी में तो तत्कालीन विधि मंत्री अश्विनी व तत्कालीन रेल मंत्री पवन भी थे। एक ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट बदलवा कर अपने पद का गुरूर दिखाया तो दूसरे ने भांजे के सहारे मोटी रिश्वत लेकर रेल में बहाली को अंजाम दिया। काँग्रेस और मनमोहन की सरकार ने ए. राजा की तरह इन दोनों की भी खूब तरफदारी की, बंसल के ‘मिस्टर क्लीन’ वाली छवि को भी उछाला। पर, सर्वोच्च न्यायालय व सीबीआई की चोट से दोनों को ‘घायल’ होना ही पड़ा।
इस दरम्यान केन्द्र सरकार राहत की साँस ले रही है। पर, यह राहत क्षणिक साबित हो सकती है। सरकार में एकमात्र ईमानदार छवि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की है। यह छवि ईमानदार जरूर है पर बेदाग नहीं। मूक मनमोहन को आगे कर वाचाल मंत्रियों में लूट की होड़ लगी है।
विकास में सरकार की जितनी ऊर्जा लग रही है उससे कई गुना अधिक ऊर्जा सरकार को बचाने में लगती जा रही है। इस कारण जहाँ महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, वहीं तन्त्र कमजोर व लाचार होता जा रहा है। तंत्र की तंत्रिकाओं में स्फूर्ति भरने का प्रयास नहीं किया जा रहा है।
ऐसे में देश एक भयानक अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। पर, इस नकारात्मक कल की चिंता सरकार को नहीं है। ‘सबकुछ’ चुप रहकर जारी है। घपला-घोटाला हो तो चुप। कोई सीमा प्रहरी का सिर काट ले तो चुप। कोई सीमा का अतिक्रमण कर ले तो चुप। तंग-परेशान जनता कराहती रहे तो चुप। संसद चले तो चुप, न चले तो भी चुप। मंत्री गड़बड़ी करे तो चुप, त्याग पत्र दे तब भी चुप। इस चुप्पी के बीच त्याग पत्र तो हो गया मगर फिर वही प्रश्न उभरता है कि क्या पद छोड़ने वालों पर कार्रवाई होगी?

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