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बुधवार, 8 मई 2013

कर्नाटक : भाजपा की चिन्ता, काँग्रेस की खुशी


   कर्नाटक में 224 में से 223 सीटों के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस को 121, भाजपा को 40, जनता दल (एस) को 40, कर्नाटक जनता पार्टी को 6 और अन्य 16 सीटों पर जीत मिली है।
 केन्द्र में सत्ता हथिया लेने का सुखद स्वप्न पाले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बुधवार के दिन जोरदार झटका लगा। यह झटका दिया काँग्रेस ने जिसने उसके हाथ से कर्नाटक की सत्ता छीन ली। भाजपा हारी भी तो बहुत बुरी तरह, सीटों की अर्द्धशतक भी पूरी नहीं कर सकी। सदन में वह मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं रह पाएगी। इस बीच भाजपा खेमे में मातम के बीच मंथन का दौर जारी है। दूसरी तरफ काँग्रेसी पक्ष फूला नहीं समा रहा। पार्टी इसे 2014 के लोकसभा निर्वाचन का सेमीफाइनल मानकर लगातार राहुल गाँधी के माथे जीत का सेहरा बांधे जा रही है। हालाँकि कर्नाटक में प्रचार करने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी सोनिया के साथ गए थे पर वे भी जीत का श्रेय राहुल को ही दे रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने इतना तो प्रदर्शित कर ही दिया कि राज्य में पार्टी को प्राप्त मतों में उनकी छवि का कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ा। मतलब साफ है कि विशेष अवसरों पर मूक रहने वाले मनमोहन ने मुँह खोलकर यह भी जता दिया कि काँग्रेस लोकसभा का निर्वाचन राहुल के नेतृत्व में ही लड़ेगी। कर्नाटक में पिछले एक-दो साल में कई नाटक हुए। राज्य में पहली बार कमल खिलाने वाले बीएस येदियुरप्पा को मुख्य मंत्री का पद त्यागने के साथ ही भाजपा से भी बाहर होना पड़ा। राज्य में सिंहासन के फाइनल में भाजपा की ऐसी करारी हार व काँग्रेस को बहुमत के साथ इतनी बेहतरीन जीत नसीब होगी, यह दोनों में से किसी को अनुमान नहीं था। वैसे कर्नाटक में मतदान से ऐन पहले देश में राजनीतिक भूचाल आया। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल व उनके परिवार वाले रिश्वत काण्ड में बुरी तरह फँस गए। इससे जहाँ काँग्रेस सहम गयी, वहीं भाजपा खुशफहमी में थी। पर, जनता ने तमाम कयासों को दरकिनार कर अपना निर्णय दिया।
    धर्मग्रन्थों में उल्लेख है कि मनुष्य स्वयं अपने दुःख का कारण बनता है। सनातन धर्म की बात करने वाली भाजपा धर्म की इस बात को भूल गई तो उसे मुँह की खानी पड़ी। अपनी हार की पटकथा को भाजपा ने लिखना तब शुरू किया जब उसने भ्रष्टाचार में लिप्त तत्कालीन मुख्य मंत्री येदियुरप्पा को पद से नहीं हटाया। जब काफी छीछालेदर हो गई तब येदियुरप्पा को पद व पार्टी से चलता किया गया। उनकी जगह जगदीश शेट्टार को मुख्य मंत्री की कुर्सी दी गई। भाजपा के तत्कालीन केन्द्रीय अध्यक्ष गडकरी का वह अदूरदर्शी फैसला था, खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। पार्टी से अलग होकर येदि ने कर्नाटक जनता पार्टी (कजपा) बनाई और विधान सभा की कुछ सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही। येदियुरप्पा के भाजपा से हटने के बाद उनके कद का कोई चेहरा पार्टी में नहीं रह गया। निर्वाचन के दौरान शेट्टार में कोई सम्मोहन नहीं दिखाई दिया जिससे मतों की बरसात होती। येदियुरप्पा के करिश्मे का अंदाज भाजपा के केन्द्रीय नेताओं को भले ही न था मगर राज्य में जमीन से जुड़े नेताओं को था। जब वे भ्रष्टाचार के कुछ मुकदमों में बरी कर दिये गए तब उमा भारती ने उन्हें दुबारा पार्टी में लेने की पुरजोर वकालत की पर वह इस मामले में अकेली पड़ गईं। ऐसी स्थिति में काँग्रेस को बहुत लाभ हुआ। एक के आन्तरिक कलह ने दूसरे की जीत को सुनिश्चित कर दिया। एक समय भाजपा नेता जनार्दन रेड्डी, करुणाकरण रेड्डी व सोमशेखर रेड्डी का कर्नाटक में अवैध खनन पर एकाधिकार था। इस मामले में जनार्दन हैदराबाद कारावास में बन्द हैं। इस प्रकरण का सीधा लाभ काँग्रेसी प्रत्याशियों को मिला। यों वेल्लारी काण्ड को भी काँग्रेस अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब रही।
    उत्तराखण्ड के बाद कर्नाटक की सत्ता भाजपा से काँग्रेस ने छीन ली। वास्तव में भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी काँग्रेस यदि जीत दर्ज करती है तो इसका मतलब है कि कुछ मायनों में यह भाजपा से आगे है। भाजपा नेता विपक्षियों की खामियों को जोरदार ढंग से जनता के बीच नहीं रख पाते। इस संदर्भ में द्रष्टव्य है कि काँग्रेस या अन्य विरोधियों से पस्त भाजपा काफी समय तक बचाने के बाद भी अन्ततः येदियुरप्पा पर कार्रवाई करने को विवश हुई थी। दूसरी तरफ अभी का संदर्भ देखिये कि वह लाख प्रयास के बाद भी रेल मंत्री पवन बंसल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह या विधि मंत्री अश्विनी कुमार के पद त्याग करवाने में सफल नहीं हो पा रही है। वास्तव में केन्द्र की काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार जितने घपले-घोटालों में फँसी है, उसे जनता के बीच ले जाने में भाजपा को कामयाबी नहीं मिल पा रही है। वरना सरकार सत्ता में नजर नहीं आती। जहाँ तक कर्नाटक फतह की बात है तो इसमें काँग्रेस को अपनी खूबी पर जनादेश नहीं मिला; बल्कि भाजपा की कलह-कमजोरी की बदौलत मिला। जीत में सोनिया-मनमोहन-राहुल की तिकड़ी के प्रचार का असर कम और भाजपा की खामियों का अधिक हाथ रहा। प्रचार में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का भी उचित उपयोग नहीं किया। 224 विधान सभा क्षेत्रों के बदले मात्र 37 क्षेत्रों में ही मोदी से प्रचार करवाया गया। फिलहाल जीतने वाली पार्टी ने अपने को सत्ता का हकदार बताया तो हारने वाली पार्टी समीक्षा करने की बात कह रही है। 

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