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रविवार, 28 जुलाई 2013

तेलंगाना के गठन से घटेंगी नहीं, बढ़ेंगी समस्याएँ


शीतांशु कुमार सहाय
 छोटे राज्यों के गठन से समस्याएँ बढ़ती हैं या घटती हैं? तेलंगाना प्रकरण के बहाने यह टटोलने का अवसर एक बार फिर से आया है। आखिर राज्यों को भौगोलिक रूप से नन्हा बनाने का कारण क्या हो सकता है? इस पर समर्थक राजनीतिज्ञों का एकमात्र कथन यही है कि इससे विकास अधिक होगा। जनसमस्याओं के निराकरण तेजी से होंगे। छोटा राज्य होने से विधि-व्यवस्था की कठिनाइयाँ उत्पन्न नहीं होंगी। जनता के प्रति जनप्रतिनिधि अपेक्षाकृत अधिक उत्तरदायी हो पाएंगे। इन तर्कांे के अलावा भी ढेर सारे तर्क समर्थन में दिये जाते हैं। किसी बड़े राज्य के विखण्डन के समय भोली-भाली जनता को अपने पक्ष में करने के लिए संभावित नये राज्य का नाम लेकर यह प्रचारित किया जाता है कि अब उसका कायापलट हो जाएगा, विकास की रफ्तार बुलेट ट्रेन को मात दे देगी। पर, सच्चाई की कसौटी पर जब ये तर्क सही नहीं ठहरते तब माहौल के मद्देनजर दूसरा तर्क खोज लेते हैं राजनीति के खिलाड़ी और लगातार चलता रहता है उनका पंचवर्षीय लोकतान्त्रिक-तानाशाह।

दरअसल, जब देश स्वतन्त्र हुआ तब प्रशासनिक सुदृढ़ता के लिए राज्यों का पुनर्गठन करना आवश्यक था। इसके लिए 22 दिसम्बर 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ जिसने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। वैसे राज्य पुनर्गठन आयोगों का इतिहास 110 वर्ष पुराना है। सबसे पहले सन् 1903 ईश्वी में तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार के गृह सचिव हर्बर्ट रिसले की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन समिति गठित की गयी थी। इस समिति ने भाषाई आधार पर बंगाल के विभाजन की सिफारिश की थी जिसके चलते 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था। इसके बाद 1911 में लार्ड हार्डिंग की अध्यक्षता में एक आयोग बना जिसने बंगाल विभाजन को खत्म करने का सुझाव दिया। 1918 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति की रपट आयी जिसने विधिवत् आयोग की तरह कार्य नहीं किया लेकिन प्रशासनिक सुधारों के बहाने छोटे राज्यों के गठन का सुझाव दिया था। उसने भाषाई व जातीय आधार पर राज्य गठन को नामंजूर कर दिया था। फिर करीब 10 वर्षों बाद मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी जिसे काँग्रेस का समर्थन था। उस समिति ने भाषा, जनेच्छा, जनसंख्या, भौगोलिक और वित्तीय स्थिति को राज्य के गठन का आधार माना। 1947 में स्वतन्त्रता मिलते ही भारत के सामने 562 देसी रियासतों के एकीकरण व पुनर्गठन की समस्या थी। इसे ध्यान में रखते हुए उसी वर्ष पहले एसके दर आयोग का गठन किया गया फिर जेवीपी (जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, पट्टाभिसीतारमैया) आयोग का गठन किया गया। दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था। उसका मुख्य जोर प्रशासनिक सुविधाओं को आधार बनाने पर था। हालाँकि तत्कालीन जनाकांक्षाओं को देखते हुए तत्काल जेवीपी आयोग बना जिसने प्रभावित जनता की आपसी सहमति, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवहार्यता पर जोर देते हुए भाषाई राज्यों के गठन का सुझाव दिया। पर, सरकार में आने पर जवाहर लाल के सुर बदल गये और वे भाषाई आधार पर राज्य गठन का विरोध करने लगे। सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास से आंध्र प्रदेश को अलग किये जाने की माँग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद मौत हो गयी पर अपने हठ पर जवाहर लाल डटे रहे। तब संयुक्त मद्रास में साम्यवादी दलों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया था। अब आंध्र प्रदेश से ही पृथक तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया बतौर काँग्रेस अन्तिम चरण में है।

तेलंगाना के गठन के बाबत भी वही पुरानी बात दुहराई जा रही है कि अब विकास तीव्र होगा। पर, हश्र सामने है कि असम को विभाजित कर छोटे-छोटे राज्य बने मगर विकास कम और हªास अधिक हुआ। पूर्वोत्तर के तमाम राज्य अब भी विकास में पिछड़े हैं और विधि-व्यवस्था इतनी लचर है कि वहाँ आतंकवाद और बांग्ला देशी घुसपैठ की समस्या चरम पर है। पहले अवतरण में वर्णित तर्कों के आधार पर ही सन् 2000 के नवम्बर में भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और बिहार से पृथक झारखण्ड राज्य बनाया। केन्द्र में काँग्रेस की सरकार बनने के बाद उसने उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया जिस पर करोड़ों रुपये बेकार ही खर्च हुए। इस विखण्डन का नतीजा सामने है कि कुछ पूर्व मुख्य मंत्रियों और मंत्रियों की सुविधाभोगी संख्या अवश्य बढ़ी मगर विकास की रफ्तार जापान की बुलेट ट्रेन को नहीं ही पछाड़ पायी, अलबत्ता भारतीय रेल की सवारी गाड़ी की गति को भी छू नहीं सकी। .... तो फिर बनने दीजिए तेलंगाना को भी और रहिए तैयार उसका परिणाम देखने के लिए!

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