शीतांशु कुमार सहाय
याद होगा सुधी पाठकों को कि कुछ दिनों पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा था कि राजनीतिक दल भी सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आते हैं। लिहाजा उन्हें अपनी आय व व्यय के अलावा अन्य जानकारी माँगने पर उपलब्ध करवानी चाहिये। इतना सुनते ही काँग्रेस बौखला गयी। उसने अपने को सूचना का अधिकार कानून के बाहर रहने की घोषणा कर दी। काँग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने भी काँग्रेस का साथ दिया और कहा था कि ऐसा करने से कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न होंगी। इस संदर्भ में पक्ष व विपक्ष के सभी दलों के सुर एक हो गये, कट्टर विरोधी भारतीय जनता पार्टी भी इस मामले में काँग्रेसी पाले में नजर आयी। दलों की ऐसी ‘एकता’ का राज केवल यही है कि उनकी अवैध कमाई को जनता जान जाएगी, चन्दे की मोटी आय सार्वजनिक हो जाएगी। लोग यह भी जान जाएंगे कि चुनाव के दौरान किस कम्पनी ने भविष्य में ‘लाभ’ लेने के लिए और किस नेता ने चुनावी टिकट के एवज में कितनी मोटी राशि दल के कोष में जमा करायी है। वैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग यह कहता आ रहा है कि विभिन्न दलों द्वारा विधायक व सांसद का चुनावी टिकट मनमाने दाम पर बेचा जाता है। इसी बात को और पुष्ट किया है राज्य सभा के काँग्रेसी सांसद चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने। बकौल चौधरी राज्य सभा की सीटें 100 करोड़ रुपये में बिकती हैं। यह है भारतीय लोकतन्त्र का एक और सच, कड़वा सच जिसकी घँूट से जनता का हाजमा बिगड़ता है मगर नेताओं के गालों की लाली बढ़ती है।
चहुंओर से भ्रष्टाचार में घिरी काँग्रेस व उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार चौधरी वीरेन्द्र सिंह के बयान से और पसोपेश में पड़ गयी है। अभी केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल व योजना आयोग के बीच गरीबी वाला विवाद शान्त भी नहीं पड़ा कि उसे अपने बयान बहादुरों को चौधरी के बयान पर सफाई देने के लिए लगाना पड़ा है। बयान बहादुरों के बीच सफाई देने स्वयं चौधरी भी सामने आए और कहा कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया। पर, बयानों से पलटने वाले वरिष्ठ नेताओं को हमेशा अपने जमाने के प्रिण्ट मीडिया वाला ही जमाना याद रहता है जिस वक्त ‘तोड़-मरोड़कर छापा गया’ कहकर बयान से पलटना आसान था। पर, अब त्वरित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमाना है जिसमें कैमरा सच को ही दिखाता है। शायद कैमरे की इस सच्चाई को भूल जाते हैं बयानबाज नेता। पर, लोकतान्त्रिक शर्म को ताक पर रखकर निर्लज्जतापूर्वक कैमरे की सच्चाई को भी नकारने से बाज नहीं आते कथित वरिष्ठ नेता। ऐसा ही किया है हरियाणा के चर्चित काँग्रेसी नेता चौधरी वीरेन्द्र ने। वास्तव में उनके बयान को मीडिया ने बिना छेड़छाड़ किये ही छापा और दिखाया। उन्होंने समझाकर कहा कि राज्य सभा के एक सांसद ने उन्हें बताया कि उनके राज्य सभा में सांसद बनने का बजट 100 करोड़ रुपयों का था पर काम 80 करोड़ रुपये में ही हो गया और 20 करोड़ रुपये की ‘बचत’ हो गयी। चौधरी के शब्दों में और तल्खी आयी और उन्होंने अपने गृह राज्य हरियाणा के यमुना नगर में पत्रकारों को समझाया कि जो 100 करोड़ में सांसद की सीट खरीदेगा, क्या वह गरीबों का भला सोचेगा! अपनी पार्टी पर भी भड़ास निकालते हुए उनकी जुबान ने कहा कि प्रदेश काँग्रेस में वे पहले पायदान पर हैं पर पार्टी में पायदान से नहीं, ‘अन्य दानों’ से कुर्सी मिलती है। क्या इतने शब्दों को मीडिया ने गढ़ा? क्या कैमरे में रिकॉर्ड उनके शब्द गलत हैं? आखिर किस तकनीक से यह सम्भव हो सका कि उन्होंने कहा कुछ और कैमरे ने रिकॉर्ड किया कुछ और? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर न चौधरी दे सकते हैं, न उनकी पार्टी काँग्रेस और न ही पार्टी के बयान बहादुर। वैसे वे बंसल के बाद रेल मंत्री बनने वाले थे और राष्ट्रपति की चिट्ठी भी आ गयी थी, वे ‘गोल’ करने वाले ही थे कि ‘रेफरी’ ने सीटी बजा दी और पत्ता साफ हो गया। ऐसे में जज्बात की पटरी पर उनकी जुबान की रेल ऐसी चली कि पंजे वाली पार्टी का हलक सूख गया। पर, इस बार भी जरूर उसी रेफरी ने सीटी बजायी होगी तभी तो अपनी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर बयान से पलटना पड़ा। नहीं पलटते तो 100 करोड़ रुपये की सांसदी जाती। इस महंगाई में भी एक अरब रुपये का मोल तो है ही!
इस बीच भाजपा ने चुटकी लेते हुए इसे काँग्रेस की संस्कृति बतायी। सूचना का अधिकार के तहत न आने पर अड़ी और इस बाबत काँग्रेस के साथ दीखने वाली भाजपा चौधरी के बयान पर मिशन 2014 को ध्यान में रखकर ही काँग्रेस का विरोध कर रही है। इस संदर्भ में एक अन्य गंभीर प्रश्न उभरता है कि मनमोहन सरकार में मात्र सांसद बनने की लागत एक अरब रुपये है तो मंत्री बनने की कीमत क्या होगी?
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