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बुधवार, 18 सितंबर 2013

8वीं अनुसूची : बाट जोहती भाषाएँ



शीतांशु कुमार सहाय
    भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है हिन्दी। विश्व में 70 करोड़ लोग हिन्दी बोलते, लिखते व समझते हैं। पर, अफसोस की बात है कि इसे भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया है। यह देश की राजभाषा है यानी राजकाज की भाषा। वैसे क्षेत्रीयता की संतुष्टि के लिए संविधान में 8वीं अनुसूची की व्यवस्था की गयी है। अब तक इसमें हिन्दी सहित 22 क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल किया जा चुका है। साथ ही 38 भाषाएँ केन्द्र सरकार के पास विचाराधीन हैं, 8वीं अनुसूची में शामिल होने के लिए प्रतीक्षारत हैं। झारखण्ड की 5 भाषाएँ भी प्रतीक्षासूची में हैं। इन भाषाओं की प्रतीक्षा कब खत्म होगी, यह कहना मुश्किल है। इस सम्बन्ध में भारत सरकार को अन्तिम निर्णय लेना है। झारखण्ड की जिन 5 भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किये जाने के लिए केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव दिया गया है, उनमें हो, कुड़ुख, कुरमाली, मुंडारी एवं नागपुरी शामिल हैं। वैसे इस अनुसूची में शामिल होने से केवल एक ही फायदा है कि कुछ नौकरी की परीक्षाएँ उन भाषाओं में होंगी और सरकारी निर्णय को उन भाषाओं में अनुवादित किया जाएगा।
    यहाँ यह जानने की बात है कि 8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यताप्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाएँ हैं। आरम्भ में 14 भाषाएँ असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू थीं। बाद में सिंधी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को शामिल किया गया। तदुपरान्त बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली को शामिल कर इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गयीं। 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली व संथाली के बाद 38 अन्य भाषाएँ इसमें शामिल होने को प्रस्तावित हैं। इसके अनुसार केवल हिन्दी ही नहीं; बल्कि हिन्दी के अलावा 21 अन्य भाषाएँ भी राजभाषा ही हैं। तभी तो कई सांसद या विधायक 8वीं अनुसूची के गैर-हिन्दी भाषाओं में भी पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं। संविधान के अनुसार ऐसा करना गलत भी नहीं है। विदित हो कि संविधान का निर्माण अंग्रेजी में हुआ और अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरित करने वाले तत्कालीन भारतीय नेता भी अंग्रेजी के पक्षधर थे। तभी तो राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 द्वारा इस बात की व्यवस्था की गयी कि सरकार के काम-काज में सहभाषा के रूप में अंग्रेज़ी तब तक बनी रहेगी, जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सहमत न हो जाएँ। इसका मतलब यह हुआ कि भारत का एक भी राज्य चाहेगा कि अंग्रेज़ी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी। भाषाई गुलामी का प्रतीक राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 काँग्रेस की देन है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के प्रयास से यह पारित हुआ था।
    संविधान को पलटने पर ज्ञात होता है कि इसके अनुच्छेद 343(1) के अनुसार संघ की राजभाषा, देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को घोषित की गयी। पर, अनुच्छेद 343(2) के अनुसार 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी को मान्यता देने के चलते इसे भारतीय संविधान लागू होने की तिथि 26 जनवरी 1950 से लागू नहीं किया जा सका। फिर अनुच्छेद 343(3) द्वारा सरकार ने हिन्दी के विरुद्ध यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह 1950 से 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही-सही क़सर राजभाषा अधिनियम 1963 व राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 ने पूरी कर दी। इस अधिनियम ने तत्कालीन काँग्रेसी सरकार के उस उद्देश्य को साफ़ कर दिया कि अंग्रेज़ी की हुक़ूमत देश पर अनन्त काल तक बनी रहेगी। वैसे जान लें कि राजभाषा का दर्जा पाने के लिए अंगिका, बंजारा, बज्जीका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखण्डी, छत्तीसगढ़ी, घाटकी, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोन्दी, गुज्जर या गुज्जरी, कद्दाछी, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोड़वा, कोक बराक, कुमावणी (पहाड़ी), लेपचा, लिम्बू, मिजो, मगही, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, सम्बलपुरी या कोशाली, शाउरसेनी (प्राकृत), सिरायकी, टेनेडी एवं टुलु भाषाएँ प्रयासरत हैं।

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