शीतांशु कुमार सहाय
यह सच है कि धरती पर सभी उस महान शक्ति की अनुकम्पा से जीवित हैं जो इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं पड़ती। पर, सच यह भी है कि दृश्य शक्ति के रूप में माँ व पिता हैं जो हमें धरती पर लाने वाले कारक हैं। इन दोनों के अलावा अन्य वरिष्ठ परिजनों के भी योगदान होते हैं हमारे मानसिक-शारीरिक परिवर्द्धन व परिष्करण में। ये सभी सम्मिलित रूप से पितृ कहलाते हैं। केवल पिता या पुरुष-परिजन ही नहीं; बल्कि माता व स्त्री-परिजन भी पितृ की श्रेणी में आते हैं। इनमें से जो स्वर्गवासी हो गये हैं, उन्हें आदरपूर्वक स्मरण करने की शुभ अवधि है पितृपक्ष का जो आज से आरम्भ हो रहा है। वास्तव में पितृ-पूजन का ही एक रूप है पितृ-तर्पण। इसे कहीं से भी अवैज्ञानिक नहीं माना जा सकता। कई वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर भी आत्मा की प्रामाणिकता सिद्ध की जा चुकी है। मृत्यु के उपरान्त भौतिक शरीर नहीं रहता; आत्मा का अस्तित्व कायम रहता है। पितृ भी आत्मा के रूप में पितृपक्ष के दौरान अपने परवर्ती परिजनों से तर्पण प्राप्त करने के लिए अदृश्य रूप में उपस्थित होते हैं।
दरअसल, पितृपक्ष के दौरान केवल सनातनधर्मी ही पितृ-तर्पण करते हैं। पर, पितृ या पूर्वज की प्रसन्नता के उपाय प्रत्येक धर्म में किये जाने का विधान है। विश्व में अपने को सबसे विकसित मानने वाली बिरादरी ईसाई में ऑल सोल्स डे यानी सभी आत्माओं का दिन मनाने की परम्परा है। यों इस्लाम में भी मृतकों को सादर याद करने की परम्परा प्रचलित है। मनुष्य पर 3 प्रकार के ऋण प्रमुख माने गये हैं- पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वाेपरि है। चूँकि लालन-पालन माता-पिता के घर में, उनके सान्निध्य में होता है, अतः यह ऋण सबसे बड़ा है। पितृपक्ष की अवधि हमें इस ऋण से मुक्ति का उत्तम अवसर उपलब्ध कराता है। इस दौरान पितरों का श्राद्ध करना ही चाहिये। श्राद्ध का सीधा सम्बन्ध पितरों यानी दिवंगत परिजनों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता है। अर्थात् पितर किसी माह की प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों तो उनका श्राद्ध पितृपक्ष की प्रतिपदा के दिन ही होगा। पर, विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु होती है- दुर्घटना, विस्फोट, हत्या, आत्महत्या या विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन होता है। साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।
पितृपक्ष की अवधि आश्विन प्रथमा से आश्विन अमावस्या तक होती है। वैसे इसकी शुरूआत भाद्र पूर्णिमा से ही हो जाती है जिस दिन अगस्त्य ऋषि को जल का तर्पण दिया जाता है। इस दौरान श्रद्धा से पूर्वजों का श्राद्ध करने से सुख, शान्ति व स्वास्थ्य लाभ होता है, सम्यक् विकास होता है। वैसे सामान्य श्राद्ध तो घर पर ही किया जाता है मगर गया में श्राद्ध को सबसे उत्तम माना गया है। गया के अलावा भी भारत में श्राद्धकर्म करने हेतु कई उपयुक्त स्थल हैं। पश्चिम बंगाल में गंगासागर, महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि में श्राद्ध व दान का विशेष महत्त्व है। सूर्य की सहस्र किरणों में से अमा नाम की किरण प्रमुख है जिसके तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है। अमावस्या में चन्द्र निवास करते हैं। इस कारण धर्म कार्यों में अमावस्या को विशेष महत्त्व दिया जाता है। पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में सूर्यास्त तक घर के द्वार पर उपस्थित रहकर स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं।
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