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गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आश्चर्य किन्तु सच : राष्ट्रभाषा नहीं है हिन्दी


शीतांशु कुमार सहाय
    महात्मा गाँधी भारत के राष्ट्रपिता नहीं हैं और स्वाधीनता संग्राम के दौरान फाँसी पर झूलने वाले भगत सिंह शहीद नहीं हैं, जैसे कड़वे सच की पंक्ति थोड़ी और लम्बी हो गयी। इसमें शामिल हुआ नवीनतम सच भी प्रत्येक भारतीयों को नागवार गुजरेगा। वह कड़वा सच यह है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है ही नहीं जबकि अधिकांश लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानते हैं। देश की अधिकतर लोग हिन्दी समझते, बोलते व लिखते हैं। विश्व में चीनी के बाद हिन्दी ही दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दीभाषी हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि विश्व की सभी भाषाओं को हिन्दी में बिल्कुल उसी भाषा की वर्तनी व उच्चारण की शैली में लिखा जा सकता है। उत्तर व मध्य भारत में हिन्दी ही प्रधान भाषा है। देश के दक्षिणी राज्यों में भी हिन्दी बोली-समझी जाती है। फिर भी इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला। लखनऊ की सूचना अधिकार कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा को सूचना के अधिकार के तहत भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा मिली सूचना के अनुसार, भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 के तहत हिन्दी भारत की ‘राजभाषा’ यानी राजकाज की भाषा मात्र है। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख है ही नहीं।
    दरअसल, यह राज अब तक केन्द्र की सत्ता में रहने वाली सरकारों ने जनता से छिपाया। केन्द्रीय सत्ता पर सर्वाधिक अवधि तक रहने का मौका मिला है काँग्रेस को। देश की आजादी में अहम् योगदान निभाने का श्रेय लेने वाली काँग्रेस को महात्मा गाँधी, भगत सिंह व अब हिन्दी की बेइज्जती का भी श्रेय लेना ही पड़ेगा। महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता, भगत सिंह को शहीद व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में यदि संवैधानिक समस्याएँ हैं तो उन्हें दूर करने के लिए संविधान में संशोधन का भी प्रावधान तो है। सरकार को यह बताना चाहिये कि किस दबाव के कारण ऐसा नहीं किया जा रहा है? आखिर केन्द्र सरकार कैसे कार्य करती है कि उसके पास किये गये कार्यों के रिकॉर्ड ही नहीं रहते। घोटाले की जाँच हो रही हो तो संचिकाएँ गायब हो जाती हैं। कोयला घोटाले में ऐसा ही हुआ है।
    जहाँ तक रिकॉर्ड की बात है तो उर्वशी को विदेश मंत्रालय के निदेशक मनीष प्रभात ने 21 फरवरी को लिखे पत्र में बताया कि वर्ष 1947 से वित्तीय वर्ष 1983-84 तक विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जानकारी भारत सरकार के पास उपलब्ध ही नहीं है। निश्चय ही यह दुखद है। विदेश में हिन्दी प्रसार की जानकारी देने के लिए उर्वशी की सूचना की अर्जी प्रधानमंत्री कार्यालय से गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग, राजभाषा विभाग से विदेश मंत्रालय और विदेश मंत्रालय से वित्त मंत्रालय को स्थानांतरित की जा रही है। साथ ही राजभाषा विभाग से मानव संसाधन विकास मंत्रालय और अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय से केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, केंद्रीय हिंदी संस्थान मैसूर और केंद्रीय हिंदी निदेशालय नई दिल्ली के जन सूचना अधिकारियों के पास उर्वशी की अर्जी लंबित है।

    भारत सरकार द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, वित्तीय वर्ष 1984-85 से वित्तीय वर्ष 2012-2013 की अवधि में विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार द्वारा सबसे कम 5,62,000 रुपये वर्ष 1984-85 में, सर्वाधिक 68,54,800 रुपये वर्ष 2007-08 में, वर्ष 2012-13 में (अगस्त 2012 तक) 50,00,000 रुपये खर्च किये गये थे।
    हिन्दी के नाम पर वक्तव्य देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मानने वाली मनमोहन सिंह की सरकार के पास विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की 36 वर्षों की कोई जानकारी ही नहीं है। काँग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार 7 महीनों बाद भी देश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जानकारी नहीं दे पायी है। ...तो सरकारी कार्य-शैली व हिन्दी दोनों की जय बोलिये!

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