लाहौर से प्रकाशित 'द ट्रिब्युन' के बुधवार 25 मार्च 1931 ईश्वी के अंक का
प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित सुखदेव, राजगुरु तथा भगत सिंह के फाँसी का
समाचार।
-शीतांशु कुमार सहाय।
आज 23 मार्च है। आज ही के दिन सन् 1931 ईश्वी को शहीदे आजम भगत सिंह व उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी थी। देश की आजादी के लिए जीवन कुर्बान करने वालों के लिए देश के नेताओं के पास श्रद्धांजलि के लिए आज न समय मिला और न शब्द। आश्चर्य है कि लोकसभा निर्वाचन की गहमागहमी के दौरान विभिन्न दलों के छोटे-बड़े नेताओं ने देशभर में हजारों सभाएँ कीं मगर किसी को भी उन शहीदों की याद न आयी। दूसरी तरफ जिस गद्दार शोभा सिंह की गवाही पर इन देशभक्तों को मौत की सजा दी गयी, उसके बेटे खुशवन्त सिंह की तीन दिनों पूर्व 20 मार्च 2014 को मौत हुई तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े-छोटे नेताओं ने शोक में उसके प्रति कसीदे पढ़े। सबने खुशवन्त को महान बताया, उनके बाप को आधी दिल्ली का निर्माता बताया। पर, किसी ने इतिहास का वह सच नहीं बताया कि खुशवन्त का पिता ही वह सख्श था जिसके मुँह खोलने से भारत माँ के तीन सपूतों की जीवनलीला समाप्त हो गयी!
इस सन्दर्भ में मैं 20 मार्च 2014 को खुशवन्त पर जो लिखा था, उसे अपने मित्रों के लिए एक बार फिर से पेश कर रहा हूँ---
देशद्रोही के पुत्र खुशवन्त सिंह की मौत
20 मार्च 2014 ईश्वी तदनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष पंचमी विक्रम सम्वत् 2070 को खुशवन्त सिंह का 99 वर्षों की अवस्था में निधन हो गया। पूरे इण्टरनेट पर एक गद्दार के बेटे के मरने पर शोक से भरे समाचार भरे पड़े हैं। पर, जिन्होंने शोक के शब्द कहे या शोक के शब्द लाचारी में बोले या लिखित शोक-संदेश पढ़े, वे शायद इतिहास को नहीं जानते या इतिहास को जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसे तमाम लोगों को खुशवन्त की असलियत भी जाननी चाहिये। अंग्रेजी सरकार के पिट्ठू बन गए थे खुशवन्त के पिता। भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे भगत सिंह। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत के साथ लेता है। जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– ''भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गाँव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।''
भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ खुशवन्त के पिता ने दी थी गवाही---
जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकद्दमा चला तो भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने कुछ लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था खुशवन्त का पिता शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को पहले देश निकाला मिला फिर लाहौर में चले मुकद्दमें में उन्हें उनके दो साथियों समेत फाँसी की सजा मिली जिसमें अहम गवाह था शादी लाल।
खुशवन्त के पिता की गद्दारी के ऐतिहासिक दस्तावेज---
प्रेमचंद सहजवाला ने भगत सिंह के कई अनछुए पहलुओं पर एक अनोखी किताब लिख रखी है। किताब का नाम है, ‘भगत सिंह, इतिहास के कुछ और पन्ने‘। जिस दिन भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका था उस दिन के बारे में विस्तार से बताया गया है। किताब के मुताबिक शोभा सिंह ने न सिर्फ गवाही दी थी, बल्कि भगत सिंह को पकड़वाया भी था। किताब मे प्रमुख इतिहासकार ए जी नूरानी के हवाले से लिखा गया है--- ''शोभा सिंह, जो कि नई दिल्ली के निर्माण में प्रमुख ठेकेदार थे, अभी-अभी गैलरी में प्रविष्ट हुए थे। वे अपने चंद मित्रों के चेहरे खोज रहे थे जिनके साथ उन्हें बाद में भोजन करना था….. ठीक इसी क्षण धमाक-धमाक की आवाज से दोनों बम गिरे थे। सभी भागने लगे, लेकिन शोभा सिंह दोनों पर नजर रखने के लिए डटे रहे…. जैसे ही पुलिस वाले आए शोभा सिंह ने दो पुलिसकर्मियों को उनकी ओर भेजा और स्वयं भी उनके पीछे लपके… पुलिस जब नौजवानों के निकट पहुंची तब किसी भी अपराध बोध से मुक्त अपने किए पर गर्वान्वित दोनों वीरों ने खुद ही अपनी गिरफ़्तारी दी…।''
शोभा सिंह व शादी लाल को गद्दारी का इनाम---
दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। लेकिन शादी लाल को गाँव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था। इस नाते शोभा सिंह खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर पंजाब में कोट सुजान सिंह गांव और दिल्ली में सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी। शोभा सिंह को अंग्रेजों ने ‘सर’ की उपाधि दी थी। खुशवंत सिंह ने खुद भी लिखा है कि ब्रिटिश सरकार ने उनके पिता को न सिर्फ महत्वपूर्ण ठेके दिए बल्कि उनका नाम नॉर्थ ब्लॉक में लगे पत्थर पर भी खुदवाया था। इतना ही नहीं, खुशवंत सिंह के ससुर यानि शोभा सिंह के समधी पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (सीपीडब्ल्यूडी) का प्रमुख बनने का ‘अवसर’ प्राप्त हुआ था। कहते हैं ‘सर’ शोभा सिंह और उसके परिवार को दो रुपए प्रति वर्ग गज पर वह जमीन मिली थी जो कनॉट प्लेस के पास है और आज दस लाख रुपए वर्ग गज पर भी उपलब्ध नहीं है।
अपने को प्रतिष्ठित करते रहे खुशवन्त---
शोभा सिंह के बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था। खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की। खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की भी कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई। शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जुटे गद्दार को महिमामण्डित करने---
अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस नाम के चौराहे (जहां ली मेरीडियन, जनपथ और कनिष्क से शांग्रीला बने तीन पांच सितारा होटल हैं) का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए। हालाँकि अबतक ऐसा नहीं हो पाया है; क्योंकि इसका भारी विरोध भी हुआ। क्या मनमोहन सिंह को इतिहास की जानकारी नहीं कि वे देशभक्त के विरोध में अंग्रेजों के पक्ष में गवाही देने वाले को प्रतिष्ठित करने का लिखित आदेश दे दिया। आश्चर्य होता है ऐसी काँग्रेसी सरकार पर और उसके मुखिया पर! गृह मंत्रालय को हारकर प्रधानमंत्री की अपील और दिल्ली सरकार के प्रस्ताव को मानने से मना करना पड़ गया।
पिता के पक्ष से सफाई दी थी खुशवन्त ने---
जब खुशवन्त के पिता के नाम से दिल्ली में चौक का नाम नहीं पड़ा तो हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'विद मैलिस टूवार्ड्स वन एंड ऑल' में खुशवंत सिंह ने अपने पिता को ‘सच्चा इन्सान’ बताया। लेख का शीर्षक है- 'जब सच बोलना अपराध बन गया'। लेख कुछ इस प्रकार है--- ''कुछ वक्त पहले मैंने नई दिल्ली बनाने वालों पर लिखा था। उनमें पांच लोग खास थे। मेरी शिकायत थी कि उनमें से किसी के नाम पर दिल्ली में सड़क नहीं है। तब तक मुझे नहीं पता था कि मनमोहन सिंह ने शीला दीक्षित को इस सिलसिले में एक चिट्ठी लिखी है। उनकी गुजारिश थी कि विंडसर प्लेस को मेरे पिता शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए। उसके बाद एक किस्म का तूफान ही आ गया। कई लोगों ने विरोध जताया कि मेरे पिता तो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। मैंने उस पर कुछ भी नहीं कहा। जब कुछ अखबारों ने उनका नाम भगत सिंह की सजा से जोडा, तो मुझे तकलीफ हुई। सचमुच, उस खबर में कोई सच नहीं था। दरअसल, शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने इंस्पेक्टर सांडर्स और हेड कांस्टेबल चन्नन सिंह की हत्या की थी। वे इन दोनों से लाला लाजपत राय का बदला लेना चाहते थे। लाहौर में लालाजी की हत्या में उनका हाथ था। उसके बाद भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के आंदोलन को दुनिया की नजरों में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि संसद में हंगामा करेंगे। और फिर अपनी गिरफ्तारी दे देंगे। ठीक यही उन्होंने किया भी। ये लोग दर्शक दीर्घा में जा बैठे। वहीं मेरे पिता भी बैठे थे। संसद में बहस चल रही थी। और वह खासा उबाऊ थी। सो मेरे पिता ने अखबार निकाला और उसे पढ़ने लगे। अचानक पिस्टल चलने और बम के धमाके की आवाज सुनी। वहां बैठे बाकी लोग भाग लिए। रह गए मेरे पिता और दो क्रांतिकारी। जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। मेरे पिता का जुर्म यह था कि उन्होंने कोर्ट में दोनों की पहचान की थी। दरअसल, मेरे पिता ने सिर्फ सच कहा था। सच के सिवा कुछ नहीं। क्या सच कहना कोई जुर्म है? फिर भी मीडिया ने शहीदों की फांसी से उन्हें जोड़ दिया। सचमुच उनका क्रांतिकारियों की फांसी से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उछालना है, जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नहीं है।'' हालांकि खुशवंत सिंह ने यह तो कुबूल किया था कि उनके मरहूम पिता ने भगत सिंह की शिनाख्त की थी, लेकिन शायद यह छिपा गए थे कि उनके पिता इस हद तक अंग्रेजी सरकार के पिट्ठू बन गए थे कि सिपाहियों के मददगार बनकर क्रांतिवीरों की गिरफ्तारी का इनाम लेने में जुट गए थे।
खुशवन्त के चाचा सरदार उज्जल सिंह---
शोभा सिंह के छोटे भाई उज्जल सिंह, जो पहले से ही राजनीति में सक्रिय थे, को 1930-31 में लंदन में हुए प्रथम राउंड टेबल कांफ्रेंस और 1931 में ही हुए द्वितीय राउंड टेबल कांफ्रेंस में बतौर सिख प्रतिनिधि लंदन भी बुलाया गया। उज्जल सिंह को वाइसरॉय की कंज्युलेटिव कमेटि ऑफ रिफॉर्म में रख लिया गया था। हालांकि जब सिखों ने कम्युनल अवार्ड का विरोध किया तो उन्होंने इस कमेटि से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन फिर 1937 में उन्हें संसदीय सचिव बना दिया गया। 1945 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कनाडा में यूएन के फूड एंड एग्रीकल्चर कांफ्रेंस में प्रतिनिधि बना कर भेजा और जब 1946 में संविधान बनाने के लिए कॉन्सटीच्युएंट असेंबली बनी तो उसमें भी शोभा सिंह के इस भाई को शामिल कर लिया गया। अंग्रेजों ने तो जो किया वह ‘ वफादारी ’ की कीमत थी, लेकिन आजादी के बाद भी कांग्रेस ने शोभा सिंह के परिवार पर भरपूर मेहरबानी बरपाई। उज्जल सिंह को न सिर्फ कांग्रेसी विधायक, मंत्री और सांसद बनाया गया बल्कि उन्हें वित्त आयोग का सदस्य और बाद में पंजाब तथा तमिलनाडु का राज्यपाल भी बनाया गया। अभी हाल ही में दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग पर मौजूद उनकी 18,000 वर्गफुट की एक कोठी की डील तय हुई तो उसकी कीमत 160 करोड़ आंकी गई थी।
अमीरी में बीता खुशवंत का जीवन---
खुशवंत सिंह का जीवन भी कम अमीरी में नहीं बीता। उन्होंने अपने पिता के बनाए मॉडर्न स्कूल और सेंट स्टीफेंस के बाद लंदन के किंग्स कॉलेज व इनर टेंपल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई की थी, जिसके बाद उन्होंने लाहौर में वकालत भी की, लेकिन आजादी के बाद दिल्ली आ गए और लेखन तथा पत्रकारिता शुरु कर दी। उन्होंने सरकारी पत्रिका ‘योजना’ का संपादन किया और फिर साप्ताहिक पत्रिका इलसट्रेटेड वीकली तथा नैश्नल हेराल्ड और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों के ‘सफल’ कहलाने वाले संपादक रहे। कहा जाता है कि खुशवंत सिंह ने अधिकतर उन्हीं अखबारों का संपादन किया जो कांग्रेस के करीबी माने जाते थे।
एक नजर डालिये शोक-संदेशों पर---
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई गणमान्य लोगों ने जाने माने लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के निधन पर शोक जताया और उन्हें श्रद्धांजलि दी। खुशवंत सिंह का 99 वर्ष की आयु में गुरुवार को निधन हो गया। प्रधानमंत्री ने खुशवंत को प्रतिभाशाली लेखक, स्पष्टवादी टिप्पणीकार और एक प्रिय मित्र बताया जिन्होंने सही रूप में सजनात्मक जीवन जीया। वयोवृद्ध लेखक पिछले कुछ समय से बीमार थे और सार्वजनिक जीवन से दूर रह रहे थे। उनके पुत्र और पत्रकार राहुल सिंह ने बताया कि उन्होंने सुजान सिंह पार्क स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी और दिवंगत आत्मा की शांति की कामना की। पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने सिंह के साथ टेनिस खेलने की बात याद की। उन्होंने कुछ शॉटों पर उनकी हंसी को याद करते हुए कहा कि वे आनंद के लिए खेलते थे, न कि प्रतिस्पर्धा के लिए। खुशवंत सिंह से जुड़े रहे लोगों ने उन्हें सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि दी और उनके साथ बिताए क्षणों को याद किया। वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली ने उन्हें महान लेखक बताते हुए कहा कि खुशवंत सिंह का हास्यबोध काफी अच्छा था। टली ने कहा कि वह काफी स्पष्टवादी और साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि उन्हें याद है कि एक बार वह खुशवंत सिंह के साथ रात का खाना खा रहा था, जब सिंह ने उर्दू शायरी के अपना व्यापक ज्ञान से उनका परिचय कराया। टली के अनुसार खुशवंत एक प्यारा इंसान थे।
शहीदों को श्रद्धांजलि दें और उनके अन्तिम क्षणों को पुनः याद करें---
आइये, गद्दारों से देश की रक्षा का संकल्प लेते हुए शहीदों को श्रद्धांजलि दें और उनके अन्तिम क्षणों को पुनः याद करें। सोमवार 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले- "ठीक है अब चलो।"
फाँसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु तीनों मस्ती से गा रहे थे--
''मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला...''
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गाँधी काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गाँधी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गाँधी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।
-शीतांशु कुमार सहाय।
आज 23 मार्च है। आज ही के दिन सन् 1931 ईश्वी को शहीदे आजम भगत सिंह व उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी थी। देश की आजादी के लिए जीवन कुर्बान करने वालों के लिए देश के नेताओं के पास श्रद्धांजलि के लिए आज न समय मिला और न शब्द। आश्चर्य है कि लोकसभा निर्वाचन की गहमागहमी के दौरान विभिन्न दलों के छोटे-बड़े नेताओं ने देशभर में हजारों सभाएँ कीं मगर किसी को भी उन शहीदों की याद न आयी। दूसरी तरफ जिस गद्दार शोभा सिंह की गवाही पर इन देशभक्तों को मौत की सजा दी गयी, उसके बेटे खुशवन्त सिंह की तीन दिनों पूर्व 20 मार्च 2014 को मौत हुई तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े-छोटे नेताओं ने शोक में उसके प्रति कसीदे पढ़े। सबने खुशवन्त को महान बताया, उनके बाप को आधी दिल्ली का निर्माता बताया। पर, किसी ने इतिहास का वह सच नहीं बताया कि खुशवन्त का पिता ही वह सख्श था जिसके मुँह खोलने से भारत माँ के तीन सपूतों की जीवनलीला समाप्त हो गयी!
इस सन्दर्भ में मैं 20 मार्च 2014 को खुशवन्त पर जो लिखा था, उसे अपने मित्रों के लिए एक बार फिर से पेश कर रहा हूँ---
देशद्रोही के पुत्र खुशवन्त सिंह की मौत
20 मार्च 2014 ईश्वी तदनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष पंचमी विक्रम सम्वत् 2070 को खुशवन्त सिंह का 99 वर्षों की अवस्था में निधन हो गया। पूरे इण्टरनेट पर एक गद्दार के बेटे के मरने पर शोक से भरे समाचार भरे पड़े हैं। पर, जिन्होंने शोक के शब्द कहे या शोक के शब्द लाचारी में बोले या लिखित शोक-संदेश पढ़े, वे शायद इतिहास को नहीं जानते या इतिहास को जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसे तमाम लोगों को खुशवन्त की असलियत भी जाननी चाहिये। अंग्रेजी सरकार के पिट्ठू बन गए थे खुशवन्त के पिता। भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे भगत सिंह। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत के साथ लेता है। जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– ''भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गाँव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।''
भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ खुशवन्त के पिता ने दी थी गवाही---
जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकद्दमा चला तो भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने कुछ लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था खुशवन्त का पिता शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को पहले देश निकाला मिला फिर लाहौर में चले मुकद्दमें में उन्हें उनके दो साथियों समेत फाँसी की सजा मिली जिसमें अहम गवाह था शादी लाल।
खुशवन्त के पिता की गद्दारी के ऐतिहासिक दस्तावेज---
प्रेमचंद सहजवाला ने भगत सिंह के कई अनछुए पहलुओं पर एक अनोखी किताब लिख रखी है। किताब का नाम है, ‘भगत सिंह, इतिहास के कुछ और पन्ने‘। जिस दिन भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका था उस दिन के बारे में विस्तार से बताया गया है। किताब के मुताबिक शोभा सिंह ने न सिर्फ गवाही दी थी, बल्कि भगत सिंह को पकड़वाया भी था। किताब मे प्रमुख इतिहासकार ए जी नूरानी के हवाले से लिखा गया है--- ''शोभा सिंह, जो कि नई दिल्ली के निर्माण में प्रमुख ठेकेदार थे, अभी-अभी गैलरी में प्रविष्ट हुए थे। वे अपने चंद मित्रों के चेहरे खोज रहे थे जिनके साथ उन्हें बाद में भोजन करना था….. ठीक इसी क्षण धमाक-धमाक की आवाज से दोनों बम गिरे थे। सभी भागने लगे, लेकिन शोभा सिंह दोनों पर नजर रखने के लिए डटे रहे…. जैसे ही पुलिस वाले आए शोभा सिंह ने दो पुलिसकर्मियों को उनकी ओर भेजा और स्वयं भी उनके पीछे लपके… पुलिस जब नौजवानों के निकट पहुंची तब किसी भी अपराध बोध से मुक्त अपने किए पर गर्वान्वित दोनों वीरों ने खुद ही अपनी गिरफ़्तारी दी…।''
शोभा सिंह व शादी लाल को गद्दारी का इनाम---
दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। लेकिन शादी लाल को गाँव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था। इस नाते शोभा सिंह खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर पंजाब में कोट सुजान सिंह गांव और दिल्ली में सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी। शोभा सिंह को अंग्रेजों ने ‘सर’ की उपाधि दी थी। खुशवंत सिंह ने खुद भी लिखा है कि ब्रिटिश सरकार ने उनके पिता को न सिर्फ महत्वपूर्ण ठेके दिए बल्कि उनका नाम नॉर्थ ब्लॉक में लगे पत्थर पर भी खुदवाया था। इतना ही नहीं, खुशवंत सिंह के ससुर यानि शोभा सिंह के समधी पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (सीपीडब्ल्यूडी) का प्रमुख बनने का ‘अवसर’ प्राप्त हुआ था। कहते हैं ‘सर’ शोभा सिंह और उसके परिवार को दो रुपए प्रति वर्ग गज पर वह जमीन मिली थी जो कनॉट प्लेस के पास है और आज दस लाख रुपए वर्ग गज पर भी उपलब्ध नहीं है।
अपने को प्रतिष्ठित करते रहे खुशवन्त---
शोभा सिंह के बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था। खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की। खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की भी कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई। शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जुटे गद्दार को महिमामण्डित करने---
अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस नाम के चौराहे (जहां ली मेरीडियन, जनपथ और कनिष्क से शांग्रीला बने तीन पांच सितारा होटल हैं) का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए। हालाँकि अबतक ऐसा नहीं हो पाया है; क्योंकि इसका भारी विरोध भी हुआ। क्या मनमोहन सिंह को इतिहास की जानकारी नहीं कि वे देशभक्त के विरोध में अंग्रेजों के पक्ष में गवाही देने वाले को प्रतिष्ठित करने का लिखित आदेश दे दिया। आश्चर्य होता है ऐसी काँग्रेसी सरकार पर और उसके मुखिया पर! गृह मंत्रालय को हारकर प्रधानमंत्री की अपील और दिल्ली सरकार के प्रस्ताव को मानने से मना करना पड़ गया।
पिता के पक्ष से सफाई दी थी खुशवन्त ने---
जब खुशवन्त के पिता के नाम से दिल्ली में चौक का नाम नहीं पड़ा तो हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'विद मैलिस टूवार्ड्स वन एंड ऑल' में खुशवंत सिंह ने अपने पिता को ‘सच्चा इन्सान’ बताया। लेख का शीर्षक है- 'जब सच बोलना अपराध बन गया'। लेख कुछ इस प्रकार है--- ''कुछ वक्त पहले मैंने नई दिल्ली बनाने वालों पर लिखा था। उनमें पांच लोग खास थे। मेरी शिकायत थी कि उनमें से किसी के नाम पर दिल्ली में सड़क नहीं है। तब तक मुझे नहीं पता था कि मनमोहन सिंह ने शीला दीक्षित को इस सिलसिले में एक चिट्ठी लिखी है। उनकी गुजारिश थी कि विंडसर प्लेस को मेरे पिता शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए। उसके बाद एक किस्म का तूफान ही आ गया। कई लोगों ने विरोध जताया कि मेरे पिता तो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। मैंने उस पर कुछ भी नहीं कहा। जब कुछ अखबारों ने उनका नाम भगत सिंह की सजा से जोडा, तो मुझे तकलीफ हुई। सचमुच, उस खबर में कोई सच नहीं था। दरअसल, शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने इंस्पेक्टर सांडर्स और हेड कांस्टेबल चन्नन सिंह की हत्या की थी। वे इन दोनों से लाला लाजपत राय का बदला लेना चाहते थे। लाहौर में लालाजी की हत्या में उनका हाथ था। उसके बाद भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के आंदोलन को दुनिया की नजरों में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि संसद में हंगामा करेंगे। और फिर अपनी गिरफ्तारी दे देंगे। ठीक यही उन्होंने किया भी। ये लोग दर्शक दीर्घा में जा बैठे। वहीं मेरे पिता भी बैठे थे। संसद में बहस चल रही थी। और वह खासा उबाऊ थी। सो मेरे पिता ने अखबार निकाला और उसे पढ़ने लगे। अचानक पिस्टल चलने और बम के धमाके की आवाज सुनी। वहां बैठे बाकी लोग भाग लिए। रह गए मेरे पिता और दो क्रांतिकारी। जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। मेरे पिता का जुर्म यह था कि उन्होंने कोर्ट में दोनों की पहचान की थी। दरअसल, मेरे पिता ने सिर्फ सच कहा था। सच के सिवा कुछ नहीं। क्या सच कहना कोई जुर्म है? फिर भी मीडिया ने शहीदों की फांसी से उन्हें जोड़ दिया। सचमुच उनका क्रांतिकारियों की फांसी से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उछालना है, जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नहीं है।'' हालांकि खुशवंत सिंह ने यह तो कुबूल किया था कि उनके मरहूम पिता ने भगत सिंह की शिनाख्त की थी, लेकिन शायद यह छिपा गए थे कि उनके पिता इस हद तक अंग्रेजी सरकार के पिट्ठू बन गए थे कि सिपाहियों के मददगार बनकर क्रांतिवीरों की गिरफ्तारी का इनाम लेने में जुट गए थे।
खुशवन्त के चाचा सरदार उज्जल सिंह---
शोभा सिंह के छोटे भाई उज्जल सिंह, जो पहले से ही राजनीति में सक्रिय थे, को 1930-31 में लंदन में हुए प्रथम राउंड टेबल कांफ्रेंस और 1931 में ही हुए द्वितीय राउंड टेबल कांफ्रेंस में बतौर सिख प्रतिनिधि लंदन भी बुलाया गया। उज्जल सिंह को वाइसरॉय की कंज्युलेटिव कमेटि ऑफ रिफॉर्म में रख लिया गया था। हालांकि जब सिखों ने कम्युनल अवार्ड का विरोध किया तो उन्होंने इस कमेटि से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन फिर 1937 में उन्हें संसदीय सचिव बना दिया गया। 1945 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कनाडा में यूएन के फूड एंड एग्रीकल्चर कांफ्रेंस में प्रतिनिधि बना कर भेजा और जब 1946 में संविधान बनाने के लिए कॉन्सटीच्युएंट असेंबली बनी तो उसमें भी शोभा सिंह के इस भाई को शामिल कर लिया गया। अंग्रेजों ने तो जो किया वह ‘ वफादारी ’ की कीमत थी, लेकिन आजादी के बाद भी कांग्रेस ने शोभा सिंह के परिवार पर भरपूर मेहरबानी बरपाई। उज्जल सिंह को न सिर्फ कांग्रेसी विधायक, मंत्री और सांसद बनाया गया बल्कि उन्हें वित्त आयोग का सदस्य और बाद में पंजाब तथा तमिलनाडु का राज्यपाल भी बनाया गया। अभी हाल ही में दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग पर मौजूद उनकी 18,000 वर्गफुट की एक कोठी की डील तय हुई तो उसकी कीमत 160 करोड़ आंकी गई थी।
अमीरी में बीता खुशवंत का जीवन---
खुशवंत सिंह का जीवन भी कम अमीरी में नहीं बीता। उन्होंने अपने पिता के बनाए मॉडर्न स्कूल और सेंट स्टीफेंस के बाद लंदन के किंग्स कॉलेज व इनर टेंपल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई की थी, जिसके बाद उन्होंने लाहौर में वकालत भी की, लेकिन आजादी के बाद दिल्ली आ गए और लेखन तथा पत्रकारिता शुरु कर दी। उन्होंने सरकारी पत्रिका ‘योजना’ का संपादन किया और फिर साप्ताहिक पत्रिका इलसट्रेटेड वीकली तथा नैश्नल हेराल्ड और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों के ‘सफल’ कहलाने वाले संपादक रहे। कहा जाता है कि खुशवंत सिंह ने अधिकतर उन्हीं अखबारों का संपादन किया जो कांग्रेस के करीबी माने जाते थे।
एक नजर डालिये शोक-संदेशों पर---
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई गणमान्य लोगों ने जाने माने लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के निधन पर शोक जताया और उन्हें श्रद्धांजलि दी। खुशवंत सिंह का 99 वर्ष की आयु में गुरुवार को निधन हो गया। प्रधानमंत्री ने खुशवंत को प्रतिभाशाली लेखक, स्पष्टवादी टिप्पणीकार और एक प्रिय मित्र बताया जिन्होंने सही रूप में सजनात्मक जीवन जीया। वयोवृद्ध लेखक पिछले कुछ समय से बीमार थे और सार्वजनिक जीवन से दूर रह रहे थे। उनके पुत्र और पत्रकार राहुल सिंह ने बताया कि उन्होंने सुजान सिंह पार्क स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी और दिवंगत आत्मा की शांति की कामना की। पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने सिंह के साथ टेनिस खेलने की बात याद की। उन्होंने कुछ शॉटों पर उनकी हंसी को याद करते हुए कहा कि वे आनंद के लिए खेलते थे, न कि प्रतिस्पर्धा के लिए। खुशवंत सिंह से जुड़े रहे लोगों ने उन्हें सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि दी और उनके साथ बिताए क्षणों को याद किया। वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली ने उन्हें महान लेखक बताते हुए कहा कि खुशवंत सिंह का हास्यबोध काफी अच्छा था। टली ने कहा कि वह काफी स्पष्टवादी और साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि उन्हें याद है कि एक बार वह खुशवंत सिंह के साथ रात का खाना खा रहा था, जब सिंह ने उर्दू शायरी के अपना व्यापक ज्ञान से उनका परिचय कराया। टली के अनुसार खुशवंत एक प्यारा इंसान थे।
शहीदों को श्रद्धांजलि दें और उनके अन्तिम क्षणों को पुनः याद करें---
आइये, गद्दारों से देश की रक्षा का संकल्प लेते हुए शहीदों को श्रद्धांजलि दें और उनके अन्तिम क्षणों को पुनः याद करें। सोमवार 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले- "ठीक है अब चलो।"
फाँसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु तीनों मस्ती से गा रहे थे--
''मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला...''
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गाँधी काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गाँधी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गाँधी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।
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