-शीतांशु कुमार सहाय
बलात्कार पीड़िताओं के उपचार के लिए नए दिशा-निर्देश तैयार करने वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ‘टू फिंगर’ परीक्षण को अवैज्ञानिक बताते हुए इसे गैर कानूनी बनाने के साथ ही अस्पतालों से कहा है कि वे पीड़ितों की फोरेंसिक एवं चिकित्सकीय जाँच के लिए अलग से कमरे बनाएं। बलात्कार पीडि़तों की मानसिक पीड़ा को समझते हुए सरकार ने इलाज और जांच के लिए नई गाइडलाइन जारी की है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने 'टू फिंगर' टेस्ट पर रोक लगा दी है। नए दिशा निर्देश के अनुसार इसे अवैज्ञानिक और गैर-कानूनी करार दिया गया है।
टू-फिंगर टेस्ट---
टू-फिंगर टेस्ट में योनि में दो अंगुली डालकर जाँच की जाती है। टू-फिंगर टेस्ट में महिला के हायमन (कौमार्य झिल्ली) का मेडिकल इंस्पेक्शन होता है। पिछले साल मई 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म की पुष्टि के लिए किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट को पीडि़त की निजता का हनन बताया था। साथ ही सरकार से कहा था कि इस क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक तरीके को बदला जाए। जस्टिस बीएस चौहान और एफएमआई कलीफुल्ला की बेंच ने कहा था कि यह टेस्ट सिर्फ यौन संबंधों की पुष्टि करता है। इसमें पुष्टि होने के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि पीडि़त की सहमति थी या नहीं। बेंच ने कहा कि यौन हिंसा के मामलों से निपटने में चिकित्सकीय प्रक्रियाओं में स्वास्थ्य को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाए। पीडि़तों को सेवाएं उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। सुरक्षा के पर्याप्त उपाय किए जाए। उनकी निजता के साथ कोई मनमाना या गैरकानूनी हस्तक्षेप न हो। बलात्कार की शिकार पीड़िता को अक्सर ऐसे परीक्षणों से गुजरना पड़ता है, जो किसी को भी अपमानित कर सकता है। कुछ साल पहले तक देश में रेप की पुष्टि के लिए सबसे ज्यादा अपनाया जाने वाला तरीका 'टू फिंगर' टेस्ट था। डॉक्टरों के मुताबिक कई बार टू फिंगर टेस्ट जांच में यह भी पता नहीं चल पाता था कि पीड़िता के साथ वास्तव में बलात्कार किया गया है या नहीं। इस तरीके से केवल यह जाना जा सकता था कि पीड़ित महिला ने पहले किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाया है कि नहीं। टू फिंगर टेस्ट के दौरान मैनुअल एग्जामिनेशन का तरीका अपनाया जाता था जो कि बेहद अमानवीय था। दुराचार के मामले की इस तरह की मेडिकल जांच पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति जाहिर करते हुए नए नियम बनाने के निर्देश दिए थे। जिसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने नए तरीकों को अपनाने के निर्देश दिए थे। इन नए नियमों के जोड़े जाने के बाद लोगों को न्याय मिलने में काफी सहूलियत की उम्मीद जगी थी। लेकिन, इस नियम का सौ फीसदी पालन सुनिश्चित नहीं हो सका।
कॉल्पोस्कोपी जाँच---
'टू फिंगर' टेस्ट की जगह कई अन्य तरीके हैं जो ज्यादा सटीक और संवेदनशील हैं। ऐसा ही एक तरीका है कॉल्पोस्कोपी जाँच। कॉल्पोस्कोपी टेस्ट में कोई भी काम मैनुअली नहीं होता है। कई राज्यों ने इस बारे में नियम बनाए हैं। इन नियमों के मुताबिक पीड़िता के कॉल्पोस्कोपी जाँच के साथ ही आरोपी की भी जांच कराई जाती है। कॉल्पोस्कोपी टेस्ट के बाद दुराचार के दौरान हुए संघर्ष से हुई चोटों को ही मुख्य सुबूत बनाकर अदालत में पेश किया जाना चाहिए। कॉल्पोस्कोपी टेस्ट में एक माइक्रोस्कोप की मदद से पीड़िता के निजी अंगों में आई चोटों को चिह्नित किया जा सकता है। रेप की पुष्टि के लिए अपनाए जा रहे नए नियमों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार तैयार किया गया है जिसमें यह कहा गया है कि किसी भी पीड़िता व पीड़ित के निजी अंगों का परीक्षण करते समय उसके मानवाधिकारों और संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखा जाए। कई राज्यों में ऐसे नियम बनाए गए हैं जिसके तहत पीड़ित महिला और आरोपी पुरुष की अलग-अलग मेडिकल जांच कर उसे दो प्रोफार्मा में भरकर अदालत को देना होगा।
इंद्रजीत खांडेकर की नियमावली--
शुक्रवार 28 फ़रवरी 2014 को नए दिशा-निर्देश में अस्पतालों से कहा गया है कि वे पीडि़तों की फॉरेंसिक और मेडिकल जाँच के लिए अलग से कमरे की व्यवस्था करें। ऐसा विश्वास किया जा रहा है कि इससे बलात्कार पीडि़ता की 'मानसिक पीड़ा' बढ़ने पर रोक लगेगी। डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्च (डीएचआर) ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के साथ मिलकर विशेषज्ञों की मदद से आपराधिक मामलों से निपटने के लिए राष्ट्रीय दिशा-निर्देश तैयार किया है। डीएचआर ने यौन हिंसा के मानसिक-सामाजिक प्रभाव से निपटने के लिए भी एक नई नियमावली बनाई है। ये नियम उन सभी हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स को उपलब्ध कराए जाएंगे, जो यौन हिंसा पीड़ितों की जांच और देखभाल करते हैं। आईसीएमआर के महानिदेशक डॉ. वीएम कटोच ने नवंबर 2011 में विशेषज्ञों का एक समूह बनाया था। डॉ. एमई खान की अध्यक्षता में बने समूह को ऐसे दिशा-निर्देश बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी जिसका पालन किसी भी बलात्कार पीड़ित के स्वास्थ्य केंद्रों और जिला अस्पतालों में पहुंचने पर किया जाना है। इसके बाद क्लीनिकल फॉरेंसिक मेडिकल यूनिट (सीएफएमयू) प्रभारी इंद्रजीत खांडेकर को भी दिशा-निर्देश बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी।
दुष्कर्म की जाँच के नए राष्ट्रीय दिशा-निर्देश---
1. अब तक बलात्कार पीड़ितों की जाँच केवल पुलिस के कहने पर की जाती थी, लेकिन अब यदि पीड़ित पहले अस्पताल आती है तो एफआईआर के बिना भी डॉक्टरों को उसकी जाँच करनी चाहिए।
2. डॉक्टरों से 'रेप' शब्द का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया है, क्योंकि यह मेडिकल नहीं कानूनी टर्म है।
3. अस्पतालों को रेप केस में मेडिको-लीगल मामलों (एमएलसी) के लिए अलग से कमरा मुहैया कराना होगा और उनके पास गाइड लाइंस में बताए गए आवश्यक उपकरण होना जरूरी है।
4. पीड़ित को वैकल्पिक कपड़े उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए और जांच के वक्त डॉक्टर के अलावा तीसरा व्यक्ति कमरे में नहीं होना चाहिए।
5. यदि डॉक्टर पुरुष है तो एक महिला का होना आवश्यक है।
6. डॉक्टरों द्वारा किए जाने वाले 'टू फिंगर' टेस्ट को गैर कानूनी बना दिया गया है। नियमावली में माना गया है कि यह वैज्ञानिक नहीं है और इसे नहीं किया जाना चाहिए।
7. डॉक्टरों को पीड़ित को जाँच के तरीके और विभिन्न प्रक्रियाओं की जानकारी देनी होगी और जानकारी ऐसी भाषा में दी जानी चाहिए, जिन्हें मरीज समझ सके।
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