-शीतांशु कुमार सहाय
नवरात्र के द्वितीय दिवस को आदिशक्ति दुर्गा के द्वितीय स्वरूप ‘ब्रह्मचारिणी’ की आराधना की जाती है। वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म- वेद, तत्त्व तथा तप ब्रह्म शब्द के अर्थ हैं। चूँकि ब्रह्म का एक अर्थ तप भी है, अतः ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करनेवाली। दाहिने हाथ में जप की माला और बायें हाथ में कमण्डलु धारण करनेवाली द्विभुजा माता ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अत्यन्त भव्य और पूर्णतः ज्योतिर्मय है। इन्हें ‘तपश्चारिणी’ भी कहते हैं। इन्हें द्वितीय दुर्गा कहा गया है।
अपने एक जन्म में जब आदिशक्ति ने अपने को पार्वती नाम से हिमालय की पुत्री के रूप में प्रकट किया तो भगवान शंकर को पति रूप में पाने के लिए व्यग्र हो उठीं, तब देवर्षि नारद ने उन्हें शंकर को वरण करने के लिए कठिन तपस्या करने का परामर्श दिया। एक हजार वर्षों तक फल-मूल पर तो सौ वर्षों तक केवल साग ग्रहणकर तपस्या मेें लीन रहीं। इस के पश्चात् पूर्णतः उपवास आरम्भ कर दिया। उपवास के साथ वह खुले आकाश तले वर्षा, धूप आदि के कष्ट सहती रहीं। इस के बाद तीन हजार वर्षों तक भूमि पर टूटकर गिरे बेलपत्रों को ग्रहणकर भगवान शंकर की आराधना में माता लीन रहीं। तत्पश्चात् उन्होंने और दुष्कर तप आरम्भ किया। सूखे बेलपत्रों को भी भोजन के रूप में ग्रहण करना छोड़ दिया और कई हजार वर्षों तक बिना जल व बिना आहार के तपस्या करती रहीं। इस तरह के कठोर तप करने के कारण माँ पार्वती का नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी हो गया। पत्रों या पत्तों को ग्रहण करना छोड़ देने के कारण माता ब्रह्मचारिणी को ‘अपर्णा’ भी कहा गया। इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में कहा है- ‘‘उमा नाम तब भयउ अपर्णा।’’ विदित हो कि पत्ते को संस्कृत में पर्ण भी कहते हैं।
हजारों वर्षों तक निरन्तर तपस्यारत रहने के कारण माँ ब्रह्मचारिणी का शरीर क्षीण हो गया। वह अत्यन्त कृषकाय (दुबली) हो गयीं। उन की इस दशा को देखकर उन की माता मेना अत्यन्त दुःखित हुईं। अपनी पुत्री को तपस्या से विरत करने के लिए माता ने कहा- उ...मा,.....अरे नहीं,.....ओ नहीं...। यों माता आदिशक्ति का एक नाम ‘उमा’ भी पड़ गया।
माँ ब्रह्मचारिणी की तपस्या से समस्त लोकों में हलचल मच गया। देव, देवी, ऋषि- सभी उन का गुणगान करने लगे। उन की कठिन तपस्या की प्रशन्सा चहुँओर होने लगी। तीनों लोकों में माँ की स्तुति होने लगी। आकाशवाणी से भगवान ब्रह्मा ने माता ब्रह्मचारिणी से कहा- ‘‘हे देवी! अब तक किसी ने ऐसी कठिन तपस्या नहीं की। ऐसी तपस्या आप से ही सम्भव थी। आप के इस अलौकिक कृत्य की चहुँओर प्रशंसा हो रही है। आप की मनोकामना पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिव आप को पति के रूप में प्राप्त होंगे। अब आप तपश्चर्या को त्यागकर निजगृह को लौट जायंे। शीघ्र ही आप के पिता आप को बुलाने आ रहे हैं।’’ इस तरह माता ब्रह्मचारिणी पिता के साथ घर लौट आयीं और बाद में भव्य तरीके से भगवान शिव से उन का विवाह हुआ।
अपने भक्तों को साधना का फल प्रदान करता है माँ दुर्गा का दूसरा स्वरूप। इन की आराधना से तप की प्रगाढ़ता में वृद्धि होती है। सदाचार, त्याग, वैराग्य, संयम, वाक्शुद्धि आदि सद्गुणों में अभिवृद्धि होती है। साथ ही सभी तरह के दुर्गुण कम होते जाते हैं, समाप्त होते जाते हैं।
योग के माध्यम से माता ब्रह्मचारिणी की आराधना करनेवाले भक्त स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान लगाते हैं। इस चक्र में ब्रह्मचारिणी का दर्शन करने से भक्ति अत्यन्त प्रगाढ़ हो जाती है। स्वाधिष्ठान चक्र तेज लाल रंग का कमल है जिस की छः पंखुड़ियों पर क्रमशः बं, भं, मं, यं, रं, लं मन्त्र अंकित हैं। इस चक्र के मध्य में अर्द्धचन्द्र है। स्वाधिष्ठान चक्र का बीजमन्त्र वं और वाहन मगर है जो जल का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव विष्णु तथा देवी राकिनी हैं जिन का अधिकार रक्त पर है।
माता ब्रह्मचारिणी अपने भक्तों को कठिन संघर्ष की स्थिति में भी कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होने देतीं और विजयश्री दिलाती हैं। किसी कार्य को करने में एकाग्रता अनिवार्य है जिस की प्राप्ति माँ ब्रह्मचारिणी की पूजार्चना से होती है। माँ दुर्गा के दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी की हाथ जोड़कर आराधना करें-
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।
अपने एक जन्म में जब आदिशक्ति ने अपने को पार्वती नाम से हिमालय की पुत्री के रूप में प्रकट किया तो भगवान शंकर को पति रूप में पाने के लिए व्यग्र हो उठीं, तब देवर्षि नारद ने उन्हें शंकर को वरण करने के लिए कठिन तपस्या करने का परामर्श दिया। एक हजार वर्षों तक फल-मूल पर तो सौ वर्षों तक केवल साग ग्रहणकर तपस्या मेें लीन रहीं। इस के पश्चात् पूर्णतः उपवास आरम्भ कर दिया। उपवास के साथ वह खुले आकाश तले वर्षा, धूप आदि के कष्ट सहती रहीं। इस के बाद तीन हजार वर्षों तक भूमि पर टूटकर गिरे बेलपत्रों को ग्रहणकर भगवान शंकर की आराधना में माता लीन रहीं। तत्पश्चात् उन्होंने और दुष्कर तप आरम्भ किया। सूखे बेलपत्रों को भी भोजन के रूप में ग्रहण करना छोड़ दिया और कई हजार वर्षों तक बिना जल व बिना आहार के तपस्या करती रहीं। इस तरह के कठोर तप करने के कारण माँ पार्वती का नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी हो गया। पत्रों या पत्तों को ग्रहण करना छोड़ देने के कारण माता ब्रह्मचारिणी को ‘अपर्णा’ भी कहा गया। इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में कहा है- ‘‘उमा नाम तब भयउ अपर्णा।’’ विदित हो कि पत्ते को संस्कृत में पर्ण भी कहते हैं।
हजारों वर्षों तक निरन्तर तपस्यारत रहने के कारण माँ ब्रह्मचारिणी का शरीर क्षीण हो गया। वह अत्यन्त कृषकाय (दुबली) हो गयीं। उन की इस दशा को देखकर उन की माता मेना अत्यन्त दुःखित हुईं। अपनी पुत्री को तपस्या से विरत करने के लिए माता ने कहा- उ...मा,.....अरे नहीं,.....ओ नहीं...। यों माता आदिशक्ति का एक नाम ‘उमा’ भी पड़ गया।
माँ ब्रह्मचारिणी की तपस्या से समस्त लोकों में हलचल मच गया। देव, देवी, ऋषि- सभी उन का गुणगान करने लगे। उन की कठिन तपस्या की प्रशन्सा चहुँओर होने लगी। तीनों लोकों में माँ की स्तुति होने लगी। आकाशवाणी से भगवान ब्रह्मा ने माता ब्रह्मचारिणी से कहा- ‘‘हे देवी! अब तक किसी ने ऐसी कठिन तपस्या नहीं की। ऐसी तपस्या आप से ही सम्भव थी। आप के इस अलौकिक कृत्य की चहुँओर प्रशंसा हो रही है। आप की मनोकामना पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिव आप को पति के रूप में प्राप्त होंगे। अब आप तपश्चर्या को त्यागकर निजगृह को लौट जायंे। शीघ्र ही आप के पिता आप को बुलाने आ रहे हैं।’’ इस तरह माता ब्रह्मचारिणी पिता के साथ घर लौट आयीं और बाद में भव्य तरीके से भगवान शिव से उन का विवाह हुआ।
अपने भक्तों को साधना का फल प्रदान करता है माँ दुर्गा का दूसरा स्वरूप। इन की आराधना से तप की प्रगाढ़ता में वृद्धि होती है। सदाचार, त्याग, वैराग्य, संयम, वाक्शुद्धि आदि सद्गुणों में अभिवृद्धि होती है। साथ ही सभी तरह के दुर्गुण कम होते जाते हैं, समाप्त होते जाते हैं।
योग के माध्यम से माता ब्रह्मचारिणी की आराधना करनेवाले भक्त स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान लगाते हैं। इस चक्र में ब्रह्मचारिणी का दर्शन करने से भक्ति अत्यन्त प्रगाढ़ हो जाती है। स्वाधिष्ठान चक्र तेज लाल रंग का कमल है जिस की छः पंखुड़ियों पर क्रमशः बं, भं, मं, यं, रं, लं मन्त्र अंकित हैं। इस चक्र के मध्य में अर्द्धचन्द्र है। स्वाधिष्ठान चक्र का बीजमन्त्र वं और वाहन मगर है जो जल का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव विष्णु तथा देवी राकिनी हैं जिन का अधिकार रक्त पर है।
माता ब्रह्मचारिणी अपने भक्तों को कठिन संघर्ष की स्थिति में भी कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होने देतीं और विजयश्री दिलाती हैं। किसी कार्य को करने में एकाग्रता अनिवार्य है जिस की प्राप्ति माँ ब्रह्मचारिणी की पूजार्चना से होती है। माँ दुर्गा के दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी की हाथ जोड़कर आराधना करें-
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आलेख या सूचना आप को कैसी लगी, अपनी प्रतिक्रिया दें। https://sheetanshukumarsahaykaamrit.blogspot.com/ पर उपलब्ध सामग्रियों का सर्वाधिकार लेखक के पास सुरक्षित है, तथापि आप अन्यत्र उपयोग कर सकते हैं परन्तु लेखक का नाम देना अनिवार्य है।