-शीतांशु कुमार सहाय
माँ दुर्गा के नौ रूप हैं- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री। ‘मार्कण्डेयपुराण’ में माँ नवदुर्गा का भक्तिपूर्ण परिचय 700 श्लोकों में व्यक्त किया गया है जिन्हंे ‘दुर्गासप्तशती’ कहा जाता है। ‘दुर्गासप्तशती’ ग्रन्थ के वर्णन के अनुसार, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने जिन श्लोकों से माँ आदिशक्ति की आराधना की, उन श्लोकों को सम्मिलित रूप से ‘रात्रि सूक्त’ कहते हैं। इस में नवदुर्गा का मन्त्र इस प्रकार है-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।।
प्रथम शैलपुत्री
नवरात्र के प्रथम दिवस को आदिशक्ति दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की आराधना की जाती है। पर्वत को संस्कृत में ‘शैल’ भी कहते हैं। अतः पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण देवी का नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा।
वृषभ (साँढ़) की सवारी करनेवाली माता शैलपुत्री द्विभुजा हैं। दायें हाथ में त्रिशूल व बायें हाथ में कमल का फूल धारण करती हैं। इन्हें प्रथम दुर्गा भी कहा जाता है। माता शैलपुत्री का विवाह भगवान शंकर से हुआ। प्रत्येक जन्म की भाँति इस जन्म में भी शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए शैलपुत्री को तपस्या करनी पड़ी।
पर्वत की पुत्री होने के कारण इन्हें ‘पार्वती’ भी कहा जाता है। पिता हिमालय के नाम के आधार पर इन्हें ‘हैमवती’ या ‘हेमवती’ की संज्ञा भी दी जाती है। माता ने हैमवती स्वरूप में देवताओं के गर्व व अहंकार को समाप्त किया था। अतः माँ को ‘देवगर्वभंजिका’ भी कहा गया।
नवरात्र के प्रथम दिन कलश स्थापित करने के पश्चात् वृषारूढ़ा शैलपुत्री की विधिवत् पूजा की जाती है। भक्तों को कर्मफल प्रदान करनेवाली माता सद्कर्म की प्रेरणा देती हैं।
योग के माध्यम से भी शैलपुत्री की आराधना की जाती है। इस विधि से माता की आराधना करने के लिए किसी वाह्य सामग्री की आवश्यकता नहीं होती। माँ शैलपुत्री का दर्शन योगीजन मूलाधार चक्र में करते हैं। नवरात्र के प्रथम दिन मूलाधार चक्र में ही ध्यान लगाना चाहिये।
मूलाधार चक्र गहरे लाल रंग का कमल है जिस की चार पंखुड़ियाँ हैं। पंखुड़ियों पर क्रमशः वं, शं, षं और सं मन्त्र अंकित हैं। इस चक्र की आकृति चौकोर है। मूलाधार चक्र पर बीजमन्त्र लं है। वाहन हाथी है जो पृथ्वी की दृढ़ता का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव ब्रह्मा और देवी डाकिनी हैं जिन का अधिकार स्पर्शानुभूति पर है। मूलाधार चक्र के केन्द्र में लाल त्रिभुज है जिस का सिरा नीचे की ओर है।
पूर्वजन्म में दक्ष की पुत्री सती के रूप में माँ शैलपुत्री प्रकट हुई थीं। सती का विवाह शंकर से हुआ था। एक बार दक्ष ने एक विशेष यज्ञ का आयोजन किया जिस में भगवान शिव अर्थात् अपने दामाद को निमन्त्रित नहीं किया। पर, पिता के यज्ञ मेें शामिल होने की आज्ञा सती ने येन-केन प्रकारेण अपने पति शिव से ले ही ली। अन्ततः सती अपने शरीर को यज्ञ स्थल पर योगाग्नि से भस्म कर देती हैं। तत्पश्चात् हिमालय की पुत्री के रूप में अवतरित हुईं और शैलपुत्री कहलायीं। हाथ जोड़कर माँ शैलपुत्री की आराधना करें-
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्द्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।
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