महाभारत की रचना : महर्षि कृष्ण द्वैपायन का वाचन व भगवन गणेश का लेखन |
-शीतांशु कुमार सहाय
गुरु पूर्णिमा यानी आषाढ़ पूर्णिमा का दिन 'महाभारत' के रचयिता महर्षि कृष्ण द्वैपायन (वेद व्यास) का जन्मदिन भी है। उन के पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती हैं। कृष्ण द्वैपायन व्यास संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उन का एक नाम 'वेद व्यास' भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उन के सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
'व्यास’ का शाब्दिक अर्थ संपादक है। वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन यानी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १८ पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बनाकर व्यवस्थित किया। ‘महाभारत’ ऐसी रचना है जिसे वेदव्यास बोलते गये और भगवान गणेश लिखते गये। ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण हुई। विश्व के सुप्रसिद्ध आर्षग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' का लेखन महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया और तभी से 'व्यास पूर्णिमा' अर्थात् 'गुरु पूर्णिमा' मनायी जा रही है।
द्वापर युग के अंतिम भाग में वेदव्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जायेगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उन को समझ लेना संभव नहीं रहेगा। व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिये। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उन के लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझायी गयी हैं। इस के अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएँ बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं।
धार्मिक ग्रंथों में महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित 'शिव-पुराण' को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की भक्ति महिमा का उल्लेख है। इस में शिव के अवतार आदि विस्तार से लिखे गये हैं। 'वेद' और 'उपनिषद' सहित 'विज्ञान भैरव तंत्र', 'शिव पुराण' और 'शिव संहिता' में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समायी हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उन की शिक्षा का विस्तार हुआ है। सब प्रकार की रुचि रखनेवाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गये हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोग की कथाएँ पुराणों में सम्मिलित हैं। इस के साथ-साथ व्रत-उपवास की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण हैं।
भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ की पूर्णिमा को ही 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। वैसे तो देशभर में एक से बड़े एक अनेक विद्वान हुए हैं, परंतु उन में महर्षि वेदव्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उन का पूजन आज के दिन किया जाता है।
इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गये हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था।
हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यासजी ही हैं, अतः वे हमारे आदिगुरु हुए। इसीलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। उन स्मृति हमारे मन-मंदिर में हमेशा ताजा बनाये रखने के लिए हमें इस दिन अपने गुरुओं को व्यासजी का अंश मानकर उन की पाद-पूजा करनी चाहिए तथा अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए गुरु का आशीर्वाद जरूर ग्रहण करना चाहिए। साथ ही केवल अपने गुरु-शिक्षक का ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
गुरु पूर्णिमा के दिन खासकर करें :
प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएँ। घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिये पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएँ बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए। फिर हमें 'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए। तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए। अब अपने गुरु अथवा उन के चित्र की पूजा कर उन्हें यथायोग्य दक्षिणा देना चाहिए।
गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन कर उन के उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं। इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उन का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
''यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥''
-कबीरदास
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