ब्रहमांड के बीच में आदि व अनन्त ऊर्जा स्वरूप महाशिवलिंग |
सृष्टि
की उत्पत्ति के बारे में ग्रन्थों में वर्णन है। सब में शक्ति विद्यमान है और शक्ति
के अभाव में मृत। जीव में जब तक शक्ति का अंश मौजूद है, तब तक ही वह जीवित है और जीव की श्रेणी में आता है।
जब उस में से शक्ति का अंश निकल जाता है तो व निर्जीव हो जाता है, मर जाता है और पार्थिव कहलाता है। पार्थिव- अर्थात्
जो पृथ्वी पर गिर गया, जो अब उठ नहीं सकता, जो पृथ्वी के समानान्तर हो गया, जो अब पृथ्वी में मिल जायेगा। यही कारण है कि मृत व्यक्ति
के शरीर को ‘पार्थिव शरीर’ कहते हैं। इस तरह ज्ञात
होता है कि सभी में शक्ति विराजमान है, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। भारतीय ऋषि हज़ारों वर्षों पूर्व
ही कह गये हैं कि जड़ व चेतन- दोनों में शक्ति का अंश विद्वमान है। आज का भौतिक विज्ञान
भी यही कहता है कि जड़ अर्थात् निर्जीव में स्थितिज ऊर्जा और सजीव में गतिज ऊर्जा व्याप्त
है। प्राचीन वैज्ञानिकों को भारतीय ग्रन्थों में ‘ऋषि’ की संज्ञा दी गयी है। ऋषियों ने सब में, अखिल विश्व में व्याप्त शक्ति को कई नाम दिये हैं, जिन में एक नाम ‘आत्मा’ भी है।
शक्ति ही आदि है। अतः
इसे ‘आदिशक्ति’ भी कहते हैं। यह अनन्त
है। कहाँ से कहाँ तक शक्ति का प्रसार है, इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह सब में और सर्वत्र है।
शक्ति सब में और सभी शक्ति में हैं; क्योंकि यह ब्रह्माण्ड
शक्ति या आदिशक्ति का ही व्यापक प्रसारित रूप है। ब्रह्माण्ड में ऊर्जा या शक्ति परमाणु
के रूप में बिखरी है। ब्रह्माण्ड में दो ही तरह की परमाणु शक्ति है- चैतन्य और जड़।
चैतन्य शक्ति से भरे परमाणु संयोजित होकर जीव की उत्पत्ति करते हैं और जड़ शक्तिवाले
परमाणु मिलकर जड़ पदार्थ जैसे ग्रह, तारे, नक्षत्र, उपग्रह, धूमकेतु, पर्वत, वायु, धातु आदि का निर्माण करते
हैं। यों प्रतीत हुआ कि समस्त सृष्टि या निर्माण में केवल और केवल शक्ति का ही हाथ
है।
आदिशक्ति को ऋषियों ने ‘देवी’ के रूप में पूजा है। उस परम्परा का निर्वहन करते हुए धरतीवासी शक्ति की आराधना करते हैं। धरती के सभी धर्मों में केवल शक्ति और उस के रूप की ही चर्चा है। उन का कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं; पर यह साकार रूप धारण करती रहती हैं। ऊपर में मैं ने जिस परमाणु-शक्ति की चर्चा की है, उस के माध्यम से समझिये कि परमाणुओं (शुक्राणु व अण्डाणु) के मिलन से कोशिकांग, कोशिकांगों के संयोजन से कोशिका और कोशिकाओं से अंग बनते हैं। अंगों से अंगतन्त्र और अंगतन्त्रों का समूह एक सम्पूर्ण जीव का निर्माण करता है।
आदिकाल में जब महादेवी
आदिशक्ति में कम्पन हुआ तो ॐ की प्रथम ध्वनि के साथ विशाल शिवलिंग का निर्माण हुआ जिस का न आदि है और न अन्त। यह शिवलिंग ठीक ब्रहमांड के बीच में है। ॐ के साथ उत्पन्न होने के कारण शिव को 'ॐकार' भी कहा जाता है।
वास्तव में शिवलिंग का अभिप्राय स्त्री या पुरुष सूचक लिंग से कदापि नहीं है। किसी
भी ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख मुझे नहीं मिला। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि जब भी कोई ऊर्जा
समूह एक साथ मुक्त होता है तो वह बड़े गोलाकार रूप धारण करता है जो शिवलिंगस्वरूप होता
है। हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों (ऋषियों) ने ऊर्जा अर्थात् शक्ति के इस रूप को ‘शिवलिंग’ का पवित्र नाम दिया। आदिशक्ति के इस रूप को पुरुषवाचक
माना गया। इस तरह आदिशक्ति ने अपने को दो रूपों में विभक्त किया- स्त्री रूप में माता
शक्ति और पुरुष रूप में भगवान शिव। साकार रूप में इन्हें ‘शंकर’ कहा गया।
भगवान शिव की पूजा
या आराधना का मतलब है ब्रह्माण्ड में बिखरी परमाणु-शक्ति को प्राप्त कर उस का जीवन
पालन में उपयोग करते हुए मुक्ति की ओर अग्रसर होना। जो शक्तिशाली है, वही कल्याण को प्राप्त होता है। अतः शिव को कल्याण
का कारक माना गया है।
भगवान शिव ही समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता है। संक्षेप में यह कथा इस प्रकार है- प्रलयकाल के पश्चात सृष्टि के आरम्भ में भगवान नारायण की नाभि से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्माजी अपने कारण का पता लगाने के लिए कमलनाल के सहारे नीचे उतरे। वहाँ उन्होंने शेषशायी भगवान नारायण को योगनिद्रा में लीन देखा। उन्होंने भगवान नारायण को जगाकर पूछा- ''आप कौन हैं?''
नारायण ने कहा- "मैं लोकों का उत्पत्तिस्थल और लयस्थल पुरुषोत्तम हूँ।"
ब्रह्मा ने पूछा- "किन्तु सृष्टि की रचना करनेवाला तो मैं हूँ।"
ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर भगवान विष्णु ने उन्हें अपने शरीर में व्याप्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन कराया।
इस पर ब्रह्माजी ने कहा- "इस का तात्पर्य है कि इस संसार के स्रष्टा मैं और आप दोनों हैं।"
भगवान विष्णु ने समझाया- "ब्रह्माजी! आप भ्रम में हैं। सब के परम कारण परमेश्वर ईशान भगवान शिव को आप नहीं देख रहे हैं। आप अपनी योगदृष्टि से उन्हें देखने का प्रयत्न कीजिये। हम सब के आदि कारण भगवान सदाशिव आप को दिखायी देंगे।"
जब ब्रह्माजी ने योगदृष्टि से देखा तो उन्हें त्रिशूल धारण किये परम तेजस्वी नीलवर्ण की एक मूर्ति दिखायी दी। उन्होंने नारायण से पूछा- "ये कौन हैं?"
भगवान विष्णु ने बताया- "ये ही देवाधिदेव भगवान महादेव हैं। ये ही सब को उत्पन्न करने के उपरान्त सब का भरण-पोषण करते हैं और अन्त में सब इन्हीं में लीन हो जाते हैं। इन का न कोई आदि है न अन्त। यही सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं।" इस प्रकार ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु की कृपा से सदाशिव का दर्शन किया।
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