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मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

आज़ादी का अमृत उत्सव : अँग्रेजों को हरानेवाले महान स्वाधीनता सेनानी वीर कुँवर सिंह The Great Feedom Fighter of Indìa Veer Kunwar Singh


 -शीतांशु कुमार सहाय

थे वयोवृद्ध तुम, किन्तु जवानी नस-नस में लहराती थी।

बिजली लज्जित हो जाती थी, तलवार चमक जब जाती थी।

तुम बढ़ते जिधर, उधर मचता अरि-दल में कोलाहल-क्रन्दन।

हे वीर तुम्हारा अभिनन्दन!

      कविवर सत्यनारायण लाल ने अपनी कविता ‘वीर कुँवर सिंह के प्रति’ में प्रख्यात भारतीय स्वाधीनता सेनानी वीर बाबू कुँवर सिंह की शूरता व विजय अभियान का काव्यात्मक वर्णन किया है। कुँवर सिंह ने अन्तिम साँस तक परतन्त्रता को स्वीकार नहीं किया और बाद के स्वतन्त्रता संग्रामियों के लिए ऐसा आदर्श छोड़ गये, जिसे अपनाकर देश को स्वाधीन कराना सम्भव हो सका।

      भारत के बिहार राज्य अन्तर्गत वर्तमान भोजपुर ज़िले के जगदीशपुर गाँव के ज़मीन्दार थे कुँवर सिंह के दादा उमराँव सिंह। विपरीत परिस्थिति आने पर उमराँव सिंह को परिवार सहित अपने मित्र वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य के ग़ाजीपुर के नवाब अब्दुल्ला के पास जाना पड़ा। वहीं उमराँव सिंह की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे साहेबजादा सिंह का नाम दिया गया। साहेबजादा सिंह ताक़तवर होने के साथ-साथ क्रोधी और उग्र व्यवहार वाले थे। साहेबजादा सिंह का विवाह पंचरत्न देवी से हुआ। उन के चार पुत्र हुए- कुँवर सिंह, दयाल सिंह, राजपति सिंह और अमर सिंह।  

      वर्ष १७७७ ईस्वी को कुँवर सिंह का जन्म हुआ था। बचपन से ही कुँवर सिंह वीरता और साहस के कार्यों में संलग्न रहने के कारण पढ़ने पर ध्यान न दे सके। इस सन्दर्भ में लेखक रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’ ने लिखा है- ‘‘वे प्रारम्भ से ही सरस्वती की सेवा से विरत रहकर चण्डी के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते रहे। .....उन्होंने जितौरा के वन में अपने लिए फूस का बंगला बनवाया था। वे वहीं रहकर शिकार प्रभृति वीरता के कार्यों से अपना मनोविनोद किया करते थे।’’

      तरुणावस्था में ही कुँवर सिंह का विवाह गया के देवमूँगा के प्रसिद्ध ज़मीनदार राजा फतेह नारायण सिंह की पुत्री से हुआ। दाम्पत्य मधुर था पर कुँवर सिंह की आसक्ति अन्य औरतों में बनी रही। आरा की धरमन बीवी अन्त तक उन के शौर्य और प्रणय में साथ देती रही। धरमन और उन की बहन करमन ने कुँवर सिंह के नेतृत्व में अँग्रेजों के विरुद्ध युद्ध भी किया। 

      सन् १८२६ ईस्वी में साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद बाबू कुँवर सिंह को जगदीशपुर की रियासत की बागडोर सौंपी गयी। राजगद्दी पर बैठते ही कुँवर सिंह ने जगदीशपुर का काफ़ी विकास किया। जगदीशपुर दुर्ग को सुन्दर व ज़्यादा सुरक्षित बनाकर हथियारों से लैस घुड़सवारों की फौज बनायी। कुँवर सिंह के भाइयों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नहीं थे, पर इस की चिन्ता उन्हें नहीं थी। शेर की तरह अकेले ही वे दहाड़ते थे।

      वर्ष १८४५-४६ से ही अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी। कई बिहारियों को कारागार में डाला जा चुका था। सोनपुर का गुप्त सम्मेलन इस सन्दर्भ में प्रभावशाली रहा, पर सफलता सन्दिग्ध रही। यों १८५७ में अन्दर-ही-अन्दर देशभर में एकसाथ विद्रोह करने की योजना बनी पर बैरकपुर छावनी (बंगाल) के सिपाही मंगल पाण्डेय ने निर्धारित समय से कुछ माह पूर्व मार्च १८५७ में ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार के विरुद्ध विद्रोह का श्रीगणेश कर दिया। इस की सूचना बिहार में पटना के दानापुर छावनी के सैनिकों को भी मिली और वे सब भी समय से पूर्व ही अँग्रजों के विरुद्ध विद्रोह कर डाले। चूँकि सैनिकों यानी सिपाहियों ने इस की शुरुआत की, अतः इसे ‘सिपाही विद्रोह’ कहते हैं। 

      सिपाही विद्रोह को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा जाता है। दानापुर के सैनिकों ने जगदीशपुर के महाराज कुँवर सिंह को अपना नेतृत्व सौंपा। अस्सी वर्षों की अवस्था में उन्होंने इस चुनौती को स्वीकारा और कई युद्धों में कम्पनी की गोरी सेना को परास्त कर शौर्य और पराक्रम की अमिट गाथा लिख डाली। 

      सम्पूर्ण भारतवर्ष को वीर विजयी कुँवर सिंह के शौर्य पर गुमान है। भारत माता के इस महान सपूत के चरणों में सम्पूर्ण भारतवासियों के प्रणाम निवेदित हैं। संसद भवन में वीर बाबू कुँवर सिंह के चित्र को ससम्मान लगाकर देश ने उन के प्रति अपना कर्तव्य निभाया। कुँवर सिंह सिपाही विद्रोह के प्रथम बिहारी सेनानी हैं जिन का चित्र संसद भवन में लगाया गया। 

      स्वतन्त्र भारत भूमि पर साँस लेनेवाला प्रत्येक नागरिक प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक वीर बाबू कुँवर सिंह के बलिदान का ऋणी है। आइये, हम सब भारत की एकता, अखण्डता और स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण रखकर उन के प्रति आंशिक ऋणमुक्ति का प्रयास जारी रखें। 

      भारत में सिपाही विद्रोह की व्यापकता के मद्देनज़र १९ जून १८५७ ईस्वी को पटना के आयुक्त विलियम टेलर ने स्थानीय प्रमुख व्यक्तियों की बैठक विद्रोह को दबाने के सन्दर्भ में बुलायी, जिन में से तीन मुसलमानों को गिरफ्तार कर लिया। भोजपुर के तरारी थानान्तर्गत लकवा गाँव के पीर अली को भी टेलर ने पाँच जुलाई १८५७ ईस्वी को पकड़वाया और मात्र तीन घण्टों की न्यायालीय प्रक्रिया के पश्चात् फाँसी दे दी गयी। 

      पीर अली पटना में पुस्तक की दूकान चलाते और स्वाधीनता विद्रोह में भाग लेते थे। एक पेड़ से लटकाकर उन्हें फाँसी दे दी गयी। पटना में गाँधी मैदान के निकट स्थित वर्तमान कारगिल शहीद स्मारक के निकट ही वह पेड़ स्थित था। तत्कालीन दण्डाधिकारी मौलवी बख्श के आदेश पर ही पीर अली को फाँसी की सज़ा दी गयी थी।  

      भारत माता के सपूत पीर अली की शहादत ने देशभक्तों को उद्वेलित कर दिया। फलतः १९ जून १८५७ की शाम को दानापुर छावनी के सैन्य सिपाहियों की टोली कुँवर सिंह के नेतृत्व में रणाहुति देने आरा की ओर कूच कर गयी। कुँवर के छोटे भाई अमर सिंह सहित विशाल सिंह व हरेकृष्ण सिंह भी युद्ध में शामिल हो गये। युद्ध की तैयारी के लिए जगदीशपुर के दुर्ग में २० हज़ार सैनिकों के लिए छः महीनों की खाद्य सामग्रियों, अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र और अन्य आवश्यक सामानों को संग्रहित कर लिया गया। यों अस्सी वर्षीय कुँवर सिंह के नेतृत्व में भारत माता के वीर सपूतों ने शाहाबाद क्षेत्र में अँग्रेजी हुकूमत को परास्त कर दिया। उस समय का शाहाबाद वर्तमान में बिहार के चार जिलों में बँटा है। ये ज़िले हैं- भोजपुर, बक्सर, कैमूर और रोहतास। अब शाहाबाद नाम का कोई ज़िला नहीं है। 

      ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ५०० सैनिकों को डनवर के नेतृत्व में आरा भेजा। शाहाबाद के सैनिकों ने कुँवर सिंह के कुशल नेतृत्व में रणकौशल दिखाते हुए २९-३० जुलाई १८५७ ईस्वी को डनवर की सेना को परास्त कर दिया। इसी तरह लायड को भी हार का सामना करना पड़ा। जीवित अँग्रेज सैनिकों को कुँवर सिंह ने बन्दी बना लिया। बिहार के भोजपुर ज़िले के वर्तमान आरा शहर में स्थित महाराजा महाविद्यालय परिसर में स्थित आरा हाउस कुँवर सिंह की जीत का परिचायक है, जहाँ अँग्रेजों को कैद कर रखा गया था। यहाँ ‘वीर कुँवर सिंह संग्रहालय’ बनाया गया है। बिहार सरकार ने आरा में उन के नाम पर ‘वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय’ की स्थापना की है

      बंगाल तोपखाने का मेजर आयर उस दौरान जलयान से प्रयागराज जा रहा था। वह सैनिकों सहित आरा के बीवीगंज में कुँवर सेना से युद्ध करने आ गया। उस ने बन्दी बनाये गये अँग्रेज सैनिकों को मुक्त कराया। आयर ने कुँवर सेना के कई अधिकारियों को फाँसी दे दी। इस बीच कुँवर सिंह अपने बचे साथियों सहित आगे की रणनीति बनाने के लिए जगदीशपुर आ गये।

      इस के बाद कैप्टन रैटरे के सौ सिक्ख सैनिकों सहित दो सौ अन्य सैनिकों के साथ १२ अगस्त १८५७ ईस्वी की सुबह जगदीशपुर पर हमला कर दिया। जितौरा गढ़ को बर्वाद कर अमर सिंह व दयाल सिंह के घर को जला दिया गया। पुनः सैनिकों को संगठित कर कुँवर सिंह २६ अगस्त १८५७ ईस्वी को मिर्जापुर (वर्तमान उत्तर प्रदेश का एक ज़िला) पहुँचे। मिर्जापुर में अँग्रेजों को पराजित करने के बाद वे रामगढ़, घोरावाल, नेवारी, तप्पा उपरन्धा को जीतते हुए बाँदा और कालपी होते हुए कानपुर पहुँचे। ग्वालियर की क्रान्ति सेना, नाना साहेब व कुँवर सिंह ने मिलकर कानपुर में अँग्रेजों से युद्ध किया पर वे असफल रहे। इस के उपरान्त कुँवर सिंह लखनऊ आ गये। लखनऊ के नवाब ने उन्हें शाही वस्त्र व धन से सम्मानित किया। 

      घटना १७ मार्च १८५८ ईस्वी की है। आजमगढ़ के निकट अतरौलिया में कुँवर सिंह अपने पुराने साथियों से मिले और अँग्रेजों के चंगुल से भारत की मुक्ति पर रणनीतिक चर्चा की। सैनिकों को संगठित करने की नीति भी बनी। तैयारी चल ही रही थी कि अँग्रेज कर्नल मिलमैन ने कुँवर सिंह और उन के साथियों पर अचानक आक्रमण कर दिया। पूरी तैयारी न रहने के बावजूद अपने देशभक्त सैनिकों का कुशल नेतृत्व करते हुए कुँवर सिंह ने मिलमैन और उस के सैनिकों को बुरी तरह परास्त किया। सैकड़ों सैनिक मारे गये। अन्ततः २६ मार्च १८५८ ईस्वी को भारत माता के महान सपूत महाराजा कुँवर सिंह ने पुनः आजमगढ़ को अपने कब्जे में किया। अभी महाराजा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती हुई आजमगढ़ की प्रजा खुशी मना ही रही थी कि फिर २७ मार्च १८५८ ईस्वी को कर्नल डेम्स के नेतृत्व में अँग्रेजी सेना ने हमला कर दिया मगर इस बार भी कुँवर सिंह की सेना से मात खानी पड़ी। लगातार मात खाते अँग्रेजों ने कुँवर सिंह को अपना सब से बड़ा शत्रु मान लिया था और उन्हें मार डालने की हर सम्भव कोशिश की जाने लगी। 

      बात १३ अप्रील १८५८ ईस्वी की है। कुशल सेनापति निशान सिंह के नेतृत्व में दो हज़ार वीर सैनिकों को आजमगढ़ की सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपकर महाराज कुँवर सिंह गाजीपुर चले गये। १६ अप्रील  ईस्वी को उन्होंने लुगार्ड पर हमला कर दिया। वे सैनिकों सहित पुनः आजमगढ़ आ गये और लुगार्ड के नेतृत्ववाली ब्रिटिश सेना से भयंकर युद्ध किया। कुछ देशद्रोही रियासतों के राजाओं ने अँग्रेजों को अपनी सेना मुहैया करायी और धन से भी सहायता की। इस कारण देशभक्तों पर देशद्रोहियों की टोली मजबूुत पड़ने लगी। इसलिए कुछ सैनिकों सहित कुँवर सिंह दूसरी तरफ कूच कर गये। लुगार्ड के निर्देश पर ब्रिगेडियर डगलस ने सैनिकों के साथ कुँवर सिंह का पीछा किया। 

      डगलस १९ अप्रील १८५८ ईस्वी को नागरा की ओर बढ़ा जिस की जानकारी गुप्तचरों ने दी तो कुँवर सिंह सैनिकों के साथ सिकन्दरपुर की ओर चल दिये और वहीं से घाघरा नदी पार कर गये। इस तरह वे २० अप्रील १८५८ ईस्वी की रात में गाजीपुर के मनिआर गाँव पहुँचे, जहाँ उन का भव्य स्वागत किया गया। गाजीपुर के ही शिवपुर के लोग ने बीस नावों की व्यवस्था की। भारत की स्वतऩ्त्रता के लिए प्राण उत्सर्ग करने को तत्पर सैकड़ों वीर सैनिकों के साथ कुँवर सिंह शिवपुर घाट से गंगा पार गये। इस तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तमाम चौकसियों के बावजू़द २२ अप्रील १८५८ ईस्वी को एक हज़ार पैदल और घुड़सवार सैनिकों के साथ महाराज कुँवर सिंह जगदीशपुर पहुँचने में सफल रहे। उन्होंने पहले सभी सैनिकों को गंगा पार कराया और अन्तिम नाव से स्वयं पार करने लगे। इसी बीच अँग्रजी सेना वहाँ आ धमकी और कुँवर सिंह के नाव पर अन्धाधुन्ध गोलीबारी कर दी। एक गोली कुँवर सिंह के दायें बाँह में लगी। गोली का विष शरीर में न फैले, इसलिए कुँवर सिंह ने म्यान से तलवार निकाली और अपने बायें हाथ से बाँह के निकट से दायें हाथ को काटकर गंगा में डाल दिया। केवल स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही नहीं; बल्कि विश्व इतिहास में ऐसा प्रकरण उपलब्ध नहीं है कि देशसेवा के लिए कोई सेनानी स्वयं अपने शरीर का महत्त्वपूर्ण अंग काटकर डाला हो। माता गंगा को भी किसी भक्त ने भगीरथ काल से अबतक ऐसा ‘भोग’ नहीं चढ़ाया है। 

      भारत माता को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की दास्तां से मुक्ति दिलाने के लिए नौ महीने में १५ युद्ध लड़नेवाले महान देशभक्त कुँवर सिंह के शरीर में जाँघ सहित कई अंगों में घाव थे। उस पर से दायाँ हाथ काट लेने पर दायीं बाँह पर भी असह्य दर्द देनेवाला बड़ा घाव हो गया। जगदीशपुर नरेश कुँवर सिंह के घायल होने की सूचना पाकर अँग्रेज प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि अब भोजपुर के रणबाँकुरों को पराजित करना आसान होगा। यों आरा से ले ग्रेण्ड के नेतृत्व में अँग्रेज सैनिकों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। प्रजा की भलाई के लिए कुँवर सिंह ने बायें हाथ से भारत माता की पवित्र मिट्टी का तिलक लगाया और बायें हाथ से ही तलवार लहराते हुए सैनिकों के साथ अँग्रेज सैनिकों पर कहर बनकर टूटे। यह कुँवर सिंह के जीवन का अन्तिम युद्ध था। इस युद्ध में भी वे विजेता ही रहे। इस तरह २३ अप्रील १८५८ ईस्वी को जगदीशपुर ही नहीं, आरा से भी अँग्रेजों को खदेड़ दिया और आरा में विजयोत्सव मनाया गया। अँग्रेजों के ध्वज ‘यूनियन जैक’ को उतारकर कुँवर सिंह ने अपना ध्वज फहराया। सैकड़ों सैनिकों को कुँवर सिंह ने बन्दी भी बनाया। बिहार में अब भी २३ अप्रील को प्रतिवर्ष ‘कुँवर सिंह का विजयोत्सव’ मनाया जाता है। उन के अदम्य साहस, पराक्रम और शौर्य के कारण उन के नाम के आगे ‘वीर’ शब्द जोड़ते हैं। उन्होंने जीवन की चौथी अवस्था (८०-८१ वर्ष) में अपनी वीरता का लोहा  मनवाया, अतः उन्हें ‘बाबू’ (पिता या अभिभावक) की भी संज्ञा दी जाती है।    

      भारत के इतिहास कुँवर सिंह जैसे व्यक्तित्व नहीं मिलते हैं। आज भी उन की जीवनी हमें देशभक्ति, साम्प्रदायिक एकता और परहित की ओर प्रेरित करती है। उन के राज्य में सभी धर्मों और जातियों को समान अधिकार मिले हुए थे। उन्होंने विलासिता के बीच भी देशभक्ति और व्यक्तिगत खुशी के बीच भी परहित को प्रश्रय दिया। उन्होंने अपनी प्रेमिका धरमन के नाम पर आरा में ‘धरमन मस्जिद’ बनवायी जहाँ आज भी मुसलमान नमाज अदा करते हैं और कुँवर सिंह की साम्प्रदायिंक सौहार्द को बढ़ावा देने की भूमिका को सराहते हैं। धरमन की बहन करमन के नाम पर उन्होंने एक गाँव बसाया जो आज भी ‘करमन टोला’ के नाम से प्रसिद्ध है। धरमन और करमन केवल नृत्यांगना ही नहीं वीरांगना भी थीं। दोनों ने १८५७ ईस्वी के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में कुँवर सिंह की सेना में शामिल होकर बहादुरी के साथ लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुईं।

      विजयोत्सव के तीन दिनों बाद २६ अप्रील १८५८ ईस्वी को वीर बाबू कुँवर सिंह ने युद्ध, उन्माद और प्रतिशोध की इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। 

      इस आलेख में तो अति संक्षिप्त रूप से ही वीर बाबू कुँवर सिंह के व्यक्तित्व व कृतित्व को रेखांकित करने का प्रयास मैं ने किया। पर, इस बात का अफसोस है कि भारतीय इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप और शिवाजी की तरह ही प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख सेनानी बाबू कुँवर सिंह के साथ भी घोर अन्याय किया है। कुँवर सिंह और उन के परिजनों के बलिदान के अलावा धरमन और करमन जैसी वीरांगनाओं को भी इतिहासकारों ने नकारने का कुत्सित प्रयास किया है। हर भारतवासी उन्हें श्रद्धा से स्मरण करे और संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा ले। 

      अन्त में कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह की कविता याद हो आयी-

उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।

इधर बिहारी वीर बाँकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।।

अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था।

सब कहते हैं कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।

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