-शीतांशु कुमार सहाय
आप से मेरा निवेदन है कि कल सुबह उठकर एक बार इस का जायज़ा लीजियेगा कि कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं? कितने बाहर निकलकर दिल्ली, नोएडा, गुड़गाँव, पुणे, बेंगलुरु, चंडीगढ़, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में और कुछ तो विदेश में जाकर बस गये हैं?
कल आप एक बार उन गली-मोहल्लों से पैदल निकलियेगा जहाँ से आप बचपन में विद्यालय जाते समय दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे।
जरा तिरछी नज़रों से झाँकियेगा हर घर की ओर, आप को एक चुप्पी...अजीब सन्नाटा मिलेगा; न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते-जाते लोग को ताकते बूढ़े ज़रूर मिल जायेंगे। आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं?
भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उस का एक बच्चा और अधिक-से-अधिक दो बच्चे हों और बेहतर-से-बेहतर पढ़ें-लिखें। उन को लगता है या फिर दूसरे लोग उन को ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उन के बच्चे का कॅरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस, यहीं से बच्चे निकल जाते हैं या माँ-बाप द्वारा भेज दिये जाते हैं देश-विदेश के बड़े शहरों के छात्रावासों में।
भले ही बड़े शहरों और उस छोटे शहर के विद्यालय में पाठ्यक्रम और किताबें समान हों मगर मानसिक दबाव आ जाता है...बड़े शहर में पढ़ने भेजने का!
विचार कीजियेगा तो पता चलेगा कि बाहर भेजने पर भी मुश्किल से एक-दो प्रतिशत बच्चे ही IIT, PMT या CLAT वगैरह में निकाल पाते हैं! फिर वही माँ-बाप बाकी बच्चों का 'पेमेण्ट सीट' पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं। चार-पाँच साल बाहर पढ़ते-पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं। फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं। सहपाठियों से शादी भी कर लेते हैं। आप को तो शादी के लिए हाँ करना ही है, अपनी इज्ज़त बचानी है तो, अन्यथा शादी वह करेंगे ही अपने इच्छित साथी से।
सच तो यह है कि ऐसे बच्चे केवल त्योहारों पर घर आते हैं माँ-बाप के पास सिर्फ रस्म अदायगी हेतु। पर्व-त्योहारों की छुट्टी में घर आने पर आस-पड़ोस के कुछ 'छुट चुके' मित्रों पर बड़े शहर या विदेश (जहाँ वह फिलहाल रह रहा है) की 'भव्यता' का किस्सा गाँठकर फिर उसी शहरी भीड़ का हिस्सा बनने चल पड़ता है। आप ने अनुभव किया होगा, यही होता है नऽ।
इधर, घर पर वीरानगी के साथ रहने को अभिशप्त माँ-बाप सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं। किसी कम्पनी में नौकरी लगने पर दो-तीन साल तक तो पड़ोसियों को बेटा या बेटी के पैकेज के बारे में बताते हैं। एक साल, दो साल, कुछ साल बीत गये। माँ-बाप बूढ़े होते जा रहे हैं। अब वे अकेले नहीं रह सकते। सहारे की सख्त आवश्यकता आ पड़ी है लेकिन बच्चों ने ॠण लेकर बड़े शहरों में या विदेश में फ्लैट ले लिये हैं। नया घर, नये सपने, नया परिवार...अब पुराने घर में बुढ़ाते माँ-बाप की सेवा का 'जोखिम' उठाने कौन आता है! अब अपना फ्लैट हो ही गया तो त्योहारों पर भी घर जाना बन्द।
अब तो कोई ज़रूरी शादी या किसी पारिवारिक समारोह में ही आते-जाते हैं ऐसे 'होनहार' बच्चे। अब शादी या अन्य पारिवारिक समारोह तो बैंक्वेट हाॅल में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है। होटल में ही रह लेते हैं। हाँ, एक बात और है कि हाॅल वाले शादी-छट्ठी के समारोह में अगर कोई मुहल्लेवाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते-जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहाँ रखा ही क्या है? वाह!
बेटे-बहू साथ-साथ फ्लैट में बड़े शहर में रहने लगे हैं। अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े खाँसते बीमार माँ-बाप को साथ में रखा जाये। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में।
कोई बच्चा 'बागवान' फिल्म की तरह माँ-बाप को आधा-आधा रखने को भी तैयार नहीं।
अब साहब, घर खाली-खाली, मकान खाली-खाली और धीरे-धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये "प्रॉपर्टी डीलरों" की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है। वो इन बच्चों को घूमा-फिराकर उन के मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं। उन को गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर शहर में खरीदे फ्लैट का ऋण खत्म किया जा सकता है। यही नहीं, बचे पैसे से एक प्लाॅट भी लिया जा सकता है। साथ ही ये किसी बड़े निवेशक को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य भी दिखाने लगते हैं। ये ज़मीन के दलाल बाबूजी और माताजी को भी बेटे-बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं।
हर दूसरा घर, हर तीसरा परिवार सभी के बच्चे बाहर निकल गये हैं। बड़े शहर में मकान ले लिये हैं, बच्चे पढ़ रहे हैं, अब वो वापस नहीं आयेंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है! इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, नाइट क्लब नहीं है...कुछ नहीं है भाई, आखिर इन के बिना जीवन कैसे चलेगा?
भाईसाहब! ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्राॅपर्टी की नज़र से मत देखिये, बल्कि जीवन की खोती हुई जीवन्तता की नज़र से देखिये। आप पड़ोसीविहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं।
आज गाँव सूने हो चुके हैं, शहर कराह रहे हैं।
सूने घर आज भी राह देखते हैं,
वो बंद दरवाजे बुलाते हैं
पर कोई नहीं आता!
घर छोड़कर बड़े शहरों की भीड़ में गुम होते युवाओं से मैं पूछता हूँ कि कि क्या आप का बुढ़ापा सुगमता व्यतीत होगा या जैसा आप ने किया, वैसा ही आप की सन्तान भी करेगी। एक बार विचार अवश्य कीजियेगा और मन करे तो नीचे के कमेण्ट बाॅक्स में अपने उद्गार लिखियेगा।
हृदयस्पर्शी
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वर्तमान समय की सत्यता को दर्शाती,
विचारणीय,
प्रैरणादायक आलेख!
साधुवाद.. 🥀🌹🥀