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गुरुवार, 8 अगस्त 2013
अगस्त क्रान्ति और भारत दर्शन
शीतांशु कुमार सहाय
‘‘यह एक छोटा-सा मंत्र मैं आपको देता हूँ। आप इसे हृदय-पटल पर अंकित कर लीजिये और हर श्वांस के साथ उसका जाप कीजिये। वह मंत्र है- करो या मरो। या तो हम भारत को आजाद करेंगे या आजादी की कोशिश में प्राण दे देंगे। हम अपनी आँखों से अपने देश को सदा गुलाम और परतन्त्र बना रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा काँग्रेसी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बन्धन और दासता में बने रहने को देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेगा। ऐसी आपकी प्रतिज्ञा होनी चाहिये।’’ अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक में दिये गये गाँधीजी के भाषण का यह अंश आज भी लागू है। अक्षरशः नहीं, कुछ बदलकर। वस्तुतः आज ही के दिन सन् 1942 में ‘करो या मरो’ के नारे साथ स्वतन्त्रता के अन्तिम चरण का आन्दोलन (अगस्त क्रान्ति) आरम्भ किया था महात्मा गाँधी ने। आज 71 वर्ष हो गये गाँधीजी को देशवासियों को दासता से मुक्ति का संकल्प दिलवाये हुए। पर, अफसोस कि आज भी आम देशवासी कई दासताओं को देखने के लिए ही नहीं; झेलने के लिए भी जिन्दा हैं। ये दासताएँ अंग्रेजों जैसे आतताई शासक ने नहीं, अपने लोगों की अपने द्वारा चुनी हुई सरकारों ने दी हैं। घटती कमाई और बढ़ती महंगाई की दासता, खाली होती थाली की दासता, गिरती विधि-व्यवस्था के बीच प्राण व प्रतिष्ठा के असुरक्षा की दासता, साम्प्रदायिक उन्माद की दासता, अमूल्य मतदान करके भी 5 वर्ष तक जनविरोधी सरकार को झेलने की दासता, जायज सरकारी सहायता के अभाव में आत्महत्या की दासता- ये दासता, वो दासता, पग-पग पर दासता। इन सबके साथ जिल्लत की जिन्दगी जीने को विवश हैं देशवासी।
अगस्त क्रान्ति के साथ ही ‘करो या मरो’ खत्म नहीं हुआ, यह जारी है अब भी। सरकार द्वारा उपहार में मिली वर्तमान दुर्व्यवस्थाओं के बीच जिन्दगीभर संघर्ष करो या घिसट-घिसटकर मरो। स्वतन्त्र भारत का लोकतन्त्र और यहाँ की लोकतान्त्रिक सरकारें इसी ‘करो या मरो’ को समझा रही हैं, समझाती आ रही हैं- मेरे अनुसार करो या मरो- अब जनता न समझ पाये तो इसमें सरकार का क्या दोष! सरकार कभी 24 रुपये तो कभी 32 रुपये कमाने वाले को अमीर कहती है। इतनी राशि कमाने वाला परिवार के साथ जिन्दा रहेगा या मरेगा? 85 करोड़ गरीबों के देश में काँग्रेस के एक युवा शख्स ने तो यहाँ तक कह डाला कि रुपये-पैसे या साधनों का अभाव गरीबी नहीं है। जो गरीब मुश्किल से एक जून का भोजन जुटा पाता है, उसकी झोपड़ी में जाकर वह भोजन भी खाकर गरीबों का हमदम बनने का ढोंग रचने वाले उस शख्स ने गरीबी को दिमागी फितूर बताया। अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री को भी माँ के साथ इशारों पर नचाने वाला यह अनर्थशास्त्री युवा स्वयं प्रधान मंत्री बनने का स्वप्न भी देख रहा है। राजनीतिबाज ऐसा बोलने का दुस्साहस इसलिये कर रहे हैं; क्योंकि भारत का लोकतान्त्रिक, समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष संविधान पँूजीवाद-सामन्तवाद के गठजोड़ की छाया से बच नहीं पाया। अंग्रेजों के वैभव व दबाव ने भारतीयों के दिलों में भय बैठाया था। इसे स्वतन्त्र भारत के शासकों ने भी अपनाये रखा है। ये इसे और मजबूत करते जा रहे हैं। आम जनता की गरीबी, महंगाई, कुपोषण, बीमारी, बेकारी, शोषण, विस्थापन व आत्महत्याओं के मलबे तले दबे भारत में शासक वर्ग का वैभव निश्चय ही नागवार गुजरता है। करोड़ों गटकने व लाखों का सरकारी सुख भोगने वाले गरीब और 32 रुपये में आम लोग अमीर! यह है शासक वर्ग का अर्थशास्त्र!
अगस्त क्रान्ति के दिन यह भी याद कर लें कि सेवाग्राम व साबरमती आश्रम के छोटे-कच्चे कमरों में बैठकर गाँधीजी को विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य से राजनीतिक-कूटनीतिक संवाद करने में असुविधा नहीं हुई, चिन्तन-लेखन-आन्दोलन करने में भी नहीं। पर, आज के भारतीय शासक वर्ग को चाहिये वातानुकूलित कमरा। यह वर्ग गाँधीजी से कोई प्रेरणा नहीं लेना चाहता। सच तो यह है कि गाँधीजी आम भारतीय के लिए ‘राष्ट्रपिता’ हैं, शासकों के लिए नहीं। भारत सरकार ने उन्हें औपचारिक रूप से ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा दिया ही नहीं है।
9 अगस्त को हम अगस्त क्रान्ति का 71वाँ वर्षगाँठ मना रहे हैं। ऐसे में शासक वर्ग व जनता सोचे कि क्या वे देश की आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखने लिए कृत्संकल्पित हैं? 71 वर्षों पूर्व राष्ट्रपिता द्वारा कराए गये संकल्प को निबाह रहे हैं? दासता की बेड़ियों को तोड़ रहे हैं या उसे और मजबूत कर रहे हैं? क्या जनता का पक्ष मजबूत हो रहा है? कहीं अगस्त क्रान्ति के प्रेरणा-प्रतीकों, प्रसंगों व विभूतियों का उत्सव मनाकर उसके सारतत्त्व को खत्म तो नहीं कर रहे हैं? दरअसल, अगस्त क्रान्ति का 50वाँ वर्षगाँठ वाला वर्ष 1992 विशेष यादगार है। उसी वर्ष नयी आर्थिक नीतियों के तहत देश के दरवाजे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट के लिए खोले गये और एक 500 वर्ष पुरानी मस्जिद को राम मन्दिर आन्दोलन के तहत ढाह दिया गया। तब से नवउदारवाद व सम्प्रदायवाद की युगलबन्दी के बीच भारत का शासक वर्ग जनविरोधी बन गया। 90 के दशक के बाद उपनिवेश काल से भी अधिक भयानक तरीके से जनता का दमन किया जा रहा है। ...तो ईद की खुशियों के बीच मना लीजिये अगस्त क्रान्ति दिवस को, बिना उसके सन्देशों को अपनाए, बिना उसपर अमल किये!
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