-शीतांशु कुमार सहाय / SHEETANSHU KUMAR SAHAY
सृष्टि के आरम्भ में आदिशक्ति ने प्रथमतः जिस शब्द को उत्पन्न किया, वह ‘ऊँ’ है। इसी शब्द की गूँज पूरे ब्रह्माण्ड में फैल गयी। प्रत्येक सजीव-निर्जीव में ऊँ की गूँज विद्यमान है। इसे ही सभी शब्दों की जननी कहा जाता है। सभी मंत्रों के आरम्भ में इसका प्रयोग किया जाता है। ऊँ को सभी मंत्रों का बीज मंत्र कहा जाता है। ‘ऊँ’ को एकाक्षरी मंत्र कहते हैं। ‘ऊँ’ को ‘प्रणव’ भी कहते हैं। कुछ लोग इसे ‘ऊँकार’ या ओंकार भी कहते हैं। ऊँ को ओम कहना गलत है। इसी तरह ऊँकार को ओंकार कहना भी सही नहीं है। ऊँ से भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा प्रकट हुए।
ऊँ की साधना
अ, उ, म, नाद और बिंदु इन पाँचों को मिलाकर ‘ऊँ’ एकाक्षरी मंत्र बनता है। पद्मासन में मेरुदण्ड सीधा कर बैठ जायें। दोनों हाथों से ज्ञान मुद्रा (तर्जनी को अँगूठे से मिलायें) बनाकर हाथ घुटने पर रखें। उसके बाद पेड़ू से 'अ', ह्रदय से 'उ' और नाक से 'म' को नाद एवं बिंदु की ध्वनि सहित उच्चरित करें। साँस को सामान्य किन्तु लम्बी व गहरी रखें। इस प्रकार ऊँ का किया गया उच्चारण सभी भौतिक व आध्यात्मिक पीड़ा को समाप्त करता है। ऊँ का उच्चारण मस्तिष्क में आने वाले नकारात्मक विचारों को दूर कर सकारात्मक ऊर्जा का विकास करता है। शरीर के तंत्र सुचारु होकर ठीक ढंग से कार्य करते हैं।
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