भारतीय वैज्ञानिकों ने हिमालय के ऊपरी इलाके में एक अनोखे पौधे की खोज की है। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह पौधा एक ऐसी औषधि के रूप में काम करता है जो हमारे इम्युन सिस्टम को रेग्युलेट करता है, हमारे शरीर को पर्वतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में मदद करता है और हमें रेडियोऐक्टिविटी से भी बचाता है। यह खोज सोचने पर मजबूर करती है कि क्या रामायण की कहानी में लक्ष्मण की जान बचाने वाली जिस संजीवनी बूटी का जिक्र किया गया है, वह हमें मिल गई है? रोडिओला नाम की यह बूटी ठंडे और ऊंचे वातावरण में मिलती है। लद्दाख में स्थानीय लोग इसे सोलो के नाम से जानते हैं। अब तक रोडिओला के उपयोगों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। स्थानीय लोग इसके पत्तों का उपयोग सब्जी के रूप में करते आए हैं। लेह स्थित डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ हाई ऐल्टिट्यूड (डीआईएचएआर) इस पौधे के चिकित्सकीय उपयोगों की खोज कर रहा है। यह सियाचिन जैसी कठिन परिस्थितियों में तैनात सैनिकों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। डीआईएचएआर के निदेशक आर. बी. श्रीवास्तव के अनुसार, रोडिओला में इम्युमॉड्युलैटरी (प्रतिरोध क्षमता बढ़ाना), ऐडप्टोजैनिक (कठिन वातावरण परिस्थितियों में शरीर को ढालना) और रेडियो-प्रोटेक्टिंग क्षमताएं है। इसकी वजह इसमें मौजूद सेकंडरी मेटाबोटिटेस और फोटोऐक्टिव कंपाउंड्स हैं।
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शनिवार, 30 अगस्त 2014
वैज्ञानिकों ने हिमालय में ढूंढी कमाल की बूटी रोडिओला / Scientists Discovered in the Himalayas the herb Rodiola
भारतीय वैज्ञानिकों ने हिमालय के ऊपरी इलाके में एक अनोखे पौधे की खोज की है। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह पौधा एक ऐसी औषधि के रूप में काम करता है जो हमारे इम्युन सिस्टम को रेग्युलेट करता है, हमारे शरीर को पर्वतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में मदद करता है और हमें रेडियोऐक्टिविटी से भी बचाता है। यह खोज सोचने पर मजबूर करती है कि क्या रामायण की कहानी में लक्ष्मण की जान बचाने वाली जिस संजीवनी बूटी का जिक्र किया गया है, वह हमें मिल गई है? रोडिओला नाम की यह बूटी ठंडे और ऊंचे वातावरण में मिलती है। लद्दाख में स्थानीय लोग इसे सोलो के नाम से जानते हैं। अब तक रोडिओला के उपयोगों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। स्थानीय लोग इसके पत्तों का उपयोग सब्जी के रूप में करते आए हैं। लेह स्थित डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ हाई ऐल्टिट्यूड (डीआईएचएआर) इस पौधे के चिकित्सकीय उपयोगों की खोज कर रहा है। यह सियाचिन जैसी कठिन परिस्थितियों में तैनात सैनिकों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। डीआईएचएआर के निदेशक आर. बी. श्रीवास्तव के अनुसार, रोडिओला में इम्युमॉड्युलैटरी (प्रतिरोध क्षमता बढ़ाना), ऐडप्टोजैनिक (कठिन वातावरण परिस्थितियों में शरीर को ढालना) और रेडियो-प्रोटेक्टिंग क्षमताएं है। इसकी वजह इसमें मौजूद सेकंडरी मेटाबोटिटेस और फोटोऐक्टिव कंपाउंड्स हैं।
सोमवार, 25 अगस्त 2014
सोलह (१६) संस्कार / 16 SANSKARS
-शीतांशु कुमार सहाय
हिन्दू धर्म अथवा सनातन धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं।
गर्भाधान संस्कार - यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस प्रकार करें इसका विवरण दिया गया है। इस संस्कार से कामुकता का स्थान अच्छे विचार ले लेते हैं। यह वैज्ञानिक स्तर पर भी साबित किया जा चुका है।
पुंसवन संस्कार - यह संस्कार गर्भधारण के दो-तीन महीने बाद किया जाता है। मां अपने गर्भस्थ शिशु की ठीक से देखभाल करने योग्य बनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार - यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं।
जातकर्म संस्कार - बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं। नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है।
नामकरण संस्कार - जन्म के बाद ११वें या सौवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राrाण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है। बच्चे को शहद चटाकर सूर्य केदर्शन कराए जाते हैं। उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
निष्क्रमण संस्कार - निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
अन्नप्राशन संस्कार - गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
चूड़ाकर्म (मुंडन) संस्कार - बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
विद्यारंभ संस्कार - जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के समय शिशु बोलना भी शुरू नहीं कर पाता है और चूड़ाकर्म तक बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति जगने लगती है। इसलिये चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।
कर्णवेध संस्कार - इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कार - उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रrा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही।
वेदारंभ संस्कार - ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
केशांत संस्कार - अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।
समावर्तन संस्कार - अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रrाचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रrाचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना।
विवाह संस्कार - वि यानी विशेष रूप से, वहन यानी ले जाना। विवाह का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। विवाहाग्नि संस्कार विवाह के पहले तक पिता द्वारा जलाई गई अग्नि में आहूति दी जाती थी। विवाह के साथ ही व्यक्ति स्वयं अपनी अग्नि घर में प्रज्जवलित करता था। पति-पत्नी दोनों सुबह, दोपहर और शाम को इसमें घी और दूध की आहूति देते थे। विवाह के बाद अपनी अलग अग्नि जलाने का अर्थ है अपना अलग चूल्हा करना। यानी अपनी जिम्मेदारियां स्वयं उठाना। आज भी घर का बंटवारा होने का मतलब दो चूल्हे होना लिया जाता है। हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व (Love Marriage), राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।
अंत्येष्टि संस्कार - इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है। अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।
रविवार, 24 अगस्त 2014
चौंसठ कलाओं में निपुण भगवान श्रीकृष्ण व बलराम / Sixty-four Arts Expert Lord Krishna and Balram
-शीतांशु कुमार सहाय
श्रीकृष्ण और बलराम जगत के स्वामी हैं। दोनों भाइयों ने केवल गुरु के एक बार बोलनेभर से ही 64 दिन-रात में 64 अद्भुत कलाओं को सीख लिया। श्रीकृष्ण का सांसारिक धर्म का पालन कर गुरुकुल जाना, वहाँ अद्भुत 64 कलाओं व विद्याओं को सीखने के पीछे भी असल में गुरुसेवा व ज्ञान की अहमियत दुनिया के सामने उजागर करने की ही एक लीला थी। यह इस बात से भी जाहिर होता है कि साक्षात् जगतपालक विष्णु के अवतार होने से श्रीकृष्ण स्वयं ही सारे गुण, ज्ञान व शक्तियों के स्रोत थे। सारी विद्याएँ व ज्ञान उनसे ही निकला है और वे स्वयंसिद्ध है, फिर भी उन दोनों ने मनुष्य की तरह बने रहकर उन्हें छुपाए रखा। पुस्तकीय ज्ञान से व्यक्ति पैसा और सम्मान तो बटोर सकता है, किंतु मन की शांति नहीं। शांति के लिए अहम है– सेवा। खुद की कोशिशों से बटोरा ज्ञान अहंकार पैदा कर सकता है व अधूरापन भी, किंतु गुरु सेवा से पाया ज्ञान इन दोषों से बचाने के साथ संपूर्ण, विनम्र व यशस्वी बना देता है। श्रीकृष्ण व बलराम ने भी अंवतीपुर (आज का उज्जैन) में गुरु संदीपन से केवल 64 दिनों में ही गुरु सेवा व कृपा से 64 कलाओं में दक्षता हासिल की। गुरु से मिले इन कलाओं और ज्ञान के अक्षय व नवीन रहने का आशीर्वाद 'श्रीमद्भगवद्गगीता' के रूप में आज भी जगद्गुरु श्रीकृष्ण के साक्षात् ज्ञानस्वरूप का दर्शन कराता है। श्रीमद्भगवद्गगीता हर युग में जीने की कला उजागर करनेवाला विलक्षण धर्मग्रंथ है। गुरु संदीपन ने श्रीकृष्ण व बलराम को सारे वेद, उनका गूढ़ रहस्य बतानेवाले शास्त्र, उपनिषद, मंत्र व देवताओं से जुड़े ज्ञान, धनुर्वेद, स्मृति सहित सारे धर्मशास्त्रों, तर्कविद्या या न्यायशास्त्र का ज्ञान दिया। संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध व आश्रय जैसे 6 रहस्योंवाली राजनीति भी सिखाई।
64 प्रकार की कलाएँ ये हैं---
1- गानविद्या 2- विभिन्न प्रकार के वाद्य बजाना 3- नृत्य 4- नाट्य 5- चित्रकारी 6- बेल-बूटे बनाना 7- चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना 8- फूलों की सेज बनान 9- दाँत, वस्त्र और अंगों को रंगना 10- मणियों की फर्श बनाना 11- शय्या-रचना 12- जल को बाँध देना 13- विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना 14- माला आदि बनाना 15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना 16- कपड़े और गहने बनाना 17- फूलों के आभूषणों से शृँगार करना 18- कानों के पत्तों की रचना करना 19- सुगन्धित वस्तुएँ- इत्र, तैल आदि बनाना 20- इंद्रजाल-जादूगरी 21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना 22- हाथ की फुर्ती कें काम 23- विभिन्न प्रकार के खाने की वस्तुएँ बनाना 24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना 25- सूई का काम 26- कठपुतली बनाना, नाचना 27- पहेली 28- प्रतिमा आदि बनाना 29- कूटनीति 30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी 31- नाटक, आख्यायिका आदि की रचना करना 32- समस्यापूर्ति करना 33- पट्टी, बेंत, बाण आदि नाना 34- गलीचे, दरी आदि बनाना 35- बढ़ई की कारीगरी 36- गृह आदि बनाने की कारीगरी 37- सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा 38- सोना-चाँदी आदि बना लेना 39- मणियों के रंग को पहचानना 40- खानों की पहचान 41- वृक्षों की चिकित्सा 42- भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति 43- तोता-मैना आदि की बोलियाँ बोलना 44- उच्चाटनकी विधि 45- केशों की सफाई का कौशल 46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना 47- म्लेच्छ-काव्यों को समझ लेना 48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान 49- शकुन-अपशकुन जानना, शुभाशुभ बतलाना 50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना 51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना 52- सांकेतिक भाषा बनाना 53- मन में रचना करना 54- नयी-नयी बातें निकालना 55- छल से काम निकालना 56- समस्त कोशों का ज्ञान 57- समस्त छन्दों का ज्ञान 58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या 59- द्यू्त क्रीड़ा 60- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण 61- बालकों के खेल 62- मन्त्रविद्या 63- विजय प्राप्त करानेवाली विद्या 64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या।
शनिवार, 23 अगस्त 2014
दो तरह के श्रीकृष्णाष्टकम् के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है / Two Srikrishnashtkm
श्रीकृष्णाष्टकम्
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
अतसीपुष्पसङ्काशं हार नूपुर शोभितम् ।
रत्नकङ्कण केयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्र निभाननम् ।
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरम् ॥
मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम् ।
बर्हिपिञ्छाव चूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नील जीमूत सन्निभम् ।
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
रुक्मिणीकेलिसंयुक्तं पीताम्बर सुशोभितम् ।
अवाप्त तुलसी गन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
गोपिकानां कुचद्वन्द कुङ्कुमाङ्कित वक्षसम् ।
श्रीनिकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमाला विराजितम् ।
शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
कृष्णाष्टकमिदंपुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
कोटिजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
अतसीपुष्पसङ्काशं हार नूपुर शोभितम् ।
रत्नकङ्कण केयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्र निभाननम् ।
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरम् ॥
मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम् ।
बर्हिपिञ्छाव चूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नील जीमूत सन्निभम् ।
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
रुक्मिणीकेलिसंयुक्तं पीताम्बर सुशोभितम् ।
अवाप्त तुलसी गन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
गोपिकानां कुचद्वन्द कुङ्कुमाङ्कित वक्षसम् ।
श्रीनिकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमाला विराजितम् ।
शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
कृष्णाष्टकमिदंपुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
कोटिजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥
श्रीकृष्णाष्टकं
भजे ब्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं
स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैवनन्दनन्दनम।
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं
अनङ्गरङ्गसागरं नमामिकृष्णनागरम्।।१।।
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं
विघूतगोपशोचनं भजामिपद्यचक्षुषम्।
करारविन्दभूषणं स्मितावलोकसुन्दरं
महेन्द्रमानदारणं नमामिकृष्णवारणम्।।२।।
कदम्बपुष्पकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं
ब्रजाङ्गनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम्।
यशोदया समोदया सगोपया दयानिधि
उदूखले कृतग्रहं नमामि नन्दनन्दनम्।।३।।
स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैवनन्दनन्दनम।
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं
अनङ्गरङ्गसागरं नमामिकृष्णनागरम्।।१।।
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं
विघूतगोपशोचनं भजामिपद्यचक्षुषम्।
करारविन्दभूषणं स्मितावलोकसुन्दरं
महेन्द्रमानदारणं नमामिकृष्णवारणम्।।२।।
कदम्बपुष्पकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं
ब्रजाङ्गनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम्।
यशोदया समोदया सगोपया दयानिधि
उदूखले कृतग्रहं नमामि नन्दनन्दनम्।।३।।
नवीनगोपनागरं नवीनकेलिमन्दिरं
नवीनमेघसुन्दरं भजे ब्रजैकसुन्दरम्।
सदैवपादपङ्कजं मदीयमानसेनिजं
दधातुनन्दबालक: समस्तभक्तपालक:।।४।।
दधातुनन्दबालक: समस्तभक्तपालक:।।४।।
समस्तगोपनन्दनं हृदम्बुजैकमोदनं
नमामिकुञ्जमध्यगं प्रसन्नभानुशोभनम् !
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं
रसालवेणुगायकं नमामिकुञ्जनायकं !!
नमामिकुञ्जमध्यगं प्रसन्नभानुशोभनम् !
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं
रसालवेणुगायकं नमामिकुञ्जनायकं !!
भुवोभरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं
यशोमतीकिशोरकं नमामिचित्तचोरकम् !
दृगन्तकान्तभंगिनं सदासदालसंगिनं
दिनेदिनेनवंनवं नमामिनन्दसम्भवं !!
गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं
सुरद्विषन्निकन्दनं नमामिगोपनन्दनं !
नवीनगोपनागरं नवीनकेलिलं पटम्
नमामिमेघसुन्दरं तदित्प्रभालसत्पटम् !!
विदग्धगोपिकामनोमनोज्ञतल्पशायिनं
नमामिकुञ्जकानेन प्रवृद्धवन्हिपयिनं !
यदातदा यथातथा तथैवकृष्णसत्कथा
मयासदैवगीयतां तथाकृपाविधीयताम् !!
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्ययःपुमान्
भवेत्सनन्दनन्दनेभवेभवेसुभक्तिमान् !
375 साल का हुआ चेन्नै / 375 YEARS OLD CHENNAI
पुराने समय में मद्रास के नाम से मशहूर चेन्नई शहर शुक्रवार 22 अगस्त को 375 वर्ष का हो गया। दक्षिण भारत में स्थित इस ऐतिहासिक तटीय शहर के जन्मदिन के मौके पर उत्सव मनाया जा रहा है। इस शहर के जन्मदिवस के अवसर पर इतिहासकारों सहित स्वयंसेवकों के एक समूह के जरिए 17 अगस्त के बाद से ही कार्यक्रमों की एक लंबी सूची तैयार की जा रही थी। इस शहर की स्थापना 22 अगस्त 1639 को की गयी थी। ब्रिटिश युग के समय की बहुत सारी यादें और उस दौर की दुनिया का आकर्षण इस शहर के साथ जुड़ा हुआ है। वर्ष 1996 में डीएमके सरकार द्वारा इस शहर का नाम मद्रास से बदलकर चेन्नई रखा गया था। पुराने समय का शांत शहर आज गंगनचुंबी इमारतों, शहर की सीमा बढ़ाते हुए बहुत सारे मॉल, आईटी कार्यालयों के बनने के बाद एक हलचल भरे महानगर में बदल गया है।
मद्रास उच्च न्यायालय
कॉरपोरेशन ऑफ चेन्नै
गुरुवार, 7 अगस्त 2014
बैंक के बचत खाते पर ब्याज की गणना करें / Calculate Interest On Savings Bank Account
अधिकतर लोगों को यह जानकारी नहीं है कि बैंक उनके बचत खाते पर ब्याज की गणना कैसे करता है। पिछले वर्ष तक प्रत्येक बैंक में ब्याज की दर समान थी जब तक कि भारतीय रिजर्व बैंक ने अक्तूबर 2011 में ब्याज की दर को विनियमित नहीं किया था। प्रत्येक बैंक अब अपनी बचत खाता ब्याज दर निश्चित करने के लिए स्वतंत्र है, विषय की एकरूपता रू.1लाख तक बरकरार रखी गई है। एक बैंक, बचत बैंक में जमा 1 लाख रुपये से अधिक की राशि पर विभेदक ब्याज दरें प्रदान कर सकती है। हालांकि, अनिवासी (बाहरी) लेखा योजना एवं साधारण अनिवासियों के लिए ब्याज दरें अपरिवर्तित रहेंगी। कितनी पुरानी दरों की गणना की गई है? पहले, अप्रैल 1, 2010 तक बैंक ब्याज दरों की गणना अलग विधि द्वारा करते थे। यह प्रत्येक महीने के 10वें और अंतिम दिन के बीच खाते में उपलब्ध न्यूनतम शेष राशि पर आधारित था। यह विधि ग्राहकों के लिए लाभदायक नहीं थी जैसे कि उदाहरण के लिए यदि आपने अपने बचत खाते में रू. 2,00,000, 4% की दर से पूरे महीने के लिए रखे महीने की 26 तारीख आपने रू.1,80,000 निकाल लिए। आपको केवल रू.20,000 पर ब्याज मिलेगा जो सिर्फ रू. 65 है। वर्तमान ब्याज दरों की गणना कैसे की जाती है? नई विधि के अनुसार ब्याज ड्रोन की गणना आपकी समापन राशि पर दैनिक आधार पर की जाती है। हालांकि, संचित ब्याज का तिमाही या छमाही में भुगतान किया जाता है जो बैंक पर निर्भर करता है। आरबीआई, एसबी ब्याज दरों को तिमाही आधार पर उधा देने की आशा करता है। नई विधि किस तरह लाभदायक है, यहाँ तुलना दी गई है यदि आप उसी उदाहरण को देखें जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है, तो नई विधि द्वारा ब्याज की गणना के अनुसार रू. 2 लाख की राशि पर 4% की दर से 30 दिनों का ब्याज रू.657 हो जाएगा।
मासिक ब्याज = राशि (दैनिक शेष) X (दिनों की संख्या) X ब्याज / वर्ष में दिनों की संख्या. =200000X30X4/100X365 = रू. 657 राशि=200000 दिनों की संख्या=30 ब्याज= 4/100 वर्ष में दिनों की संख्या= 365
नई विधि निश्चित रूप से खाता धारकों के लिए लाभदायक है। अविनियमन के कारण एसबी जमा दरों में वृद्धि हेतु बैंकों में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है।
सोमवार, 4 अगस्त 2014
मुर्गा खाने से जा सकती है जान, हो जायें सावधान! / Cock May be Eating Out, Be Careful Go!
अगर आप मुर्गा खाने के शौकीन हैं तो सावधान हो जाइये! आपका ये शौक आपकी सेहत पर भारी पड़ सकता है। बीमार पड़ने पर एंटीबायटिक दवाओं का आप पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरोमेंट यानी सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पोल्ट्री फॉर्म में चूजों को जल्दी बड़ा करने और वजन बढ़ाने के लिए एंटीबायटिक दिये जाते हैं। सीएसई की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पोल्ट्री फॉर्म में चूजों को जल्द-से-जल्द बड़ा करने और उनका वजन बढ़ाने के लिए उन्हें एंटीबायटिक दिये जाते हैं, जो उनके जरिये चिकन खानेवाले लोगों के शरीर में पहुँचता है। ऐसे में बीमार पड़ने पर अगर डॉक्टर आपको एंटीबायटिक दवा देते हैं तो मुमकिन है कि उनका आप पर कोई असर न हो; क्योंकि एंटीबायटिक वाले मुर्गा खाने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और इसीलिए एंटीबायटिक दवाएं हम पर बेअसर हो सकती हैं। दवा का असर नहीं होने की वजह से आपकी बीमारी बढ़ सकती है और जानलेवा तक हो सकती है।
सीएसई ने ऐसे किया सर्वे---
सीएसआई ने दिल्ली-एनसीआर के अलग-अलग इलाकों से चिकन के 70 नमूने लिये। इनमें एंटीबायटिक की मौजदगी जानने के लिए टेस्ट किया गया। 40 प्रतिशत सैंपल में एंटीबायटिक के अंश मिले। 17 प्रतिशत सैंपल में एक से ज्यादा तरह के एंटीबायटिक मिले।
चिकन में एंटीबायटिक क्यों है खतरनाक---
आपको बता दें कि हमारे देश में एंटीबायटिक की बिक्री पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं है और न ही चिकन में एंटीबायटिक के अंश की कोई सीमा तय है। इसलिए पोल्ट्री मालिक बिना सोचे-समझे चूजों को एंटीबायटिक दवाएं देते हैं। मुर्गा में मौजूद ये एंटीबायोटिक दवाएं इंसान के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देती हैं। ऐसी हालत में बीमारी होने पर दवा का असर कम होने की आशंका बढ़ जाती है। दवा का असर न होने की वजह से बीमारी खतरनाक साबित हो सकती है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरोमेंट की माँग है कि पोल्ट्री इंडस्ट्री में एंटीबायटिक की बिक्री पर रोक लगे।
शनिवार, 2 अगस्त 2014
मैत्री दिवस की शुभकामनाएँ! / Happy Friendship Day!
मित्रता वह रिश्ता है जिसे हम स्वयं बनाते हैं। दोस्त या मित्र हम खुद चुनते हैं। मित्रता का दिन यानी मैत्री दिवस (फ्रेंडशिप डे) विश्वभर में मनाया जा रहा है। वैसे तो सप्ताह भर पहले से ही फ्रेंडशिप वीक को लोग सेलिब्रेट कर रहे हैं। पर, अगस्त के पहले रविवार को ही मैत्री दिवस को विशेष तरीके से मनाया जाता हैं। मेरी ओर से मैत्री दिवस की पूर्व सन्घ्या पर सभी मित्रों को उत्तरोत्तर विकास की शुभकामनाएँ! आज भले ही हमारे फेसबुक फ्रेंड, कॉलेज फ्रेंड, स्कूल फ्रेंड व ट्यूशन फ्रेंड बनते हैं लेकिन चुनना होगा इनमें से कि कौन वास्तव में मित्र है। जो दिल के सबसे करीब हो और दोस्ती की मर्यादा कायम रख सके, वही असल मित्र है। मालूम ही है आपको कि दोस्ती के तार दिल से ही जुड़े होते हैं।
बच्चों को पढ़ाई जाए गीता और महाभारत / Children Should be Taught the Gita and the Mahabharata
-शीतांशु कुमार सहाय
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एआर दवे ने यह सुझाव दिया कि 'भगवद्गीता' और 'महाभारत' को पहली कक्षा से ही छात्रों को पढ़ाना शुरू कर देना चाहिए। न्यायाधीश ने नई दिल्ली में शनिवार 2 अगस्त 2014 को कहा कि भारतीय को अपनी पुरानी परंपराओं की ओर लौटना चाहिए और बच्चों को शुरुआती उम्र में ही महाभारत और भगवद्गीता पढ़ाई जानी चाहिए। वह 'भूमंडलीकरण के दौर में समसामायिक मुद्दे और मानवाधिकारों के समक्ष चुनौतियाँ' विषय पर लोगों को संबोधित कर रहे थे। दवे ने कहा-- ''जो लोग बहुत धर्मनिरपेक्ष हैं या तथाकथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष हैं, वह इस बात से सहमत नहीं होंगे लेकिन अगर मैं भारत का तानाशाह होता तो मैं गीता और महाभारत क्लास वन की पढ़ाई में शामिल करवाता। यही वह तरीका है, जिससे आप सीख सकते हैं कि जिंदगी कैसे जी जाए। मुझे नहीं पता कि लोग मुझे धर्मनिरपेक्ष कहते हैं या नहीं लेकिन अगर कोई चीज कहीं अच्छी है तो हमें उसे लेने से गुरेज नहीं करना चाहिए।'' न्यायाधीश एआर दवे ने कहा कि सभी की अच्छाई को बाहर लाकर हम हर जगह हिंसा रोक सकते हैं और उसके लिए हमें अपनी जड़ों की ओर वापस जाना होगा। यह सम्मेलन गुजरात लॉ सोसाइटी ने आयोजित की थी। जस्टिस दवे ने पहली क्लास से ही बच्चों को भगवद् गीता और महाभारत पढ़ाने का भी प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि जो बहुत ज्यादा तथाकथित धर्मनिरपेक्ष है वह सहमत नहीं होगा।
गुरु-शिष्य परंपरा से दूर होगा आतंकवाद / Guru-disciple Tradition will be away from Terrorism---
न्यायाधीश एआर दवे ने कहा, "गुरु-शिष्य परंपरा खत्म हो चली है। अगर यह परंपरा बनी रहती तो हमें हिंसा या आतंकवाद जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। हम दुनियाभर में आतंकवाद के मामले देख रहे हैं। इनमें से अधिकतर देश लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले हैं। अगर लोकतंत्र में सभी लोग अच्छे हों तो वे जाहिर तौर पर किसी अच्छे को ही चुनेंगे। फिर वो शख्स किसी को नुकसान पहुँचाने के बारे में नहीं सोचेगा।"