रविवार, 14 सितंबर 2025

जीवित्पुत्रिका व्रत या जितिया व्रत में मछली खाने की परम्परा का सच The Truth Behind The Tradition of Eating Fish During Jivitputrika Vrat or Jitiya Vrat


-शीतांशु कुमार सहाय 

      ग्रन्थों में वर्णित जीवित्पुत्रिका व्रत को ही जितिया व्रत या जिउतिया व्रत भी कहा जाता है। आदिशक्ति के दुर्गा अवतार का ही एक नाम 'जीवित्पुत्रिका' भी है। अतः इस दिन सन्तान  की दीर्घायुता, विद्वत्ता, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए माता दुर्गा की आराधना अवश्य करनी चाहिए। ऐसा शास्त्र का आदेश है। साथ ही जीमूतवाहन की हरे कुश से प्रतिकृति बनाकर पूजा करने का विधान है। यह चर्चा 'जीवित्पुत्रिका व्रत कथा' में भी है। पूर्ण फल की प्राप्ति हेतु ऐसा ही करना चाहिए। 

      मैं ने देखा है कि लोग मूल ग्रन्थ नहीं पढ़ते और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर शास्त्रोक्त पूजन विधियों में फेरबदल कर लेते हैं। फलतः भगवद्कृपा प्राप्त नहीं होती और पूजन का फल नहीं मिलता है। 

      कुछ लोगों ने जितिया के दौरान मछली खाने की परम्परा को आत्मसात् कर लिया है। यह घोर पापकर्म है। यह व्रत पूरी तरह वैष्णव व्रत है। आश्विन कृष्ण पक्ष की सप्तमी रहित अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। मतलब यह कि पितृपक्ष का आठवाँ दिन। पितृपक्ष के दौरान मांसाहार पूरी तरह वर्जित होता है। सातवें दिन यानी आश्विन कृष्ण सप्तमी को नहाय-खाय के दिन स्वाद के गुलाम लोगों ने मछली खाना आरम्भ कर दिया जो स्थानीय स्तर पर परम्परा का रूप ले लिया है जो सर्वथा ग़लत है। इसी तरह कुछ लोग नवरात्र के दौरान भी मछली का सेवन करते हैं। यह भी जीभ की परतन्त्रता स्वीकारनेवालों की 'चालाकी' का प्रतीक है। किसी भी धार्मिक आयोजन में मांसाहार की शास्त्रीय परम्परा नहीं है। धर्म की ग़लत व्याख्या करनेवाले विधर्मियों ने धर्म को बदनाम करने के लिए एक षड्यन्त्र के तहत इसे एक 'परम्परा' का स्वरूप देने का कुत्सित प्रयास किया है। धार्मिक लोग विधर्मियों के इस षड्यन्त्र का जाने-अनजाने में शिकार हो रहे हैं। 

      ऊपर वर्णित 'मछली परम्परा' अधिकतर मिथिला क्षेत्र (नेपाल और बिहार का उत्तरी भाग) में देखने को मिलती है। नवरात्र में मछली खाने की परम्परा बंगाल में अधिक दृष्टिगोचर होती है। मिथिला के निवासियों के मस्तिष्क में यह बात बैठायी गयी है कि मिथिला राज्य (स्वाधीनता से पूर्व) का राजचिह्न मछली थी। कुछ कुतर्की लोग मछली को मांसाहार नहीं मानते; बल्कि 'जल का फल' मानते हैं। पर, धर्म के नियम और शास्त्र के अनुशासन यह बताते हैं कि व्रत, यज्ञ, अनुष्ठान आदि में मूल ग्रन्थ का ही अनुसरण करना चाहिए। 

      अब स्वीकार कीजिए 'जीवित्पुत्रिका व्रत' की मङ्गलकामना, साथ ही सुनिए 'जीवित्पुत्रिका व्रत कथा' और कमेण्ट कर बताइए कि इस में जो कहा गया है, क्या व्रत करनेवाली महिलाएँ उन का पालन करती हैं? यदि नहीं, तो उन्हें पूर्ण फल की प्राप्ति निश्चित रूप से नहीं होगी। अन्त में आप से निवेदन करता हूँ कि आप तैत्तिरीयोपनिषद का कथन 'धर्मं चर' अर्थात् 'धर्म का आचरण करो' की नीति को याद रखिए और ऐसा ही कीजिए।

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा


कोई टिप्पणी नहीं: