शीतांशु कुमार सहाय
अब राजनीतिक दलों के आन्तरिक सच को जानने का अवसर जनता को नहीं मिल पाएगा, कभी नहीं। जनतन्त्र की दुहाई देने वाले दल जनता से ही छिपाएंगे अपना राज। वे कभी नहीं बताएंगे कि उनके पास वैध या अवैध तरीके से कितना धन आया। पद पर रहकर महज कुछ हजार वेतन पाने वाले नेता लाखों की यात्रा व मौज-मस्ती में करोड़ों उड़ाने का राज ढँककर रखेंगे। पद से हटने पर भी उनके रुतबे में कमी क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा। गला फाड़कर पारदर्शिता की बात कहने वाले नेता अपनी पार्टी को कभी पारदर्शी नहीं बनाएंगे। वे ऐसा करें भी क्यों? अब कोई प्रखर समाजसेवी कहेगा भी तोे वे कानून की लाचारी समझा देंगे और कहेंगे, क्या करें, हम तो चाहते हैं कि हमारी पार्टी अपनी आय-व्यय और अन्य बातें सार्वजनिक करे लेकिन कानून ऐसा करने नहीं देता.....अब हम तो कानून मानने वाले हैं, गैर-कानूनी काम तो हम कर नहीं सकते! ऐसा तर्क देने का मौका किसी और ने नहीं दिया; बल्कि दल वाले स्वयं अपनी ‘हिफाजत’ के लिए ऐसा कानून बना रहे हैं। वृहस्पतिवार को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) से बाहर कर दिया। अब सम्बन्धित विधेयक संसद के मॉनसून सत्र में लाया जाएगा। यकीन मानिये कि बिना हिल-हुज्जत के यह पारित भी हो जाएगा। जिस विधेयक से सीधा जनता को लाभ हो, वह भले ही विरोध या शोरगुल की भेंट चढ़ जाए मगर जिससे नेताओं को फायदा हो, वह तुरन्त पारित हो जाता है। यह भारतीय जनतन्त्र का व्यावहारिक सच है।
दरअसल, देश के सभी राजनीतिक दल अब आरटीआई से बाहर रहेंगे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने वृहस्पतिवार को एक महत्त्वपूर्ण फैसला लेते हुए आरटीआई में संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। अब सरकार को संसद के मॉनसून सत्र में इस विधेयक को पेश करना होगा। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैटक हुई। उस दौरान आरटीआई संशोधन विधेयक को हरी झण्डी दिखायी गयी। असल में सरकार इस विधेयक के जरिये सार्वजनिक इकाइयों की परिभाषा बदलना चाहती है; ताकि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जा सके। यों तो सरकार ने आरटीआई को जनता के हाथ में ताकत देने का सबसे बड़ा हथियार बताया था लेकिन खुद इसके दायरे से बाहर रहने में जुटी है। सरकार इस मुद्दे पर पहले ही सभी दलों की राय ले चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव पर संसद में सरकार को समर्थन देने का वचन दिया है। वास्तव में जब स्वार्थ साधना हो तब दुश्मन को भी दोस्त बना लेना चाहिये। भाजपा ने ऐसा ही किया। विदित हो कि आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराकर राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने की माँग की थी। इस मामले पर सुनवाई के दौरान 3 जून को सीआईसी ने कहा था कि 6 राष्ट्रीय दलों को केन्द्र सरकार की ओर से परोक्ष रूप से आर्थिक मदद मिलती है। ये 6 दल हैं- काँग्रेस, भाजपा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी। मुख्य सूचना आयुक्त ने यह भी कहा था कि पार्टियों को जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिये; क्योंकि आरटीआई के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है। सीआईसी ने पार्टियों को जन सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति के लिए 6 सप्ताह का समय दिया था। हालाँकि इस दौरान केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही एकमात्र ऐसी पार्टी रही जिसने आरटीआई के जरिये माँगी गयी सूचना आवेदक को मुहैया करायी।
इस संदर्भ में सरकारी राग भी सुन लेते हैं। केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने स्पष्ट किया कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के प्रति जवाबदेह हैं और आय का ब्योरा आयोग को दिया जाता है। 20 हजार रुपये से अधिक के चन्दे का आँकड़ा आयकर विभाग को दिया जाता है। अब प्रश्न उठता है कि जो बातें निर्वाचन आयोग व आयकर विभाग को बतायी जाती है, वही बातें जनता को बताने से पार्टियाँ क्यों घबरा रही हैं? जिसे जनता चुनकर भेजती है वह अपने बारे में जनता को नहीं बताएगा। यह कैसा जनप्रतिनिधित्व? जनता कराहती रहेगी और उसके प्रतिनिधि पर्दे के पीछे मलाई काटते रहेंगे। बकौल सिब्बल वे (दलीय नेता) नियुक्त नहीं होते, उन्हें जनता चुनती है, इसलिये उन पर आरटीआई लागू नहीं होगा। यानी नेताओं ने अपने को कानून से ऊपर की चीज बना लिया है। इसका असर 2014 के लोकसभा आम चुनाव में हो या न हो मगर दूरगामी प्रभाव तो अवश्य पड़ेगा, बस इन्तजार कीजिये। इस दौरान अन्ना हजारे की सहयोगी अरुणा राय ने शनिवार को जयपुर में इस सरकारी निर्णय को निन्दनीय बताया। वह कहती हैं कि राजनीतिक दल भले ही अपनी विचारधारा छिपाएँ मगर आय-व्यय को जनता के सामने रखना ही चाहिये। इस बीच 5 अगस्त को विरोध प्रदर्शन का निर्णय समाजसेवी निखिल डे ने लिया है। बाद में दिल्ली में खुले मंच पर इसका विरोध किया जाएगा। सच है कि जनता अब जाग गयी है। यही सच नेताओं के गले नहीं उतर रहा है।
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