-शीतांशु कुमार सहाय / SHEETANSHU KUMAR SAHAY
जिन्दगी एक खूबसूरत और हसीन तजुर्बा है। इसे अक्सर बेहतर बनाना हमारे अपने हाथ में है। इसे सजा-संवार सकते हैं या इसे बिगाड़ भी सकते हैं। मैंने अपने तजुर्बे से सीखा है कि जिन्दगी तभी हसीन हो सकती है जब लक्ष्योन्मुखी परिश्रम किया जायेगा। ऐसा विचार आने पर ही मैंने पत्रकारिता व लेखन को अपने शेष जीवन का आधार बनाया और निरन्तर लक्ष्योन्मुखी परिश्रम को अंगीकार कर कर्त्तव्य-पथ पर चल रहा हूँ, चलता जा रहा हूँ। इस दौरान मैंने जो सीखा उसके आधार पर कह सकता हूँ कि लक्ष्य को केन्द्र की तरह स्थिर न रखा जाये, इसे स्थानापन्न बनाये रखना चाहिये। जैसे ही लक्ष्य की प्राप्ति हो जाये तो स्थिर नहीं होना चाहिये अन्यथा कालचक्र की चलायमान स्थिति के मद्देनजर वह कथित स्थिरता भी अवनति के मार्ग पर अग्रसर हो जायेगी। अतः लक्ष्य प्राप्ति के तुरन्त बाद अपने लिए नूतन लक्ष्य निर्धारित कर पुनः उसे प्राप्त करने के लिए परिश्रम करना चाहिये। यों परिश्रम करने की, विशेषकर लक्ष्योन्मुखी परिश्रम करने की आदत बनी रहेगी। यही वह आदत है जिसका जायका, तासीर और परिणाम तीनों अच्छा होता है, सकारात्मक होता है। इसी सकारात्मकता को अंगीकार कर मैं अपने प्रदत्त कर्त्तव्य का तन्मयता से निर्वहन करता हूँ। अब तक ऐसा ही करता आया हूँ और भविष्य की अनिश्चितता के बावजूद ऐसा ही करता रहूँगा; प्रतिज्ञा यही है।
कहते हैं कि संस्कारों की ठोस नींव पर खड़ा व्यक्तित्व का भवन बड़ा मजबूत होता है। माता, पिता व गुरुजनों की सत्यनिष्ठता, कर्त्तव्यपरायणता और उनके आध्यात्मिक विचारों ने मुझे संस्कारित किया, कदम बढ़ाने से पूर्व विचार करना सिखाया, श्रेष्ठजनों का सम्मान और छोटों में स्नेह बाँटना बताया। मैं अपने व्यावसायिक जीवन में भी इन्हीं संस्कारों के सहारे परिश्रम के साथ कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर हूँ।
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