आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रंयशश्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।१।।
शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तारित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो, तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्व्वंगृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।२।।
सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र, पौत्र, घर और स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्वसुलभ हों, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो, तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।३।।
वेद और षट्वेदांगादि शास्त्र जिसे कण्ठस्थ हों, जिस में सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किन्तु उस का मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो, तो इन सद्गुणों से क्या लाभ?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यःसदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।४।।
जिसे विदेश में आदर मिलता हो, अपने देश में जिस का नित्य स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उस का भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो, तो इन सद्गुणों से क्या लाभ?
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैःसदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।५।।
जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किन्तु उन का मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो, तो इस सद्भाग्य से क्या लाभ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापाद्जगद्वस्तु सर्व्वं करे सत्प्रसादात्।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।६।।
दानवृत्ति के प्रताप से जिन की कीर्ति जगत में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किन्तु उन का मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो, तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराज्येन कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।७।।
जिस का मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो, तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्य्येन देहे मनो वर्तते मेऽत्यनर्थैः।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।८।।
जिस का मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये, तो उस की सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?
अनर्घ्याणि रत्नानि मुक्तानि सम्यक्समालिङ्गिता कामिनी यामिनीषु।
गुरोरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।९।।
अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हों, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये, तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत् पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेद्वाञ्छितार्थं पदं ब्रह्मसंज्ञंगुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्।।१०।।
गुरु के वचन में मन से प्रीति रखनेवाले जो यती, राजा, ब्रह्मचारी और गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पाठ करते हैं, वे पुण्यशाली शरीरधारी वाञ्छित फल व ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं।
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