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बुधवार, 25 सितंबर 2013

ठगों, धोखेबाजों, बलात्कारियों और हत्यारों को सांसद और विधायक बनाना चाहती है काँग्रेस : रूडी


प्रस्तुति- शीतांशु कुमार सहाय

आपराधिक छवि वाले सांसदों पर अध्यादेश की आलोचना करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बुधवार को कहा है कि काँग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार का इस मुद्दे पर अध्यादेश लाने का निर्णय ठगी, धोखाधड़ी, हत्या और ऐसे ही मामले से जुड़े लोगों को सांसद या विधायक बनाने का कुत्सित प्रयास है।
भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राजीव प्रताप रूडी ने कहा- भाजपा अध्यादेश से स्तब्ध है। हम जानना चाहते हैं कि यह किसका विचार है? यह विचार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है या राहुल गांधी का या संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी का। उन्होंने कहा- ठगों, धोखेबाजों, बलात्कारियों और हत्यारों को हमारा सांसद और विधायक बनाने के लिए अध्यादेश लाने को कौन उत्सुक था? रूडी ने इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रशंसा करते हुए कहा कि शीर्ष न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि सांसद और विधायक को किसी भी अदालत में अपराध के लिए 2 वर्ष या अधिक की सजा सुनाये जाने पर तत्काल अयोग्य ठहराया जा सकता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंगलवार को मंजूर अध्यादेश में इस आदेश को दरकिनार करने की बात कही है और भाजपा ने इस कदम का विरोध किया है। रूडी ने कहा- हम भारतीयों का पहले ही राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास खत्म होता जा रहा है और बहुत जल्द ही लोकतंत्र के साथ ऐसा होगा। इसके लिए कांग्रेस को धन्यवाद।
इससे पूर्व भाजपा नेत्री व लोकसभा में विपक्षी नेत्री सुषमा स्वराज ने अपने ट्वीट में कहा था कि उनकी पार्टी दागी सांसदों से जुड़े केंद्रीय मंत्रिमंडल के अध्यादेश का विरोध करेगी। स्वराज ने कहा था- हम राष्ट्रपति से आग्रह करते हैं कि वे इस पर हस्ताक्षर नहीं करें। राष्ट्रपति ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य नहीं हैं जो असंवैधानिक हो।

शनिवार, 21 सितंबर 2013

500 प्रतिशत की मूल्य वृद्धि : भयंकर महंगाई का काँग्रेसी तोहफा



शीतांशु कुमार सहाय
    केन्द्र में सरकार की अगुवाई करने वाली काँग्रेस फिर से सत्ता में आने के लिए कमर कस चुकी है। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा के आम निर्वाचन में जनता के बीच जाकर वह भले ही कामयाबियों का दिवास्वप्न दिखायेगी मगर सच तो यही है कि महंगाई के सिवा उसके पास दिखाने के लिए अगर कुछ है तो वह है भ्रष्टाचार। मनमोहन सिंह की सरकार ने भ्रष्टाचार व महंगाई के तमाम कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया। लोकसभा निर्वाचन में जनता आदर्श सोसाइटी घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, कोयला घोटाला, रुपये की भयानक गिरावट को अवश्य याद रखेगी। इन घोटालों में तो जनता द्वारा दिये गये कर की राशि को घपलेबाजों ने हड़पा जिससे जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं हुई। पर, मनमोहन सरकार ने जो आकाश छूती महंगाई का तोहफा दिया है, वह सीधा जनता की जेब पर डाका डाल रहा है। अभी केन्द्र सरकार ने जो आँकड़े जारी किये हैंे, उनके अनुसार भोज्य-सामग्रियों की कीमत 250 प्रतिशत जबकि सब्जी का दाम 350 प्रतिशत बढ़ा है। यह महंगाई मनमोहन सिंह के शासन के दौरान वर्ष 2004 से 2013 के बीच बढ़ी है।
    दरअसल, अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री से जितनी अपेक्षा जनता ने पाल रखी थी, उनमें से किसी पर भी वे खड़े नहीं उतर सके। भारत और भारतवासियों के लिए यह सबसे बड़ी विडम्बना है जो ताउम्र याद रखने लायक है, भले ही नकारात्मक लहजे में ही। खाने-पीने पर इतनी आफत पहले कभी नहीं आयी जबकि महंगाई पहले भी बढ़ती रही है। काँग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) के दोनों कार्यकालों में महंगाई ने आम आदमी को पस्त कर दिया है। भारत सरकार के आँकड़े जो कहानी बयान करते हैं, वे बेहद चौंकाने वाले हैं। आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2004 से 2013 के बीच खाने-पीने की वस्तुओं के मूल्य में 157 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यहाँ जानने की बात है कि विश्व में भारत दूसरा सर्वाधिक सब्जी पैदा करने वाला देश है। इसके बावजूद यहाँ सब्जियों के दामों में 350 प्रतिशत की बेतहाशा वृद्धि हुई। 10 वर्षों में प्याज की कीमत 521 प्रतिशत, आलू 200 प्रतिशत, बैंगन का मूल्य 311 प्रतिशत बढ़ा है। पत्ता गोभी की कीमत में जबर्दस्त तेजी है और यह 714 प्रतिशत महंगी हुई है। अन्य सब्जियों के साथ भी यही हाल है। करोड़ों परिवारों को कई सब्जियों को अपनी थाली से हटाना पड़ा है। 2009 के बाद से दालों की कीमतें भी तेजी से बढ़ी हैं। दालें प्रोटीन का अच्छा स्रोत हैं। भारत में अधिकतर लोग शाकाहारी हैं, ऐसे में उनकी खाने की थाली से एक महत्त्वपूर्ण पोषक खाद्य पदार्थ गायब हो गया है। दालों के दाम 2005 से जो बढ़ने शुरू हुए, वे 2010 तक 200 प्रतिशत से ज्यादा बढ़े। 2012 में इनकी कीमतों में फिर इजाफा हुआ और पिछले साल सितंबर में इनमें बेतहाशा बढ़ोत्तरी देखी गयी। यों दूध 119 प्रतिशत, अंडा 124 प्रतिशत और चीनी ने 106 प्रतिशत की छलांग लगायी है।
    महंगाई का आलम यह है कि नमक की कीमत भी इन 10 वर्षों में काफी बढ़ी है। अनाज भी पीछे नहीं है। चावल की कीमत में 137 प्रतिशत तो गेहूँ की कीमत में 117 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। मसालों के मूल्य में 119 प्रतिशत की तेजी आयी है। फलों की बढ़िया पैदावार के बावजूद इनकी कीमतें 95 प्रतिशत बढ़ीं। यह महंगाई तब है जब भारत में आमतौर पर खाद्य पैदावार ठीक-ठाक रही है। ये आंकड़े हैं थोक बाजार के जबकि आम आदमी को खुदरा कीमत पर खरीददारी करनी होती है। खुदरा कीमतों में 500 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गयी है। ऐसे में 2014 के चुनाव का बेड़ा कैसे पार लगेगा?

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

KUKU ( अभ्युदय/Abhyudaya ) Means Adevancement /प्रभात / PRABHAT Means Morning





अभ्युदय का अर्थ 'सांसारिक सौख्य तथा समृद्धि की प्राप्ति'। महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा में अभ्युदय की सिद्धि को भी परिगणित किया है-- यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि: स: धर्म: (वैशेषिक सूत्र १।१।२।)। भारतीय धर्म की उदार भावना के अनुसार धर्म केवल मोक्ष की सिद्धि का ही उपाय नहीं, प्रत्युत ऐहिक सुख तथा उन्नति का भी साधन है। अभ्युदय का अर्थ है पूर्ण उदय। अभि उपसर्ग लगाने से उदय के बाहरी व सर्वतोमूखी होने का अर्थ निकलता है। अभि तथा उदय, अभ्युदय अर्थात पूर्ण भौतिक विकास। पूर्ण में संवेदना भी आती है। अतः, यह बाहरी विकास भी जैसा कि आधुनिक जीवन में हम देखते है, केवल मानव का एकांगी विकास नहीं है। ना ही यह केवल आर्थिक विकास है। अभ्युदय वास्तविक विकास का नाम है। दिखावे का नहीं।


शुभ प्रभात

 

 मैं देखता हूं अपनी खिड़की से

नीले आसमान के परे,
रक्तहीन सूरज जगाता है, एक पीलीया दिन को।
और रात,
जिस की आग़ोश में मदहोश थे हम
किसी तन्हा कोने में सिमट जाती है।

रेलगाड़ियां स्टेशनों पर अधभरे पेट उड़ेलती हैं,
धंसी हुई आंखें बसों में घर से द़तर जाती हैं।
पकड़ती हैं स्कूल का रस्ता, भूख संभाले भारी बस्ता,
चमचमाती हुई गाड़ियों में
मख़मली लिबास और
कलफ लगे कुरते
लड़खड़ाते हैं क्लब की ओर, आंखें मलते

कितनी ख़ूबसूरत है,
सुबह भारत की।

-मधुप मोहता

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

पितृपक्ष : पूर्वजों के प्रति श्रद्धा





शीतांशु कुमार सहाय
    यह सच है कि धरती पर सभी उस महान शक्ति की अनुकम्पा से जीवित हैं जो इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं पड़ती। पर, सच यह भी है कि दृश्य शक्ति के रूप में माँ व पिता हैं जो हमें धरती पर लाने वाले कारक हैं। इन दोनों के अलावा अन्य वरिष्ठ परिजनों के भी योगदान होते हैं हमारे मानसिक-शारीरिक परिवर्द्धन व परिष्करण में। ये सभी सम्मिलित रूप से पितृ कहलाते हैं। केवल पिता या पुरुष-परिजन ही नहीं; बल्कि माता व स्त्री-परिजन भी पितृ की श्रेणी में आते हैं। इनमें से जो स्वर्गवासी हो गये हैं, उन्हें आदरपूर्वक स्मरण करने की शुभ अवधि है पितृपक्ष का जो आज से आरम्भ हो रहा है। वास्तव में पितृ-पूजन का ही एक रूप है पितृ-तर्पण। इसे कहीं से भी अवैज्ञानिक नहीं माना जा सकता। कई वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर भी आत्मा की प्रामाणिकता सिद्ध की जा चुकी है। मृत्यु के उपरान्त भौतिक शरीर नहीं रहता; आत्मा का अस्तित्व कायम रहता है। पितृ भी आत्मा के रूप में पितृपक्ष के दौरान अपने परवर्ती परिजनों से तर्पण प्राप्त करने के लिए अदृश्य रूप में उपस्थित होते हैं।
    दरअसल, पितृपक्ष के दौरान केवल सनातनधर्मी ही पितृ-तर्पण करते हैं। पर, पितृ या पूर्वज की प्रसन्नता के उपाय प्रत्येक धर्म में किये जाने का विधान है। विश्व में अपने को सबसे विकसित मानने वाली बिरादरी ईसाई में ऑल सोल्स डे यानी सभी आत्माओं का दिन मनाने की परम्परा है। यों इस्लाम में भी मृतकों को सादर याद करने की परम्परा प्रचलित है। मनुष्य पर 3 प्रकार के ऋण प्रमुख माने गये हैं- पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वाेपरि है। चूँकि लालन-पालन माता-पिता के घर में, उनके सान्निध्य में होता है, अतः यह ऋण सबसे बड़ा है। पितृपक्ष की अवधि हमें इस ऋण से मुक्ति का उत्तम अवसर उपलब्ध कराता है। इस दौरान पितरों का श्राद्ध करना ही चाहिये। श्राद्ध का सीधा सम्बन्ध पितरों यानी दिवंगत परिजनों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता है। अर्थात् पितर किसी माह की प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों तो उनका श्राद्ध पितृपक्ष की प्रतिपदा के दिन ही होगा। पर, विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु होती है- दुर्घटना, विस्फोट, हत्या, आत्महत्या या विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन होता है। साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।   
    पितृपक्ष की अवधि आश्विन प्रथमा से आश्विन अमावस्या तक होती है। वैसे इसकी शुरूआत भाद्र पूर्णिमा से ही हो जाती है जिस दिन अगस्त्य ऋषि को जल का तर्पण दिया जाता है। इस दौरान श्रद्धा से पूर्वजों का श्राद्ध करने से सुख, शान्ति व स्वास्थ्य लाभ होता है, सम्यक् विकास होता है। वैसे सामान्य श्राद्ध तो घर पर ही किया जाता है मगर गया में श्राद्ध को सबसे उत्तम माना गया है। गया के अलावा भी भारत में श्राद्धकर्म करने हेतु कई उपयुक्त स्थल हैं। पश्चिम बंगाल में गंगासागर, महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि में श्राद्ध व दान का विशेष महत्त्व है। सूर्य की सहस्र किरणों में से अमा नाम की किरण प्रमुख है जिसके तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है। अमावस्या में चन्द्र निवास करते हैं। इस कारण धर्म कार्यों में अमावस्या को विशेष महत्त्व दिया जाता है। पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में सूर्यास्त तक घर के द्वार पर उपस्थित रहकर स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं।

बुधवार, 18 सितंबर 2013

8वीं अनुसूची : बाट जोहती भाषाएँ



शीतांशु कुमार सहाय
    भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है हिन्दी। विश्व में 70 करोड़ लोग हिन्दी बोलते, लिखते व समझते हैं। पर, अफसोस की बात है कि इसे भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया है। यह देश की राजभाषा है यानी राजकाज की भाषा। वैसे क्षेत्रीयता की संतुष्टि के लिए संविधान में 8वीं अनुसूची की व्यवस्था की गयी है। अब तक इसमें हिन्दी सहित 22 क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल किया जा चुका है। साथ ही 38 भाषाएँ केन्द्र सरकार के पास विचाराधीन हैं, 8वीं अनुसूची में शामिल होने के लिए प्रतीक्षारत हैं। झारखण्ड की 5 भाषाएँ भी प्रतीक्षासूची में हैं। इन भाषाओं की प्रतीक्षा कब खत्म होगी, यह कहना मुश्किल है। इस सम्बन्ध में भारत सरकार को अन्तिम निर्णय लेना है। झारखण्ड की जिन 5 भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किये जाने के लिए केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव दिया गया है, उनमें हो, कुड़ुख, कुरमाली, मुंडारी एवं नागपुरी शामिल हैं। वैसे इस अनुसूची में शामिल होने से केवल एक ही फायदा है कि कुछ नौकरी की परीक्षाएँ उन भाषाओं में होंगी और सरकारी निर्णय को उन भाषाओं में अनुवादित किया जाएगा।
    यहाँ यह जानने की बात है कि 8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यताप्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाएँ हैं। आरम्भ में 14 भाषाएँ असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू थीं। बाद में सिंधी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को शामिल किया गया। तदुपरान्त बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली को शामिल कर इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गयीं। 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली व संथाली के बाद 38 अन्य भाषाएँ इसमें शामिल होने को प्रस्तावित हैं। इसके अनुसार केवल हिन्दी ही नहीं; बल्कि हिन्दी के अलावा 21 अन्य भाषाएँ भी राजभाषा ही हैं। तभी तो कई सांसद या विधायक 8वीं अनुसूची के गैर-हिन्दी भाषाओं में भी पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं। संविधान के अनुसार ऐसा करना गलत भी नहीं है। विदित हो कि संविधान का निर्माण अंग्रेजी में हुआ और अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरित करने वाले तत्कालीन भारतीय नेता भी अंग्रेजी के पक्षधर थे। तभी तो राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 द्वारा इस बात की व्यवस्था की गयी कि सरकार के काम-काज में सहभाषा के रूप में अंग्रेज़ी तब तक बनी रहेगी, जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सहमत न हो जाएँ। इसका मतलब यह हुआ कि भारत का एक भी राज्य चाहेगा कि अंग्रेज़ी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी। भाषाई गुलामी का प्रतीक राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 काँग्रेस की देन है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के प्रयास से यह पारित हुआ था।
    संविधान को पलटने पर ज्ञात होता है कि इसके अनुच्छेद 343(1) के अनुसार संघ की राजभाषा, देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को घोषित की गयी। पर, अनुच्छेद 343(2) के अनुसार 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी को मान्यता देने के चलते इसे भारतीय संविधान लागू होने की तिथि 26 जनवरी 1950 से लागू नहीं किया जा सका। फिर अनुच्छेद 343(3) द्वारा सरकार ने हिन्दी के विरुद्ध यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह 1950 से 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही-सही क़सर राजभाषा अधिनियम 1963 व राजभाषा (संशोधन) अधिनियम 1967 ने पूरी कर दी। इस अधिनियम ने तत्कालीन काँग्रेसी सरकार के उस उद्देश्य को साफ़ कर दिया कि अंग्रेज़ी की हुक़ूमत देश पर अनन्त काल तक बनी रहेगी। वैसे जान लें कि राजभाषा का दर्जा पाने के लिए अंगिका, बंजारा, बज्जीका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखण्डी, छत्तीसगढ़ी, घाटकी, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोन्दी, गुज्जर या गुज्जरी, कद्दाछी, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोड़वा, कोक बराक, कुमावणी (पहाड़ी), लेपचा, लिम्बू, मिजो, मगही, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, सम्बलपुरी या कोशाली, शाउरसेनी (प्राकृत), सिरायकी, टेनेडी एवं टुलु भाषाएँ प्रयासरत हैं।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

विश्वकर्मा पूजा : कीजिये कर्म की पूजा


शीतांशु कुमार सहाय

    बड़ा शुभ दिन है आज, विश्व को कर्म करने और निरन्तर कर्मशील रहने का सन्देश देने वाले देव विश्वकर्मा के वार्षिक पूजन का दिन। वैसे तो सृष्टि के आरम्भिक काल से ही विश्वकर्मा की आराधना की जा रही है पर आज के विकासवादी माहौल में उनकी आराधना का महत्त्व कुछ अधिक ही हो गया है। निर्माण-गतिविधियों को ही वर्तमान विकास का आधार माना जाता है। यों निर्माण के देव विश्वकर्मा के भक्तों की संख्या में वृद्धि हुई है। सनातन धर्म के ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि नवनिर्माण की विशेषज्ञता के कारण ही उन्हें देवताओं का अभियन्ता माना गया। भारतीय परम्परा में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को प्रथम अभियन्ता माना गया है। समूचे विश्व का ढाँचा, लोक-परलोक का खाका उन्होंने ही तैयार किया। वे ही प्रथम आविष्कारक हैं। यान्त्रिकी, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र तकनीक, वैमानिकी विद्या, नवविद्या आदि के जो प्रसंग मिलते हैं, उन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा ही माने जाते हैं।
    दरअसल, भारतीय परम्परा में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्मा (भगवान) हूँ की भी संकल्पना है। इसे कई लोगों ने अपनाया, उसे साकार किया। विकास के इस युग में  निर्माण को अंजाम देने वाले ही भगवान की श्रेणी में हैं, भगवान हैं। धरती छोड़ते समय विश्वकर्मा निर्माण के गुण मनुष्य को दे गये। स्वयं मानव मन के उस उच्च स्थान पर विराजमान हो गये जहाँ पहुँचने के लिए निरन्तर उच्च श्रेणी का परिश्रम करना अनिवार्य है। ऐसे परिश्रम से ही आत्मविकास, समाज या परिवार का विकास सम्भव है। यहाँ यह जानने की बात है कि प्रत्येक ज्ञान अपने-आप में विशेष ज्ञान है। कोई भी ज्ञान जो विकास को बढ़ावा दे, वह ईश्वर की कृपा है। यही कृपा प्राप्त करने के लिए विश्वकर्मा की आराधना की जाती है। विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है।
    वास्तव में केवल बाहरी विकास ही मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य मात्र उदर-पोषण या परिवार-पालन ही नहीं है। भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक व आत्मिक विकास ही मानव जीवन की सम्पूर्णता का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को पूर्ण करने में विश्वकर्मा सहयोग करते हैं। निर्माण या विकास का मतलब केवल वास्तुगत या वस्तुगत ही नहीं, आत्मतत्त्वगत भी है। विकास के इस सोपान पर चढ़ने के लिए निरन्तर सदाचारी प्रयास अनिवार्य है। ऐसा तभी सम्भव है जब केन्द्रीकृत प्रयास हो। जैसे ही केन्द्र प्रसारित हो जाता है तो विकास का लक्ष्य भटक जाता है। इस भटकाव को दूर करने के लिए भगवान विश्वकर्मा की आराधना तो करनी ही पड़ेगी। 

रविवार, 15 सितंबर 2013

शनिवार, 14 सितंबर 2013

आप नरेन्द्र मोदी को नजरअन्दाज नहीं कर सकते



शीतांशु कुमार सहाय
शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने वर्ष 2014 के लोकसभा आम निर्वाचन में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित किया। यों राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र का कद और बढ़ गया जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। राष्ट्रीय राजनीति का ही नरेन्द्र समर्थक और नरेन्द्र विरोधी खेमों में विभाजन हो गया है। नरेन्द्र के बारे में एक कहावत बनी है जो केवल उन्हीं पर लागू हो रही है। वह कहावत है कि आप यदि नरेन्द्र के विरोध में या समर्थन में खड़े न भी हों तो भी आप नरेन्द्र को नजरअन्दाज नहीं कर सकते। आज यह राष्ट्रीय स्तर पर सच सिद्ध हो रहा है कि नरेन्द्र को भले ही श्रेष्ठ न मानें काँग्रेसी या अन्य विरोधी पर उन्हें या उनके कथनी-करनी को नजरअन्दाज नहीं कर सकते। अब कमर कसकर आलोचक नरेन्द्र के अतीत के कब्र को खोद रहे हैं, धुंधली पड़ी यादों की परतों पर जमी धूल को झाड़कर कुछ खोज रहे हैं, कुछ सामने ला रहे हैं। यह प्रयास है उनकी छवि को बिगाड़ने का; ताकि लोग उनके नाम पर मतदान न करें। विरोधी नरेन्द्र के साम्प्रदायिक अतीत को धूमिल नहीं होने देना चाहते हैं। वहीं नरेन्द्र समर्थक नरेन्द्र को बेहतर प्रशासक व विकास पुरुष के रुप में प्रतिस्थापित करने का अभियान संचालित कर रहे हैं।
    नरेन्द्र के आलोचक या विरोधी केवल विपक्षी दलों में ही नहीं भाजपा में भी हैं। लाल कृष्ण आडवाणी जैसे कुछ खुलकर बोल रहे हैं तो कुछ इशारों में अपनी असहमति जता रहे हैं। वैसे भाजपा के कुछ नरेन्द्र विरोधी ऐन मौके पर समर्थन का सुर अलापने लगे। बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने ऐसा ही किया। गुजराती मोदी व बिहारी मोदी के छत्तीस का आँकड़ा अब तिरसठ के आँकड़े में बदल गया। सुशील जैसे नेता नरेन्द्र की लहर के सामने नतमस्तक होकर भविष्य की राजनीति में अपनी अपरिहार्यता को बनाये रखना चाहते हैं। यों एक और सच्चाई यह है कि काँग्रेस व अन्य विरोधी दलों में भी नरेन्द्र समर्थक मौजूद हैं और वे नरेन्द्र की लहर पर ही सवार होकर अपनी डूबती नैया को पार लगाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। काँग्रेस की नैया डूबोने में महंगाई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, इसमें कोई संशय नहीं। इधर नरेन्द्र के नाम की घोषणा भाजपा ने की और उधर काँग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने पेट्रोल की कीमत बढ़ा दी। वैसे रुपये का गिरता मूल्य और भ्रष्टाचार भी केन्द्र सरकार में शामिल काँग्रेस समेत अन्य दलों को मझधार में डूबोने के लिए पर्याप्त हैं।
    जहाँ तक आडवाणी को नजरअन्दाज करने की बात है तो इस सम्बन्ध में सुषमा स्वराज की बातों को मानें तो वे नरेन्द्र के नाम की घोषणा से गुस्से में नहीं हैं। अगर हैं भी तो उन्हें राजनीति की नयी फसल को आगे आने देने में आना-कानी के बदले सहयोग ही करना चाहिये। नरेन्द्र की ताकत को दिल्ली में घोषित छात्रसंघ के चुनाव परिणाम से भी जोड़कर देखा जा रहा है। इसमें भाजपा समर्थित छात्रसंघ की जीत हुई। लोकसभा निर्वाचन में यदि नरेन्द्र अपने बुते 273 के जादुई आँकड़े को छू लेते हैं तब तो बात बनेगी। पर, यह आज की परिस्थिति में संभव नहीं लगता। यदि भाजपा इस आँकड़े से दूर रहती है तो फिर राजग गठबंधन की याद आयेगी जो नरेन्द्र के कारण ही बिखरा। तब एक बार फिर राजग को विस्तारित करने के लिए वह कौन-सा चेहरा सामने लाया जायेगा जिसको लेकर भाजपा आगे बढ़ेगी?

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

साकेत अदालत ने फैसला सुनाया : चारों दोषियों को फांसी की सजा




प्रस्तुति: शीतांशु कुमार सहाय
आखिरकार 16 दिसम्बर 2012 की रात को दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में पारा मेडिकल की एक छात्रा से सामूहिक दुष्कर्म कर मरणासन्न स्थिति में छोड़ने वाले बचे 4 बालिग दुष्कर्मियों को न्यायालय ने आज शुक्रवार 13 सितम्बर को मौत की सजा सुनाई। 1200 पन्नों की चार्जशीट, 86 गवाहियां और 243 दिनों की सुनवाई के बाद आखिरकार वह फैसला आ गया जिसका इंतजार पूरे देश को था। एडिशनल सेशन जज योगेश खन्ना ने साकेत अदालत के कमरा नंबर 304 में सजा सुनाई। इससे पहले मंगलवार को ही चारों दोषियों को 13 धाराओं में दोषी करार दिया था। बुधवार को सजा पर बहस के बाद फैसला आज शुक्रवार 13 सितम्बर के लिए सुरक्षित रख लिया गया था। मामले के नाबालिग आरोपी को 3 साल की सजा सुनाई जा चुकी है जबकि एक अन्य आरोपी राम सिंह तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर चुका है। ज्योति के हत्यारे चारों दरिंदों मुकेश शर्मा, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और पवन गुप्ता को दिल्ली की साकेत अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है। अदालत ने मामले को 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' श्रेणी में रखते हुए यह फैसला सुनाया। जैसे ही जज ने फैसला सुनाया कोर्ट परिसर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
फांसी दिए जाने के पक्ष में थे कई नेता
बीजेपी नेता सुषमा स्वराज, कांग्रेस नेता अंबिका सोनी और पूर्व गृह सचिव आरके सिंह समेत कई नेता और हस्तियां दोषियों को फांसी दिए जाने के पक्ष में थे। खुद गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी फांसी की उम्मीद जताते हुए कहा था कि भविष्य में भी ऐसे मामलों में फांसी की सजा ही होगी।
ज्योति और अवनींद्र की गवाही रही अहम
इस मामले में 2 गवाहियां बेहद अहम रहीं। एक खुद ज्योति की और दूसरी उसके दोस्त और घटना के एकमात्र चश्मदीद अवनींद्र पांडेय की। मौत से पहले अस्पताल में जब ज्योति से पूछा गया था कि दोषियों के लिए वह क्या सजा चाहती है, तो उसने फांसी की मांग की थी। फिर अगले ही क्षण उसने कहा था कि दोषियों को जिंदा जला देना चाहिए। इसके अलावा अदालत में जो सबूत पेश किए गए, उनमें शामिल हैं, वह बस जिसमें वारदात को अंजाम दिया गया था, दोषियों की बस का सीसीटीवी फुटेज, दोषियों के खून से सने कपड़े, डीएनए सैंपल, फॉरेंसिक और मेडिकल रिपोर्ट।
देश को याद रहेगा 16 दिसंबर
16 दिसंबर, 2012 की रात वसंत विहार के पास चलती बस में ज्योति के साथ गैंगरेप और दरिंदगी की गई थी, जिसके बाद आक्रोशित भीड़ ने दिल्ली और देश भर के इलाकों में कई दिनों तक जोरदार प्रदर्शन किए थे। 23 वर्षीय फीजियोथैरेपी की छात्रा ने 13 दिन तक अस्पताल में मौत से संघर्ष करते हुए सिंगापुर के अस्पताल में दम तोड़ दिया था।
घटना की रात 'लाइफ ऑफ पाई'
घटना की रात ज्योति अपने दोस्त अवनींद्र के साथ 'लाइफ ऑफ पाई' फिल्म देखकर निकली थी। दोनों ने मुनिरका से एक चार्टर्ड बस ली थी। इसी बस में छह लोगों ने छात्रा से गैंगरेप और दरिंदगी की। ज्योति के शरीर में रॉड डाल दी गई और अवनींद्र को बुरी तरह पीटा गया। बाद में बेसुध हालत में दरिंदों ने दोनों को सड़क पर रखा और उन्हें कुचलकर मारने की कोशिश की। हालांकि वे दोनों बच गए और काफी देर बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया।
फैसला सुन वकील ने पीटी मेज
जज ने फैसला सुनाने में ज्‍यादा वक्‍त नहीं लिया और कहा कि वह सीधे धारा-302 की बात कर रहे हैं। इसके ठीक बाद उन्‍होंने चारों दोषियों को फांसी की सजा सुना दी। सजा सुनते ही ज्‍योति की मां की आंखों से आंसू छलक आए जबकि बचाव पक्ष के वकील ने गुस्‍से में अपने सामने रखी मेज पर जोर से हाथ पटका। जज फैसला सुनाकर जाने लगे और दोषियों के वकील चिल्लाते रहे कि यह अन्‍याय है। चारों दोषियों और उनके वकीलों को छोड़कर कोर्ट में मौजूद हर शख्‍स बेहद खुश था। सबने जोरदार तालियां बजाकर फैसले पर खुशी जताई।
वकील का आरोप, सरकार के दबाव में सुनाई गई सजा

कोर्ट से बाहर आने के बाद बचाव पक्ष के वकील एपी सिंह ने आरोप लगाया कि सरकार के इशारे पर यह फैसला लिया गया और इसमें सीधे गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे की भूमिका थी। उन्‍होंने कहा- 'सरकार के इशारे पर फैसला लिया गया। तथ्‍यों और गवाहों की अनदेखी करते हुए बिना सोचे-समझे जज ने सबको फांसी की सजा सुना दी है। फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए मेरे पास 3 महीने का समय है, अग इस दौरान दिल्‍ली और देश में रेप की कोई वारदात नहीं होती तो मैं अपील नहीं करूंगा। वरना इस फैसले को तार-तार कर दूंगा।'
देश की जनता की जीत : सरकारी वकील
सरकारी वकील ने फैसले पर खुशी जताते हुए कहा कि यह पूरे देश की जनता की जीत है। उन्‍होंने कहा- 'सही मायने में न्याय की जीत हुई है। दोषी फैसला सुनकर चुप थे। आज रूल ऑफ लॉ मजबूत हुआ है। सारे भारतवासी और 16 दिसंबर के आंदोलनकारी सब खुश हैं। इस फैसले में सबका योगदान है। डिफेंस लॉयर के आरोप बिल्कुल गलत है। पर्याप्‍त सबूत थे। धनंजय चटर्जी और कहर सिंह के केस को भी रेयरेस्ट ऑफ रेयर माना गया थो तो यह केस तो और भी दुर्दांत था। न्याय की यही मांग थी। लड़की के माता-पिता ने कहा कि मीडिया को भी धन्यवाद कीजिएगा।
आज पूरी हुई देश की मुराद
सभी आरोपियों को दोषी ठहराए जाने पर ज्योति के मां और पिता ने खुशी जताई थी। साथ ही यह भी कहा था कि फांसी से कम कोई भी सजा उनके जख्म नहीं भर सकती। फैसला सुनाए जाने से पहले और बाद में भी देशभर में दरिंदों को फांसी की मांग करते हुए प्रदर्शन हुए थे।
अक्षय के परिवार ने फैसले पर उठाया सवाल
वहीं दिल्ली गैंग रेप पर फैसला आते ही दोषी अक्षय ठाकुर के परिवार ने इस फैसले पर सवाल उठा दिया। बिहार के औरंगाबाद के रहने वाले अक्षय ठाकुर की पत्नी ने फैसले को गलत ठहराया है। पत्नी नमिता के मुताबिक इस फैसले के पहले अदालत को उसके और उसके ढाई साल के बच्चे के बारे में भी सोचना चाहिए था। नमिता ने कहा कि वो भी भारत की बेटी है और उसके भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए था। उधर अक्षय ठाकुर के भाई विनय ने कहा कि वो ऊपरी अदालत से लेकर राष्ट्रपति तक इस फैसले के खिलाफ जाऐंगे। जैसे ही ये फैसला आया परिवार में कोहराम मच गया जहां एक तरफ पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल था तो मां बार-बार बेहोश हो रही थी।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आश्चर्य किन्तु सच : राष्ट्रभाषा नहीं है हिन्दी


शीतांशु कुमार सहाय
    महात्मा गाँधी भारत के राष्ट्रपिता नहीं हैं और स्वाधीनता संग्राम के दौरान फाँसी पर झूलने वाले भगत सिंह शहीद नहीं हैं, जैसे कड़वे सच की पंक्ति थोड़ी और लम्बी हो गयी। इसमें शामिल हुआ नवीनतम सच भी प्रत्येक भारतीयों को नागवार गुजरेगा। वह कड़वा सच यह है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है ही नहीं जबकि अधिकांश लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानते हैं। देश की अधिकतर लोग हिन्दी समझते, बोलते व लिखते हैं। विश्व में चीनी के बाद हिन्दी ही दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दीभाषी हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि विश्व की सभी भाषाओं को हिन्दी में बिल्कुल उसी भाषा की वर्तनी व उच्चारण की शैली में लिखा जा सकता है। उत्तर व मध्य भारत में हिन्दी ही प्रधान भाषा है। देश के दक्षिणी राज्यों में भी हिन्दी बोली-समझी जाती है। फिर भी इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला। लखनऊ की सूचना अधिकार कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा को सूचना के अधिकार के तहत भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा मिली सूचना के अनुसार, भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 के तहत हिन्दी भारत की ‘राजभाषा’ यानी राजकाज की भाषा मात्र है। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख है ही नहीं।
    दरअसल, यह राज अब तक केन्द्र की सत्ता में रहने वाली सरकारों ने जनता से छिपाया। केन्द्रीय सत्ता पर सर्वाधिक अवधि तक रहने का मौका मिला है काँग्रेस को। देश की आजादी में अहम् योगदान निभाने का श्रेय लेने वाली काँग्रेस को महात्मा गाँधी, भगत सिंह व अब हिन्दी की बेइज्जती का भी श्रेय लेना ही पड़ेगा। महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता, भगत सिंह को शहीद व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में यदि संवैधानिक समस्याएँ हैं तो उन्हें दूर करने के लिए संविधान में संशोधन का भी प्रावधान तो है। सरकार को यह बताना चाहिये कि किस दबाव के कारण ऐसा नहीं किया जा रहा है? आखिर केन्द्र सरकार कैसे कार्य करती है कि उसके पास किये गये कार्यों के रिकॉर्ड ही नहीं रहते। घोटाले की जाँच हो रही हो तो संचिकाएँ गायब हो जाती हैं। कोयला घोटाले में ऐसा ही हुआ है।
    जहाँ तक रिकॉर्ड की बात है तो उर्वशी को विदेश मंत्रालय के निदेशक मनीष प्रभात ने 21 फरवरी को लिखे पत्र में बताया कि वर्ष 1947 से वित्तीय वर्ष 1983-84 तक विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जानकारी भारत सरकार के पास उपलब्ध ही नहीं है। निश्चय ही यह दुखद है। विदेश में हिन्दी प्रसार की जानकारी देने के लिए उर्वशी की सूचना की अर्जी प्रधानमंत्री कार्यालय से गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग, राजभाषा विभाग से विदेश मंत्रालय और विदेश मंत्रालय से वित्त मंत्रालय को स्थानांतरित की जा रही है। साथ ही राजभाषा विभाग से मानव संसाधन विकास मंत्रालय और अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय से केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, केंद्रीय हिंदी संस्थान मैसूर और केंद्रीय हिंदी निदेशालय नई दिल्ली के जन सूचना अधिकारियों के पास उर्वशी की अर्जी लंबित है।

    भारत सरकार द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, वित्तीय वर्ष 1984-85 से वित्तीय वर्ष 2012-2013 की अवधि में विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार द्वारा सबसे कम 5,62,000 रुपये वर्ष 1984-85 में, सर्वाधिक 68,54,800 रुपये वर्ष 2007-08 में, वर्ष 2012-13 में (अगस्त 2012 तक) 50,00,000 रुपये खर्च किये गये थे।
    हिन्दी के नाम पर वक्तव्य देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मानने वाली मनमोहन सिंह की सरकार के पास विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की 36 वर्षों की कोई जानकारी ही नहीं है। काँग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार 7 महीनों बाद भी देश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जानकारी नहीं दे पायी है। ...तो सरकारी कार्य-शैली व हिन्दी दोनों की जय बोलिये!

पाकिस्तान को झटका : सबसे खतरनाक नगर कराची


शीतांशु कुमार सहाय
    पाकिस्तान को ममनून हुसैन के रूप में नया राष्ट्रपति मिला है। इससे वहाँ खुशी का माहौल है। पर, इसी हँसी-खुशी के बीच पाकिस्तान के लिए एक बुरी खबर आ गयी। उसके सबसे बड़े औद्योगिक नगर कराची को विश्व का सबसे खतरनाक नगर बताया गया है। यों खुशी के बीच गम की चाशनी घुल गयी और माहौल कुछ गमगीन हो गया। अमेरिका की पत्रिका ‘फॉरेन पॉलिसी’ ने इसी माह एक रिपोर्ट प्रकाशित की। रिपोर्ट में पाकिस्तान की आर्थिक राजधानी कराची को विश्व का सबसे खतरनाक शहर बताया गया है। यहाँ प्रत्येक 1,00,000 निवासियों पर हत्या की दर 12.3 है और यह दर विश्व के किसी भी बड़े नगर से 25 प्रतिशत तक अधिक है।
    केवल स्थानीय अपराधियों की ही नहीं; कराची में इन दिनों आतंकियों की भी कई सुरक्षित शरणस्थलियाँ हैं। अब यहाँ तालिबानियों ने भी अपनी पैठ बना ली है। यों हाल ही में बिहार से गिरफ्तार दुर्दान्त आतंकी भटकल ने बताया कि उसके आतंकी संगठन इण्डियन मुजाहिद्दीन का मुख्यालय कराची में ही है। कराची की इस दुर्गति के पीछे पाकिस्तान सरकार की गलत नीति भी जिम्मेदार है। उसका राष्ट्रीय गुप्तचर संगठन इण्टर सर्विस इण्टेलिजेन्स (आईएसआई) ही आतंकियों को प्रशिक्षण व संरक्षण दे रहा है। भटकल ने भी कहा है कि उसके संगठन के मुख्यालय की सुरक्षा आईएसआई ही करती है। ‘फॉरेन पॉलिसी’ के अनुसार, कराची में तालिबान की मौजूदगी बढ़ रही है जो अपराध व तस्करी का रैकेट चलाता है। यहाँ अन्य बड़े नगरों की तुलना में हत्या की दर करीब 25 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 2000 से 2010 के बीच कराची की आबादी 80 प्रतिशत से अधिक बढ़ी है। आबादी बढ़ने की यह रफ्तार न्यूयॉर्क से भी अधिक है। आबादी बढ़ने का कारण यह है कि वर्ष 2003-13 के दशक में आतंकवाद से जूझ रहे लाखों लोग पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम को छोड़कर कराची में शरण ली। काम की तलाश में यहाँ आये प्रवासियों की बड़ी तादाद ने नगर की स्थिति को खराब कर दिया है। इस कारण कराची सबसे खतरनाक शहर बन गया है।
    पाकिस्तान का सबसे बड़ा नगर और सिन्ध प्रान्त की राजधानी है कराची। यह अरब सागर तट पर स्थित पाकिस्तान का सबसे बड़ा बन्दरगाह भी है। उपनगरों को मिलाकर यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा नगर है जो 3527 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इसकी ज़िन्दादिली की वजह से पाकिस्तान में इसे ‘रौशनियों का शहर’ और क़ैद-ए-आज़म जिन्ना का निवास स्थान होने की वजह से इसे ‘शहर-ए-क़ैद’ भी कहते हैं। रौशनियों के बीच कराची में अपराध व अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की कालिमा फैल रही है। समय रहते पाकिस्तान को सतर्क होना चाहिये वरना वह दिन दूर नहीं जब वह विश्व विरादरी से अलग-थलग हो जाएगा। अमेरिकी पत्रिका की रपट के अनुसार, वर्ष 2011 में मुंबई (भारत) में जहाँ 202 हत्याएँ हुईं, वहीं कराची में वर्ष 2011 में 1723 व वर्ष 2012 में 2000 से अधिक हत्याएँ हुईं। यों शिया व सुन्नी के विवाद ने भी कराची को विश्व में बदनाम किया है। राष्ट्रपति ममनून हुसैन व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को चाहिये कि वे इस बदनामी को खत्म करें।

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

पाक-भारत रिश्ता : ममनून से भारत को अपेक्षा


शीतांशु कुमार सहाय

    चाहे पाकिस्तानी आतंकवादी जितने विष घोल दें फिजाओं में पर भारत व पाकिस्तान के पुश्तैनी रिश्ते को न नकार सकते हैं और न ही इस रिश्ते की गहरी जड़ को  तबाह कर सकते हैं। आज ही नहीं; बल्कि जब तक भारत व पाकिस्तान की बुनियाद रहेगी तब तक दोनों देशों के निवासियों के बीच पारिवारिक रिश्तेदारी जारी रहेगी। इन दिनों दोनों देशों के सत्ता व विपक्ष में कई ऐसे बड़े नेता हैं जिनके सम्बन्धी दोनों देशों में हैं। सोमवार को पाकिस्तान के 12वें राष्ट्रपति बने हैं ममनून हुसैन। ये जन्मजात भारतीय हैं। भारत के ऐतिहासिक शहर आगरा में 1940 में जन्मे और 1947 में बँटवारे के समय भारत से पाकिस्तान के कराँची में जा बसे।
    इसी तरह भारत के प्रधान मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह का जन्म 1932 में पाकिस्तानी पंजाब प्रान्त में हुआ था। बँटवारे के समय इनका परिवार भारत में आ बसा। यों भारतीय जनता पार्टी के नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी का जन्म पाकिस्तान के कराँची में 1927 में हुआ था। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी जन्म से भारतीय हैं। इतना अधिक लगाव फिर भी पारम्परिक शत्रु बने हैं एक-दूसरे के! यह शत्रुता वास्तव में अन्ध धार्मिकता व आतंकियों की देन है। पर, अब पाकिस्तान के नये राष्ट्रपति ममनून हुसैन से सर्वाधिक अपेक्षा भारत को है कि वे अपनी जन्मभूमि का कर्ज उतारें और भारत से बेहतर रिश्ता बनाएँ। समूचा विश्व जानता है कि ये दो परमाणु शक्ति वाले देशों के रिश्ते यदि सुधर गये तो भारतीय उपमहाद्वीप की तरफ किसी महाशक्ति को भी टेढ़ी नजर डालने में घबराहट होगी। इस कारण भी चीन, ब्रिटेन, अमेरिका या अन्य कई देश दोनों के बीच सौहार्द नहीं बनने देते। वैसे कई कमियाँ दोनों रिश्तेदार देशों के नेताओं में भी हैं। इन्हें आपस में ही दूर किया जा सकता है। दोनों मिल जाएँ तो दोनों देशों से आतंकवादियों का भी सफाया तय है। पर, कतिपय राजनीतिक हित साधने के लिए पाकिस्तान आतंकियों को बढ़ावा दे रहा है। तभी तो उसके महानगर कराँची को सबसे बड़ा आतंकी ठिकाना बताया गया है।
    उम्मीद है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति ममनून अपने को पाक साबित करते हुए भारत से मित्रता की नयी परिभाषा गढ़ेंगे! वे केवल कराँची के चर्चित वस्त्र व्यवसायी ही नहीं; बेहतर राजनीतिज्ञ भी हैं। तभी तो उन्होंने 30 जुलाई को हुए राष्ट्रपति निर्वाचन में सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन (पीएमएल-एन) के उम्मीदवार के रूप में 73 वर्षीय ममनून ने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के उम्मीदवार पूर्व न्यायाधीश वजीहुद्दीन अहमद को हराया। वे प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के काफी करीबी हैं। नवाज ने उन्हें सिन्ध प्रान्त का राज्यपाल बनाया था। वह 19 जून से 12 अक्तूबर 1999 तक इस पद पर रहे। शरीफ के खिलाफ मुशर्रफ के सैन्य तख्तापलट के कारण वे पद छोड़ने को मजबूर हुए थे। 1960 के दशक में कराँची के इन्स्टीट्यूट ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन से स्नातक व कराँची चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज के प्रमुख रहे ममनून भारतीय अपेक्षा पर कितना सफल होते हैं यह शीघ्र ही पता चल जाएगा।

सोमवार, 9 सितंबर 2013

तुर्क लुटेरे बख्न्तियार खिलजी ने जलाया नालंदा विश्वविद्यालय को



शीतांशु कुमार सहाय


उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र
नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र था। इस विश्वविद्यालय में विभिन्न धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। इस विश्वविद्यालय की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा की गई थी। इस महान विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके वैभव का अहसास करा देते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में अपने जीवन का एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में यहां व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था। प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी। अत्यंत प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और बौद्ध संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।
तीन श्रेणियों के आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे। ये श्रेणियां योग्यतानुसार बनाई गई थीं। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी उपलब्ध है, वे हैं:- दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। विद्वान बताते हैं कि उनका एक अन्य ग्रंथ आर्यभट्ट सिद्धांत था। इसके आज मात्र 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का 7वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2000 थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग आया था, 10,000 विद्यार्थी और 1510 आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
सुनियोजित विश्वविद्यालय
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन दुनिया का संभवत: पहला विश्वविद्यालय था, जहां न सिर्फ देश के, बल्कि विदेश से भी छात्र पढ़ने आते थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ने 450-470 ई. के बीच की थी। पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में स्थापित इस विश्वविद्यालय में तब 12 हजार छात्र और 2000 शिक्षक हुआ करते थे। गुप्तवंश के पतन के बाद भी सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। लेकिन एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव के तुर्क लुटेरे ने नालंदा विश्वविद्यालय को जला कर इसके अस्तित्व को पूर्णत: नष्ट कर दिया।
बख्न्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगवाया
नालंदा विश्वविद्यालय को एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाले तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने 1199 ई. में जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था। ऐसा कहा जाता है कि बख्तियार खिलजी एक बार बहुत बीमार पड़ गया। उसके हकीमों ने उसे ठीक करने की पूरी कोशिश की, मगर वह स्वस्थ नहीं हो सका। किसी ने उसे नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज कराने की सलाह दी। उसे यह सलाह पसंद नहीं आई। उसने सोचा कि कोई भारतीय वैद्य उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान कैसे रख सकता है और वह किसी काफ़िर से अपना इलाज क्यों करवाए। फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा। जब वैद्यराज इलाज करने पहुंचे तो उसने उनके सामने शर्त रखी कि वह उनके द्वारा दी कोई दवा नहीं खाएगा, लेकिन किसी भी तरह वह ठीक करे, वर्ना मरने के लिए तैयार रहे। बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई, बहुत उपाय सोचा और अगले दिन उस सनकी बख्तियार खिलजी के पास कुरान लेकर गए। उन्होंने कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या इतने से इतने तक पढ़ लीजिये, आप ठीक हो जाएंगे! पुस्तक को पढ़ते समय खिलजी थूक लगाकर पलटता था। यह बात श्रीभद्र को मालूम थी। वैद्यराज राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था। वह थूक के साथ मात्र 10-20 पेज दवा चाट गया और ठीक हो गया। उसने इस एहसान का बदला नालंदा विश्वविद्यालय को जला करके दिया। उसे बड़ी झुंझलाहट हुई और गुस्सा आया कि उसके हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है? बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने व वैद्य को पुरस्कार देने के बदले बख्न्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दी। उसने पुस्तकालयों को भी जला कर राख कर दिया। वहां इतनी पुस्तकें थी कि आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू-धू करके जलती रहीं। यही नहीं, उसने अनेक धर्माचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला।
नालंदा विश्वविद्यालय का अवसान
13वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।

रविवार, 8 सितंबर 2013

राहुल का गुणगान: घुटनों के बल मनमोहन


शीतांशु कुमार सहाय
    अपनी प्रतिभा व स्वभाव के अनुकूल कार्य करते कभी नजर नहीं आये प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह। प्रधान मंत्री के रूप में उन्होंने लगातार ऐसे निर्णय लिये हैं जो आलोचनाओं के शिकार रहे हैं। जिस प्रकार उनका हँसता हुआ चित्र दुर्लभ है, उसी तरह विवादरहित उनके निर्णय भी दुर्लभ हैं। समझ में नहीं आता कि विवादित निर्णय अथवा वक्तव्य उनका अपना होता है या कोई ‘ऊपरी दबाव’ का प्रभाव कार्य कर रहा होता है। इस दबाव का ही असर उन पर दीखता है। दबाव सहते हुए दबी जुबान में कुछ ऐसा कह जाते या कर जाते हैं कि लगता ही नहीं कि संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र का प्रधान मंत्री कुछ कह या कर रहा है! इस बार तो उन्होंने हद ही कर दी। रूस से स्वदेश लौटने के दौरान विशेष विमान में उन्होंने ऐसी विशेष बात कह डाली कि वह समाचारों के बीच सुर्खियों में रही, समाचार पत्रों में लीड बनी और विश्लेषकों के बीच मुद्दे के रूप में छायी रही।
    दरअसल, मनमोहन को काँग्रेसी नीति का पाठ अब याद हो गया है। काँग्रेसी नीति यह रही है कि चाहे कोई कितना भी उम्रदराज हो, प्रतिभा-योग्यता के सम्बन्ध में विश्व कीर्तिमानधारक हो पर उसे इन्दिरा परिवार के आगे जी-हुजुरी करनी ही पड़ेगी। इसी काँग्रेसी परम्परा का निर्वाह करते हुए प्रधान मंत्री को कहना पड़ा कि 2014 के लोकसभा निर्वाचन के बाद वे राहुल गाँधी के नेतृत्व में कार्य करेंगे। राहुल के अधीन रहकर उन्हें गर्व महसूस होगा। मतलब यह कि मनमोहन के माध्यम से काँग्रेस ने अपने प्रधान मंत्री के प्रत्याशी की अघोषित-घोषणा कर दी। ऐसी स्थिति में उन्हें राहुल के लिए जगह खाली करनी पड़ेगी। लिहाजा उन्हें स्वीकारना ही पड़ा कि वे तीसरी बार प्रधान मंत्री नहीं बनना चाहते। घुटनों के बल झूकने वाला यह व्यक्तित्व प्रधान मंत्री ने पहली बार पेश नहीं किया है। उनके घुटने टेकने की फेहरिश्त लम्बी है।
    लगता है कि इस वक्तव्य के समय मनमोहन सिंह में काँग्रेसी भावना जाग गयी! वे अपने को केवल काँग्रेसी मान बैठे। वे भूल गये कि वे देश के प्रधान मंत्री भी हैं। पर, एक बात तो सच है कि इस वक्तव्य से प्रधान मंत्री की गरिमा को भारी ठेस लगी है। प्रधान मंत्री द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव के बाद काँग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के अधीन काम करने की इच्छा जताये जाने संबंधी बयान की भारी आलोचना हो रही है। इस बहाने सबसे ताकतवर संवैधानिक पदधारी द्वारा काँग्रेस ने यह कहवा लिया कि प्रधान मंत्री के रूप में सबसे योग्य हैं राहुल। अब देखना है कि गरीब देश में गरीबी को मन का फितूर मानने वाले राहुल को प्रधान मंत्री के पद तक पहुँचाने में कितना सहयोग दे पाते हैं मनमोहन।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

झारखण्ड में पर्यटन : सम्भावनाएँ अपार पर सब बेकार


शीतांशु कुमार सहाय
    बिहार से अलग होने के बाद भी झारखण्ड में विकास का सूर्य चमकता हुआ नहीं दीख रहा है। अन्य मन्थर विकास की तरह ही पर्यटन क्षेत्र में भी विकास का नकारात्मक पहलू ही नजर आ रहा है। राज्य में इस क्षेत्र में सम्भावनाएँ अपार हैं पर सब बेकार! सम्भावनाओं को राज्य की सरकार अवसर में परिवर्तित नहीं कर पा रही है। विस्तृत वन प्रदेश, विभिन्न खनिजों के खानों की प्रचुरता, सुरम्य पठारी क्षेत्र, अन्य आकर्षक प्राकृतिक दृश्य और प्राचीन मन्दिरों-स्मारकों से भरपूर यह प्रदेश इन सबको पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित न कर सका। झारखण्ड में चारों ओर हरे-भरे जंगलों की भरमार है। एक ओर छोटे-बड़े जलप्रपात हैं, तो दूसरी ओर छऊ जैसी विश्वस्तरीय युद्ध कला, मान्दर की थाप और बाँसुरी की सुरीली धुन मौजूद है। इन संसाधनों की बदौलत राज्य के पर्यटन व्यवसाय को प्रगति की ओर ले जा सकते हैं। राज्य सरकार पर्यटन को लेकर लम्बा-चौड़ा दावा करती रहती है। कभी किसी एक स्थल को तो कभी दूसरे स्थल को पर्यटन स्थल घोषित कर विकास के लिए पैसे दिये गये लेकिन कुछ नहीं हुआ। राज्य में पर्यटन विभाग का पूरा अमला ही बेकार है। राज्य सरकार पुराने पर्यटक स्थलों की सुरक्षा व रख-रखाव ठीक से नहीं कर पा रही है। पर्यटन विभाग के होटल को ही देखें तो असलियत सामने आ जायेगी। करोड़ों खर्च कर बने होटल को निजी एजेन्सी को सौंपने की तैयारी चल रही है। हटिया डैम में करोडों रुपये खर्च कर नौके मँगाये गये थे, जो जहाँ-तहाँ पडे़ हैं। इधर टैगोर हिल की स्थिति और जर्जर हो गयी है। हुण्डरू में बने अतिथिशाला की स्थिति भी गंभीर है तो दशम फॉल का आकर्षण घटता ही जा रहा है। इसमें झारखण्ड राज्य बनने के बाद भी सुरक्षा के अभाव में पर्यटकों के डूबने का सिलसिला जारी है।
    राज्य के अधिकतर पर्यटन स्थलों पर चाहकर भी पर्यटक रात में ठहरने से घबराते हैं। इसका प्रधान कारण है कि पर्यटकों की हिफाजत की कोई व्यवस्था नहीं है। झारखण्ड में अधिकतर जल प्रपात व सुरम्य प्राकृतिक-पठारी क्षेत्र नक्सल प्रभावित इलाकों में हैं। यहाँ के जंगल व पहाड़ पर नक्सलियों का बसेरा है। दुर्गम इलाके में इनकी ही समानान्तर सरकार चलती है। कई बार पर्यटन विभाग ने गाँव में युवकों को जागरूक करने का प्रयास किया लेकिन असफल रही। अब तो राज्य सरकार नक्सली क्षेत्रों में पर्यटकों को सुरक्षा देने पर चर्चा भी नहीं करती है। पर्यटन के क्षेत्र में राज्य सरकार की नाकामी का आलम यह है कि यहाँ पर्यटन की 19 योजनाएँ बंद हो गयी हैं। ये योजनाएँ जमीन के अभाव में बंद हुई हैं। पर्यटन विभाग ने संबधित जिलों के उपायुक्तों से जमीन उपलब्ध कराने का आग्रह किया था पर इस दिशा में कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया। इन योजनाओं पर 13.29 करोड़ रुपये की राशि खर्च होने वाली थी। बन्द होने वाली योजनाओं में पूरे झारखण्ड को पर्यटन वृत्त व देवघर को पर्यटन का मुख्य केन्द्र बनाने की योजना शामिल थी। लोहरदगा तमाड़ में पर्यटन केन्द्र, पुराना पलामू किला पिकनिक स्पॉट, नया पलामू किला ट्रेकिंग सुविधा, मिरचियाँ फॉल पिकनिक स्पॉट बेतला, सुगाबाँध पिकनिक स्पॉट बेतला, चाण्डिल रिसॉर्ट, पंचघाघ का सम्पूर्ण पर्यटन विकास, हटिया डैम टूरिस्ट हट एवं भूमि विकास, दशम फॉल का समग्र विकास, हजारीबाग पर्यटन केंद्र और देवघर पर्यटन सर्किट से सम्बद्ध योजनाएँ अनन्त काल के लिए स्थगित कर दी गयीं। देवघर पर्यटन सर्किट के तहत देवघर में बुद्ध पार्क, होटल वैद्यनाथ विहार, होटल नटराज विहार, होटल वासुकि विहार और हजारीबाग में कैनहरी हिल, चरवा डैम की योजनाएँ भी बंद हुई हैं। दशम फॉल में नागरिक सुविधा केन्द्र, सीढ़ी निर्माण व शेड निर्माण की योजनाएँ जमीन के अभाव में बंद करनी पड़ी हैं।
    भले ही कई पर्यटन योजनाएँ बन्द हो गयीं पर इस क्षेत्र में सम्भावनाएँ अपार हैं। बेतला राष्ट्रीय उद्यान, सारण्डा, तिलैया डैम व हुण्डरू जल प्रपात के नाम से ही पर्यटक रोमान्चित हो उठते हैं पर सुविधाहीन ये स्थल नाम के अनुसार आय अर्जित करने में नाकाम हैं। बेतला राष्ट्रीय उद्यान को बेतला वन घोषित किया गया है जो केच्की से नेतरहाट तक 753 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में फैला है। बेतला में 970 प्रजातियों के पौधे, 174 प्रजातियों के पक्षी, 39 प्रकार के स्तनधारी और औषधीय पौधे की 180 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यों सारण्डा वन एशिया का सबसे बड़ा व घना वन है जिसमंे उड़नेवाली छिपकली भी पायी जाती है। यह वन साहसिक व पारिस्थितिकी के प्रति उत्साही पर्यटकों के लिए बड़े आनन्द की जगह है। इसी तरह तिलैया डैम का खूबसूरत प्राकृतिक वातावरण आकर्षित करता है। परम्परागत पर्यटनों के अलावा पर्यटन के नये क्षेत्रों को भी विकसित किया जाना चाहिये। खनिजों के मामले में भारत का सबसे अमीर राज्य है झारखण्ड। यहाँ खनन पर्यटन को दक्षिण अफ्रीका व ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर बढ़ावा दिया जा सकता है। हेरिटेज पर्यटन के लिए प्राचीन स्मारकों, रजवाड़ों के किले, ऐतिहासिक भवनों व स्थलों को विकसित किया जाना चाहिये। इसी तरह धार्मिक पर्यटन, जनजातीय पर्यटन, ग्रामीण पर्यटन और पठारी भागों में एडवेंचर टूरिज्म की तमाम सम्भावनाओं को विकसित कर राज्य की आय व रोजगार में वृद्धि की जा सकती है। साथ ही सड़कों की खस्ता हालत में सुधार व व्यापक स्तर पर सुरक्षा की व्यवस्था भी अनिवार्य है।

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

सरकार फूँके, जनता सूँघे




शीतांशु कुमार सहाय
    जिससे जनता का सीधा जुड़ाव होता है उसकी कीमत बढ़ाने में सरकार कोई संकोच नहीं करती। काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की केन्द्र सरकार की अक्षम आर्थिक नीतियों के चलते प्रतिदिन महंगाई बढ़ रही है। अब सरकार केवल वैसी मुख्य वस्तु की कीमत बढ़ा रही है जिससे स्वतः सभी वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाएँ। ऐसी मुख्य वस्तुओं में तेल यानी पेट्रोल व डीजल शामिल हैं जो वर्तमान अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। सड़क परिवहन का मुख्य आधार तेल ही है। लिहाजा कहीं जाना और माल की ढुलाई स्वतः महंगी हो जाती है। यों दैनिक आवश्यकताओं की विभिन्न वस्तुओं की कीमतें आकाश छूने लगती हैं। तेल से सम्बद्ध कई सेवाएँ भी महंगी हो जाती हैं। संप्रग सरकार लगातार कीमतें बढ़ा रही है। तेल की कीमत बढ़ाकर वह 80 रुपये प्रति लीटर के निकट ले आयी है। सरकारी अमला तो बेतहाशा तेल जला रहा है मगर जनता को सरकार ने नसीहत दी है कि वह तेल कम-से-कम खपत करे। आश्चर्य है कि जो स्वयं नियम का उल्लंघन कर रहा है, वह दूसरों को कायदे में रहने की सलाह देने से बाज नहीं आ रहा है! सरकारी ओहदों पर बैठे नेता व अधिकारी तेल को पानी की तरह बहा रहे हैं। मंत्री, उनके कर्मी, केंद्रीय व राज्य सरकारों के कर्मियों के अलावा अन्य सरकारी विभागों में तेल के खर्च की कोई सीमा नहीं है। रुपये की घटती कीमत से खाली होते सरकारी खजाने ने सरकार को चिन्ता में डाल दिया है। तेल की खपत कम करने के उपायों पर चर्चा के लिए सरकार माथापच्ची कर रही है। इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बैठक में उस अभियान पर चर्चा हुई है जिसके तहत पेट्रोलियम मंत्रालय 16 सितम्बर से पेट्रोल व डीजल की खपत कम करने के लिए लोगों को जागरूक करने पर विचार कर रहा है।
    दरअसल, केन्द्र सरकार का मानना है कि तेल की यदि 3 प्रतिशत खपत भी कम हो गयी तो 16 हजार करोड़ रुपये वार्षिक की बचत हो सकती है। रात में पेट्रोल पम्प को बन्द करने के अलावा केंद्र सरकार के मंत्री तेल की खपत को कम करने के तमाम उपायों पर माथापच्ची कर रहे हैं लेकिन असलियत में तेल का सर्वाधिक खर्च खुद सरकारी अमला अपने ऊपर ही कर रहा है। वैसे रात में पेट्रोल पम्प बन्दी की योजना को फिलहाल टाल दिया गया है। मनमोहन सरकार के सुर-में-सुर मिलाकर नेता कहने लगे हैं कि आम आदमी को पेट्रोल की खपत कम करनी चाहिये; ताकि पेट्रोल की कीमतें कम हो सके। दूसरे को हिदायत देने वाले ये नेता और बाबू खुद कितने पानी में हैं। उन्हें खुद के गिरेहबान में झाँकने की जरूरत है। विदित हो कि वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान दिल्ली स्थित केंद्र सरकार का कार्यालय खर्च 5,200 करोड़ था। सरकारी विभागों में तेल पर कितना खर्च किया जा रहा है, यह पता लगाना भूसे के ढेर में सूई खोजने जैसा है। इसकी वजह है कि सरकारी विभागों में तेल पर खर्च की जाने वाली राशि का अलग से कोई ब्योरा दर्ज नहीं होता है। इसे कार्यालय खर्च के मद में ही शामिल किया जाता है। इस मद में स्टेशनरी से लेकर टॉयलेट पेपर तक के खर्च शामिल होते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तेल पर खर्च को प्रशासनिक खर्च के मद में शामिल किया जाता है। इसके चलते ईंधन पर खर्च का पता नहीं चलता है। दिल्ली में केंद्रीय मंत्रियों के महीने के पेट्रोल खर्च की बात करें तो 77 केंद्रीय मंत्री एक महीने में 200 लीटर प्रति मंत्री के हिसाब से करीब 46,200 लीटर डीजल-पेट्रोल फूँक रहे हैं। वर्षभर के पेट्रोल खर्च की बात करें तो दिल्ली में केंद्र सरकार के अधिकारी वर्ष में 2 लाख 56 हजार लीटर पेट्रोल या डीजल जला रहे हैं। पेट्रोल का मूल्य यदि 74.10 रुपये प्रति लीटर मानंे और मात्र दिल्ली में रहने वाले मंत्रियों-अधिकारियों के तेल खर्च का हिसाब जोड़ें तो यह लगभग 230 करोड़ रुपये मासिक यानी 2,760 करोड़ रुपये वार्षिक है। चूँकि मंत्रियों व अधिकारियों के तेल खर्च की कोई सीमा नहीं है इसलिये इस आँकड़े को 3000 करोड़ रुपये माना जा सकता है। इस अनुमान में सैकड़ों कर अधिकारियों, अर्द्ध सैनिक बल के अधिकारियों, सेनाधिकारियों, सीबीआइ, अन्य खुफिया एजेंसियों व रेलवे के अधिकारियों के तेल खर्च शामिल नहीं हैं।

    ऐसे में आवश्यकता है कि जनता को तेल की खपत कम करने के लिए जागरूक करने से पहले सरकार अपने अमले पर तेल की व्यर्थ खपत पर अंकुश लगाये। कई राजनीतिक पदधारियों के काफिले में दिखावे के लिए खाली वाहनों की फेहरिश्त चलती है। इस पर अंकुश तो लगाया ही जा सकता है। कई बार सरकारी गाड़ियों का प्रयोग व्यक्तिगत कार्यों में होता है। ढेर सारे सरकारी अधिकारियों की पत्नियाँ बाजार में अपने पतियों की सरकारी गाड़ियों से घूमती हैं तो कई अधिकारियों के बच्चों को भी सरकारी कारों से विद्यालय छोड़ा और लाया जाता है। देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में ऐसे दृश्य आम हैं। इंदिरा गाँधी ने 1972 में एक सरकारी आदेश जारी किया था। उसमें सरकारी कार के निजी इस्तेमाल को गैर-वाजिब बताया गया था। पर, उस आदेश की धज्जियाँ उड़ रही है। ऐसे में विपक्ष ने सरकारी खर्चों में तेल की भारी खपत पर सरकार पर निशाना साधा है। विपक्षी दलों का कहना है कि पहले सरकार को अपने खर्चे कम करने चाहिये फिर जनता को नसीहत देनी चाहिये। वैसे केवल सरकार को ही कोसना उचित नहीं। आमजन को भी अधिकतम सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करना चाहिये और आनेवाली पीढ़ी के लिए तेल बचाना चाहिये।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 : भूख से लड़ाई की कवायद


शीतांशु कुमार सहाय
    भूख से लड़ाई का कथित अन्त सन्निकट है। इसे लाचारी, हड़बड़ी या 2014 के लोकसभा निर्वाचन के मद्देनजर जनमत को पक्ष में करने की कवायद कहें अथवा साढ़े चार वर्ष बाद वादा निभाने की बेचारगी! कुछ भी कह लीजिये पर सच तो यही है कि विपक्षियों के सभी संशोधनों को अस्वीकार करते हुए संसद के दोनों सदनों से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 को ध्वनिमत से पारित करवा लिया गया। यों राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा 5 जुलाई को हस्ताक्षरित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश 2013 ने कानून का औपचारिक अमलीजामा पहन लिया। अध्यादेश को 6 माह के अन्दर लोकसभा व राज्यसभा की मंजूरी अनिवार्य थी। यह अनिवार्यता पूरी हो गयी। लोकसभा से 26 अगस्त को पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 को राज्यसभा ने 2 सितम्बर को ध्वनिमत से पारित कर दिया। इस विधेयक को संसद की मंजूरी मिलने पर काँग्रेस सहित पूरा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) गद्गद् है। सर्वाधिक खुश हैं केन्द्रीय खाद्य मंत्री प्रोफेसर केवी थॉमस कि उनके विभाग से सम्बद्ध इस विधेयक में विपक्षियों के एक भी संशोधन को शामिल नहीं किया गया। अब दुनिया के उन चुनिन्दा देशों में भारत शामिल हो गया जो अपनी अधिकांश आबादी को खाद्यान्न की गारंटी देते हैं। 11,30,000 करोड़ रुपये के सरकारी समर्थन से खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। इसके लिए 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न की आवश्यकता है। यह विधेयक प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलो चावल, गेहूँ और मोटा अनाज क्रमशः 3, 2 और 1 रुपये प्रति किलोग्राम के तयशुदा मूल्य पर गारंटी करेगा। इससे देश की 82 करोड़ आबादी को लाभ होने की बात कही जा रही है।
    वास्तव में खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को परिभाषित करती है। अपने जीवन के लिए हर किसी को निर्धारित पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण भोजन की जरूरत होती है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि भोजन की जरूरत नियत समय पर पूरी हो। इसका एक पक्ष यह भी है कि आने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुए हमारे भण्डारों में पर्याप्त मात्रा में अनाज सुरक्षित हों जिसे जरूरत पड़ने पर तत्काल जरूरतमंद लोगों तक सुव्यवस्थित तरीके से पहँुचाया जाये। हाल के अनुभवों ने सिखाया है कि राज्य के अनाज गोदाम इसलिये भरे हुए नहीं होने चाहिये कि लोग उसे खरीद पाने में सक्षम न हों। इसका अर्थ है कि सामाजिक सुरक्षा के नजरिये से अनाज आपूर्ति की सुनियोजित व्यवस्था होनी चाहिये। यदि समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी तो लोग अन्य रचनात्मक प्रक्रियाओं में अपनी भूमिका निभा पाएंगे। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार का दायित्व है कि बेहतर उत्पादन का वातावरण बनाये और खाद्यान्न के बाजार मूल्यों को समुदाय के हितों के अनुरूप बनाये रखे। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है। सम्भवतः इसी के दृष्टिगत खाद्य सुरक्षा कानून का निर्माण हुआ है। इसमें संसदीय स्थाई समिति की रिपोर्ट के अनुसार संशोधन हुए हैं जिसने लाभार्थियों को 2 वर्गों में विभाजित किये जाने के प्रस्ताव को समाप्त करने की सलाह दी। साथ ही एकसमान मूल्य पर हर माह प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज दिये जाने की वकालत हुई। शुरू में इस योजना को देश के 150 पिछड़े जिलों में चलाया जाएगा और बाद में इसे पूरे देश में लागू किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या भारत में 41 करोड़ है जिनकी एक दिन की आमदनी 1.25 डॉलर से कम है। वास्तव में यह विधेयक लाना केन्द्र सरकार की लाचारी थी; क्योंकि 2009 में ही राष्ट्रपति ने अभिभाषण में कहा था कि सबको अनाज की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार कानून बनाएगी। सत्ता में आने के साढ़े चार वर्ष बाद सरकार जो विधेयक पारित करायी है उसमें कई त्रुटियाँ शेष हैं। इसे ऐसे समय में लाया गया है जब उसके सत्ता से जाने का समय आ गया है।
    दरअसल, भूख से जंग लड़ने वाले विधेयक की त्रुटियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया तो गया मगर उस पर ध्यान न दिया गया। विधेयक में 6 माह से 3 वर्ष के बच्चे को भी शामिल किया गया है लेकिन इस बात का उल्लेख नहीं है कि बच्चे को क्या राशन देंगे। क्या उन्हें भी गेहूँ और चावल दिया जायेगा या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनके लिए भोजन तैयार करेंगी? भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के 2009 की रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में सबसे गरीब व्यक्ति के अनाज की प्रतिव्यक्ति प्रति माह खपत 9.8 किलोग्राम है जबकि खाद्य सुरक्षा विधेयक में 5 किलोग्राम अनाज देने की बात ही कही गयी है जो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 166 ग्राम ठहरता है। सरकार तैयार भोजन देने और स्नैक्स आदि घर तक पहुँचाने की बात करती है। गाँव में तो ऐसा भोजन तैयार नहीं होता है। क्या इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तैयार करेंगी? विधेयक में प्रति व्यक्ति के स्थान पर परिवार को आधार बनाया गया है तब क्या एक व्यक्ति का परिवार होगा या नहीं? यों बच्चों व बड़ों का राशन एक समान कर दिया गया है जो व्यावहारिक नहीं है। एक अव्यावहारिकता की ओर भाजपा के अरुण जेटली ध्यान दिलाते हैं कि पीडीएस, आईसीडीएस और मध्याह्न भोजन जैसी विभिन्न खाद्य योजनाओं में सब्सिडी 24,844 करोड़ रुपये है जबकि इस विधेयक में 25,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी की बात की गयी है। यों कुछ राज्य सरकारों ने भी आशंका जतायी है। इस कानून के बाद छत्तीसगढ़ जैसे राज्य क्या करेंगे जहां इससे बेहतर योजनाएँ पहले से ही लागू हैं। कुल मिलाकर यही कहना पड़ेगा कि मनरेगा की तरह इसका भी हश्र होगा।

सोमवार, 2 सितंबर 2013

झारखण्ड : थम नहीं रही दरिन्दगी


एक जनवरी से 31 मई तक राज्य में दुष्कर्म की 500 घटनाएँ दर्ज

शीतांशु कुमार सहाय
    पिछले वर्ष दिसम्बर में दिल्ली में चलती बस में एक लड़की से सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद देश में जो उबाल आया और सरकार ने कानून को कठोर बनाया तो ऐसा लगा था कि अब ऐसी घटनाओं में कमी आएगी पर हुआ ठीक उल्टा। कठोर कानून का भय नहीं रहा दुष्कर्मियों को। लगातार महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ रही है। इससे जहाँ देशभर की महिलाएँ डरी-सहमी हैं, वहीं प्रबुद्धों के बीच यह चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक चूक भी कम जिम्मेदार नहीं है। तभी तो न्यायालयों को भी महिला सुरक्षा पर चिन्ता जतानी पड़ रही है। यह पूरा वर्ष दुष्कर्मों के लिए चर्चित है। मेरी याद में इतने दुष्कर्म किसी वर्ष नहीं हुए। सर्वाधिक दुष्कर्मों के लिए वर्ष 2013 याद किया जाएगा। एक जनवरी से 31 मई तक राज्य में दुष्कर्म की 500 घटनाएँ दर्ज हुई हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक जब इक्के-दुक्के ऐसी घटनाएँ घटती थीं तो कहा जाता था कि यह महानगरों तक ही सीमित है पर अब तो गाँवों-कस्बों में की भी लड़कियाँ व महिलाएँ महफूज नहीं रहीं। शहरीकरण में अत्यन्त पिछड़ा राज्य झारखण्ड में भी आए दिन दुष्कर्म की घटनाएँ घट रही हैं।
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा पर चिन्ता जतायी है। एक मामले में सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने कहा है कि कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी सरकार की है लेकिन जिस तरह से घटनाएँ हो रही हैं उससे लगता है कि सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस पहल नहीं की है, महिलाओं को सुरक्षा देने में सरकार पूरी तरह विफल है। उच्च न्यायालय ने महिला सुरक्षा पर सरकार से ठोस कदम उठाने को कहा है। देखना है कि हेमन्त सरकार का ठोस कदम क्या होगा!
    दरअसल, राज्य में राष्ट्रपति शासन के दौरान देवघर में 2 नाबालिग लड़कियों के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी जिसके बाद से घटनाओं की झड़ी लगी है। देवघर की घटना सुरक्षित माने जाने वाले स्थानीय पुलिस लाईन में घटी। विरोध में जनता व विभिन्न दलों के नेता सड़कों पर उतरे मगर आरोपित पकड़ा नहीं गया। अन्ततः मामले को केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो को सौंपकर ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। फिर जोड़-तोड़ कर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में काँग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के सहयोग से सरकार बनी। लगा कि अब माहौल बदलेगा पर हेमन्त राज में दुष्कर्म व सामूहिक दुष्कर्म की कई घटनाएँ घट चुकी हैं। इस पर झारखण्ड उच्च न्यायालय ने सख्त रूख अख्तियार किया है। गौरतलब है कि न्यायामूर्ति एनएन तिवारी व न्यायामूर्ति एस चंद्रशेखर की खंडपीठ ने छेड़खानी को लेकर स्वतः संज्ञान से दर्ज जनहित याचिका के एक मामले में शुक्रवार व शनिवार को सुनवाई की। उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से इस मामले में शपथ-पत्र दायर करने को कहा था। साथ ही राँची नगर निगम के सीईओ को उपस्थित होने को कहा था। इस बीच सरकार की तरफ से शपथ-पत्र दाखिल किया गया जिससे न्यायालय संतुष्ट नहीं है। शनिवार को नगर निगम के सीईओ न्यायालय में उपस्थित हुए और उन्होंने महिला सुरक्षा के बाबत उठाये गये कदमों की जानकारी दी। न्यायालय ने पहले ही इस मामले में सरकार को ठोस कदम उठाने के आदेश दिये थे लेकिन उसका अनुपालन कायदे से नहीं हो रहा है। यदि उचित अनुपालन होता तो दुष्कर्म की घटनाएँ नहीं बढ़तीं। देवघर की घटना के बाद गिरिडीह में एक अबला की प्रतिष्ठा तार-तार हुई। 14 जुलाई को पाकुड़ के लबादा गाँव में 4 नाबालिग पहाड़िया विद्यालीय बच्चियों को अगवा कर सामूहिक दुष्कर्म किया गया। यों 7 अगस्त को पाकुड़ के महेशपुर स्थित घटकोरा गाँव में 2 नाबालिग लड़कियों की इज्जत से गाँव के ही 4 लोगों ने खिलवाड़ किया। पाकुड़ के ही मालपहाड़ी थाने के नसीपुर पंचायत में 19 अगस्त को एक महिला पार्षद के साथ 4 लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म किया। यों 22 अगस्त की देर रात एनएच-75 पर लातेहार के जगलदगा पुल के निकट लातेहार पुलिस लाइन में पदस्थापित विधवा महिला आरक्षी के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। फिर 27 अगस्त की रात राँची से 40 किलो मीटर दूर बुंडू अनुमंडल क्षेत्र में 9वीं कक्षा की एक छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना हुई। 29 अगस्त को हजारीबाग में 11वीं कक्षा की एक छात्रा के साथ दुष्कर्म का मामला सामने आया। उसे 2 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया था।

    झारखण्ड में लगातार महिला उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ रही हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार, इस वर्ष एक जनवरी से 31 मई के बीच राज्य में दुष्कर्म की 500 घटनाएँ सामने आयी हैं। मतलब यह कि राष्ट्रपति शासन में झारखण्ड की महिलाएँ अधिक असुरक्षित थींे। इसी अवधि में 2012 में 328 तथा 2011 में 292 मामले दर्ज कराये गये थे। ये आँकड़े विभिन्न थानों में दर्ज हैं। दुष्कर्म की वारदातों की वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है; क्योंकि लोक लाज से लोग कई मामलों को पुलिस तक नहीं पहुँचने देते हैं। महिला उत्पीड़न की घटनाओं को न्यूनतम करने के लिए जरूरी है कि कानून का सख्ती से पालन हो। त्वरित न्यायालयों में ऐसे मामलों की सुनवाई की जाये। साथ ही सबसे कारगर उपाय के तौर पर नशीले पदार्थों से दूरी रखते हुए आत्मसंयम को अपनाना अत्यावश्यक है। आत्मसंयम को एक दिन में आत्मसात् नहीं किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि पाठ्यक्रम में नैतिकता, व्यावहारिकता व सामाजिकता से जुड़े सन्दर्भ जोड़े जाएँ; ताकि विद्यार्थी नैतिक रूप से सबल होकर मर्यादित जीवन का आनन्द लें।

बिहार-झारखण्ड : इन्द्र रूठे तो सूर्य प्रसन्न



शीतांशु कुमार सहाय

    पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत में वर्षा अनियमित हो गयी है। एक ही राज्य में कुछ क्षेत्र अतिवृष्टि से तो कुछ क्षेत्र अनावृष्टि से त्रस्त हैं। इस बार झारखण्ड और बिहार में इतनी कम वर्षा हुई कि अधिकतर क्षेत्रों में अकाल की स्थिति बनी हुई है। वैसे कुछ क्षेत्रों में बाढ़ की भी भयावहता बरकरार है। बिहार के उत्तरी जिलों में बाढ़ की समस्या है तो झारखण्ड के जमशेदपुर के निचले इलाके में स्थानीय नदी का जल कहर बरपा रहा है। दोनों राज्यों के शेष भागों में अपेक्षाकृत वर्षा कम हुई। किसानों की परेशानी विशेष रूप से बढ़ी हुई है। खरीफ फसल की आरम्भिक तैयारियों में जो राशि किसानों ने खर्च की, वे बर्वाद हो गये। खेत तैयार करके धान का जो बिचड़ा डाला, वे सूख गये। ऋण लेकर बीज, उर्वरक या कीटनाशक का जो प्रबन्ध किया, वे धरे-के-घरे रह गये मगर ब्याज बढ़ता ही जा रहा है। यों किसानों की गरीबी घटने के बदले बढ़ी है। पर, अफसोस कि अब तक इस क्षेत्र में सरकार की ओर से कोई विशेष पहल न की गयी। वैसे झारखण्ड में कुछ दिनों पूर्व झारखण्ड विकास मोर्चा के समर्थकों ने राज्य को सूखा घोषित करवाने के लिए प्रखण्ड मुख्यालयों पर धरना दिया। बिहार में ऐसा ही किया भारतीय जनता पार्टी ने। दोनों राज्य सरकारें फिलहाल जो राहत कार्य करने का दावा कर रही हैं, वे नाकाफी हैं।
    झारखण्ड में सुखाड़ से निबटने के सरकारी प्रयास जारी हैं। सभी प्रखंडों के आँकड़े, सेटेलाइट मैपिंग और बुआई का आँकड़ा देखने के बाद स्थिति निराशाजनक लगी। लिहाजा सभी विभागों को स्थिति पर पैनी नजर रखने का निर्देश दिया गया है। फिलहाल 14 करोड़ रुपये की योजना को मंजूरी दी गयी है जिसके तहत किसानों को कम वर्षा में होने वाली फसलों अरहर, मक्का, मूँग व दलहन की खेती के लिए 75 प्रतिशत के अनुदान पर बीज उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया है। यों सभी जिले के उपायुक्तों को 2-2 करोड़ रुपये का कॉर्प्स फण्ड मुहैया कराया गया है; ताकि किसी गरीब परिवार को अविलम्ब राहत उपलब्ध करायी जा सके। उपायुक्त को यह भी निर्देश है कि वे किसानों को हरसंभव सहायता उपलब्ध कराएँ। पलायन न हो, इसके लिए आवश्यक कदम उठाएँ। हेमन्त सोरेन की बात मानें तो सुखाड़ के बारे में केंद्र सरकार के मापदण्ड को ध्यान में रखकर हर पहलुओं पर विचार किया गया है लेकिन पूर्ण आकलन अक्तूबर में ही सम्भव है, जब खरीफ फसलों के कटने का समय होता है। झारखण्ड सुखाड़ का अभी एक ही मानक पूरा कर रहा है। भारत सरकार ने सुखाड़ घोषित करने के लिए 4 मानक तय कर रखा है जिनमें वर्षापात, फसल का आच्छादन (रोपनी-बुआई), एनडीडब्ल्यूआइ (नॉर्मलाइज डिफरेंस वाटर इंडेक्स) और एनडीभीआइ (नॉर्मलाइज डिफरेंस भेजीटेशन इंडेक्स) शामिल हैं। राज्य को सुखाड़ घोषित करने के लिए 3 मानकों को पूरा करना जरूरी है जबकि झारखण्ड अभी एक ही मानक को पूरा कर रहा है। वर्षापात व फसलों का आच्छादन 50 प्रतिशत से कम होना चाहिये। राज्य में एक जून से 17 अगस्त तक मानक से 15.09 प्रतिशत अधिक अर्थात् कुल 65.09 प्रतिशत बारिश हुई है। धान की रोपनी 42.55 प्रतिशत हुई है जो मानक से 7.45 प्रतिशत कम है। यों मक्के की बुआई 81.55 प्रतिशत, दलहन 58.91 और तेलहन 42.44 प्रतिशत हुआ है। एनडीडब्ल्यूआइ 0.04 तथा एनडीभीआइ 0.01 से कम होना चाहिये। इसकी अंतरिम रिपोर्ट अभी नहीं सौंपी गयी है। राज्य में सुखाड़ का आकलन करने के लिए केन्द्र की एक टीम भी पिछले सप्ताह आयी थी। इसी तरह बिहार सरकार ने धान की आस छोड़कर अन्य फसलों की तरफ किसानों का ध्यान आकृष्ट कराया है। प्रत्येक प्रखण्डों में कृषि वैज्ञानिक भेजकर कृषकों को उचित सलाह देने की कवायद आरम्भ की है। बिहार में सुखाड़ की स्थिति में केंद्र सरकार से मदद माँगने के प्रश्न पर नीतीश कुमार का कहना है कि अभी वह स्थिति नहीं आयी है, अभी बिहार के संसाधनों से ही किसानों को राहत देने का प्रयास किया जा रहा है। राज्य को सुखाड़ क्षेत्र भी घोषित नहीं किया गया है। बिहार में बारिश कम हुई है। ऐसे में सरकारी दावा है कि किसानों को डीजल पर अनुदान सहित कई राहत दी जा रही है।

    दोनों राज्यों में वर्षा की कमी के कारण स्थिति भयावह है। खरीफ फसल हो नहीं पायी, अन्य फसलों के लिए भी सिंचाई का प्रबन्ध है नहीं। धान के अभाव में अन्य फसलों के बीज 75 प्रतिशत नहीं 100 प्रतिशत अनुदान पर भी दे दिये जायें तो भी उनके उपयोग सिंचाई के अभाव में झारखण्ड के किसान कैसे कर पाएंगे? यों एक-एक जिले में सुखाड़ से पीड़ितों को राहत के लिए 2-2 करोड़ रुपये की राशि ऊँट के मुँह में जीरा के समान है। यों बिहार के प्रखण्डों में जाकर भी कृषि वैज्ञानिक कोई मील का पत्थर वाला कार्य नहीं कर पाएंगे। यों केवल डीजल अनुदान देकर सुखाड़ से राहत का स्वांग रचा जा रहा है। झारखण्ड में 40 प्रतिशत से कम तो बिहार में 30 प्रतिशत से कम ही वर्षा हुई है। इस बीच अन्नदाताओं को राहत देने के लिए ईमानदार पहल करने की आवश्यकता है। रूठे इन्द्र यदि नहीं माने तो सूर्य की प्रसन्नता बढ़ेगी जो तीव्र गर्मी के रूप में प्रकट होगा।
   

रविवार, 1 सितंबर 2013

राज छिपाने के लिए कानून : सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2013


  शीतांशु कुमार सहाय
    दरअसल, देश के सभी राजनीतिक दल अब आरटीआई से बाहर रहेंगे। सरकार इस संशोधन विधेयक के जरिये सार्वजनिक इकाइयों की परिभाषा बदल रही है; ताकि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जा सके। सरकार इस मुद्दे पर सभी दलों की राय ले चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव पर संसद में सरकार को समर्थन देने का वचन दिया है। वास्तव में जब स्वार्थ साधना हो तब दुश्मन को भी दोस्त बना लेना चाहिये! भाजपा ने ऐसा ही किया। विदित हो कि आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल व अनिल बैरवाल ने केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराकर राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने की माँग की थी। इस मामले पर सुनवाई के दौरान 3 जून को सीआईसी ने कहा था कि 6 राष्ट्रीय दलों काँग्रेस, भाजपा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी को केन्द्र सरकार की ओर से आर्थिक मदद मिलती है, अतः आरटीआई की धारा-2(एच)(2) के मुताबिक उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है। सीआईसी ने दलों को जन सूचना अधिकारियों व अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति के लिए 6 सप्ताह का समय दिया था। यह नागवार गुजरा राजनीतिक दलों को और कानून बनाकर सीआईसी के आदेश को ही खत्म कर दिया।  

    आरटीआई की धारा-2(एच)(2) के अनुसार, जिन्हें सरकार की ओर से पूर्णतः या आंशिक वित्तीय मदद मिलती है वे सार्वजनिक इकाई हैं और वे आरटीआई के अन्तर्गत आएंगे। इस धारा को संशोधित करने का दूरगामी परिणाम भी होगा। आरटीआई संशोधन की आड़ में राजनीतिक दलों के पीछे ऐसी संस्थाएँ भी अपने को आरटीआई से बाहर मानेंगी जिन्हें सरकार से आंशिक या पूर्णतः आर्थिक लाभ मिलता है। कई निजी अस्पतालों-विद्यालयों-संस्थाओं को सरकार अर्थ लाभ देती है। सेचना माँगने पर वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे; क्योंकि इसका आधार केंद्र सरकार ने संशोधित आरटीआई के माध्यम से उपलब्ध करा दिया है। इस संदर्भ में केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के प्रति जवाबदेह हैं और आय का ब्योरा आयोग को दिया जाता है। 20 हजार रुपये से अधिक के चन्दे के आँकड़े आयकर विभाग को दिये जाते हैं। जो बातें निर्वाचन आयोग व आयकर विभाग को बतायी जाती हैं, वही बातें जनता को बताने से पार्टियाँ क्यों घबरा रही हैं? जिसे जनता चुनकर भेजती है, वह अपने बारे में जनता को नहीं बताएगा। यह कैसा जनप्रतिनिधित्व? बकौल सिब्बल वे (दलीय नेता) नियुक्त नहीं होते, उन्हें जनता चुनती है, इसलिये उन पर आरटीआई लागू नहीं होगा। नेताओं ने अपने को कानून से ऊपर की चीज बना लिया है। राजनीतिक दल भले ही अपनी विचारधारा छिपाएँ मगर आय-व्यय को जनता के सामने रखना ही चाहिये। यदि ऐसा नहीं किया गया तो जनता हिसाब माँगेगी ही। यह सच है कि जनता अब जाग गयी है। यही सच नेताओं के गले नहीं उतर रहा है। इसका असर 2014 के लोकसभा आम चुनाव में हो या न हो मगर दूरगामी प्रभाव तो अवश्य पड़ेगा, बस इन्तजार कीजिये।
  अब तक केन्द्र सरकार व काँग्रेस कहती रही है कि उनकी तरफ से जनता को सूचना का अधिकार देकर उन्हें ऐसा हथियार प्रदान किया गया है जिसके माध्यम से जनसरोकार से जुड़ी सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इसे लागू करने के दौरान काँग्रेस द्वारा यह भी प्रचारित किया गया कि अब हर चीज पारदर्शी होगी, जनता सब कुछ देख सकेगी। पर, वह प्रचार छलावा साबित हुआ जब स्वयं काँग्रेस के ही पारदर्शी होने की बारी आयी। झटपट ‘सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2013’ बनाकर 12 अगस्त को कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने लोकसभा में पेश किया। लोकसभा की सोमवार यानी आज की कार्यसूची में यह चर्चा व पारित कराने के लिए सूचीबद्ध है। यकीन मानिये कि बिना हिल-हुज्जत के यह पारित हो जाएगा। जिस विधेयक से सीधा जनता को लाभ हो, वह भले ही विरोध या शोरगुल की भेंट चढ़ जाए मगर जिससे नेताओं को फायदा हो, वह तुरन्त पारित हो जाता है। यह भारतीय जनतन्त्र का व्यावहारिक सच है। अब राजनीतिक दलों के आन्तरिक सच को जानने का अवसर जनता को नहीं मिल पाएगा, कभी नहीं। जनतन्त्र की दुहाई देने वाले दल जनता से ही छिपाएंगे अपना राज। वे कभी नहीं बताएंगे कि उनके पास वैध या अवैध तरीके से कितना धन आया। पद पर रहकर महज कुछ हजार वेतन पाने वाले नेता लाखों की यात्रा व मौज-मस्ती में करोड़ों उड़ाने का राज ढँककर रखेंगे। पद से हटने पर भी उनके रुतबे में कमी क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा। गला फाड़कर पारदर्शिता की बात कहने वाले नेता अपनी पार्टी को कभी पारदर्शी नहीं बनाएंगे। वे ऐसा करें भी क्यों? अब कोई कहेगा भी तोे वे कानून की लाचारी समझा देंगे और कहेंगे, क्या करें, हम तो चाहते हैं कि हमारी पार्टी अपनी आय-व्यय और अन्य बातें सार्वजनिक करे लेकिन कानून ऐसा करने नहीं देता। ऐसा तर्क देने का मौका किसी और ने नहीं दिया; बल्कि दल वाले स्वयं ही ‘हिफाजत’ के लिए ऐसा कानून बना रहे हैं। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने पहले ही राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) से बाहर कर दिया है।