इस मुहर की पहली पंक्ति में ‘श्री नालन्दा महा विहार’ लिखा हुआ है।
-शीतांशु कुमार सहाय
नालंदा विश्वविद्यालय विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2000 थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसाङ आया था, उस समय 10,000 विद्यार्थी और 1510 आचार्य (अध्यापक) नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस विश्वविद्यालय को 9वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी। इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम ने 413 में की थी। 413 से 1193 यानी 780 साल तक पढ़ाई हुई। तब बौद्ध धर्म, दर्शन, चिकित्सा गणित, वास्तु, धातु और अंतरिक्ष विज्ञान की कक्षाएं थीं। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्त वंश के पतन के बाद भी आनेवाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला। इस विश्वविद्यालय में 12वीं शताब्दी में करीब तीन हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे। नालंदा विश्वविद्यालय व्याकरण, तर्कशास्त्र, मानव शरीर रचना विज्ञान, शब्द ज्ञान, चित्रकला सहित अनेक विधाओं का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र था। इतिहासकारों के मुताबिक, इस विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिभाशाली भिक्षु दीपांकर को माना जाता है जिन्होंने करीब 200 पुस्तकों की रचना की थी। इस पर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1193 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जलाकर इसके अस्तित्व को पूर्णतः नष्ट कर दिया। 2006 में इसके पुनर्निर्माण की योजना बनी थी। 821 साल बाद फिर से नालंदा विश्वविद्यालय में इसी साल (2014) से दोबारा पढ़ाई शुरू हो चुकी है। प्राचीन विश्वविद्यालय के पास ही नए तरीके से नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है। कक्षाएं अभी राजगीर में किराए के कन्वेंशन सेंटर में चल रही हैं। लगभग 242 एकड़ में नए विश्वविद्यालय के स्थायी भवन का काम चल रहा है जो 2021 तक पूरा होगा।
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