शिव और सर्प के अटूट रिश्ते
Lord Shiv & Snake
साँप भगवान शंकर के गले के चारों ओर लिपटा रहता है। इस के पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में ११४ चक्र होते हैं। आप उन्हें शरीर के ११४ संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं। इन ११४ में से शरीर के सात मूल चक्रों के बारे में ही प्रायः बात की जाती है। इन सात मूल चक्रों में से विशुद्धि चक्र गले के गड्ढे में मौजूद होता है। यह खास चक्र साँप के साथ बहुत मजबूती से जुड़ा है। शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या.....READ MORE...
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भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता व धर्म चर्चा
Discussion of Spirituality & Religion in Indian Culture
धर्म मूलतः संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिये, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिस से चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्त्व है जिस के आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। .....READ MORE...
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देवरहा बाबा का मंत्र / MANTRA BY DEORAHA BABA
इस भारतभूमि की दिव्यता का यह प्रमाण है कि इसमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है। यह देवभूमि है, इसकी सेवा, रक्षा तथा संवर्द्धन करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है.....READ MORE...
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भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता / Spirituality in Indian Culture
-शीतांशु कुमार सहाय
भारतीय संस्कृति में विभिन्नता उस का दूषण नहीं वरन भूषण है। यहाँ हिन्दू धर्म के अगणित रूपों और संप्रदायों के अतिरिक्त, बौद्ध, जैन, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई, यहूदी आदि धर्मों की विविधता का भी एक सांस्कृतिक समायोजन देखने को मिलता है। हिन्दू धर्म के विविध सम्प्रदाय एवं मत सारे देश में फैले हुए हैं, जैसे वैदिक धर्म, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि पौराणिक धर्म, राधा-बल्लभ संप्रदाय, श्री संप्रदाय, आर्यसमाज, समाज आदि। परन्तु इन सभी मतवादों में सनातन धर्म की एकरसता खण्डित न होकर विविध रूपों में गठित होती है। यहाँ के निवासियों में भाषा की विविधता भी इस देश की मूलभूत सांस्कृतिक एकता के लिए बाधक न होकर साधक प्रतीत होती है।
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म– इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। भारतीय आध्यात्मिकता में धर्मान्धता को महत्त्व नहीं दिया गया। इस संस्कृति की मूल विशेषता यह रही है कि व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी मत, विचार अथवा धर्म अपना सकता है यही कारण है कि यहाँ समय-समय पर विभिन्न धर्मों को उदय तथा साम्प्रदायिक विलय होता रहा है। आध्यात्मिकता हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व है। इनमें ऐहिक अथवा भौतिक सुखों की तुलना में आत्मिक अथवा पारलौकिक सुख के प्रति आग्रह देखा जा सकता है। चतुराश्रम-व्यवस्था (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा संन्यास आश्रम) तथा पुरुषार्थ-चतुष्टम (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का विधान मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक हैं। इसमें जीवन का मुख्य ध्येय धर्म अर्थात मूल्यों का अनुरक्षण करते हुए मोक्ष माना गया है।
आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। मूलतः धर्म संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।
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