यहाँ आज मैं एक अच्छे
विचार से आलेख आरम्भ कर रहा हूँ।
मेरे मित्र सञ्जय कुमार विनीत ने मुझे भेजा है- "ताश का जोकर और अपनों की
ठोकर, अक्सर बाजी घुमा देती है। अपनी सहनशीलता को बढ़ाइये, छोटी-मोटी घटना से हताश
मत होइये। जो चन्दन घिस जाता है, वह भगवान के मस्तक पर लगाया जाता है और जो नहीं
घिसता वह तो सिर्फ जलाने के काम आता है।" वास्तव में बड़ा अच्छा विचार है।
हमें इसे जीवनभर अपनाये रहना चाहिये।
तीसरे 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' (२१ जून २०१७) पर मैं योग
के विशेष अध्याय 'शरीर' पर चर्चा कर रहा हूँ। वास्तव में तीन प्रकार के शरीर योग
में बताये गये हैं- स्थूल, सूक्ष्म
और कारण। योग साधना के उच्च स्तर पर पहुँचकर तीनों शरीर के बारे में पूरी तरह जाना
जा सकता है।
स्थूल शरीर / Physical Body
जो शरीर दीख रहा है, यही स्थूल शरीर है। इसी
शरीर का नाम होता है जो हाड़-मांस का बना है। इसे भौतिक शरीर भी कहते हैं। यह
पञ्चतत्त्व या पञ्चमहाभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) से
बना है। पाँचों का हिस्सा है इस शरीर में। जब आत्मा स्थूल या भौतिक शरीर से निकलती
है तो पाँचों अपना- अपना अंश वापस ले लेते हैं।
योग व आयुर्वेद के अनुसार, स्थूल या भौतिक शरीर
सात मूल भौतिक तत्वों से निर्मित हुआ है। ये तत्त्व हैं– रस, रक्त,
मांस, मेद, अस्थि,
मज्जा व शुक्र (महिला के लिए रज)। वात, पित्त,
और कफ– ये तीनों द्रव्य यह सुनिश्चित करते हैं
कि शरीर ग्रहण किये गये भोजन का क्या करता है। यहाँ 'भोजन' शब्द में साँस से ली
गयी हवा के अलावा सभी तरह खाद्य (व्यंजन) शामिल हैं।
स्थूल शरीर में पाँच ऊर्जा या वायु (प्राण, अपान, समान,
व्यान और उदान) पाचन व उपापचय या चयापचय जैसी प्रक्रियाओं को
प्रभावित करती हैं। एक बार जब स्थूल शरीर भोजन को पचाकर अवशोषित कर लेता है तब
सूक्ष्म शरीर (चेतना) यह निर्धारित करता है कि कितना
भोजन भौतिक शरीर को प्रभावित करे। यही कारण है कि कुछ लोग कम भोजन करके भी अधिक
मोटे हो जाते हैं व कुछ अन्य लोग अधिक भोजन तो करके भी दुबले ही रह जाते हैं।
सूक्ष्म शरीर / Astral Body
सूक्ष्म शरीर को 'चेतना' भी कहते हैं। वास्तव में
अठारह तत्त्वों का संयोग है सूक्ष्म शरीर। ये अठारह तत्त्व हैं- पाँच प्राण, दस इन्द्रियाँ (पाँच
कर्मेन्द्रियाँ व पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) और मन, बुद्धि व
अहंकार। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान पञ्चप्राण हैं। इन्हें पञ्चवायु भी कहते हैं। स्थूल शरीर
में भी पञ्चवायु के स्थान निर्धारित हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं-- वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ। यों पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ हैं-- कान, त्वचा, नेत्र,
जीभ और नाक।
सूक्ष्म
शरीर हमें दिखायी नहीं देता। हम उसे नींद में महसूस कर सकते हैं। इसे ही वेद में 'मनोमय
शरीर' कहा गया है।
सूक्ष्म
शरीर की चेष्टा जीव की प्रवृत्ति के अनुसार होती है। इसलिए यह
शरीर वस्तुतः जीव के स्वभाव को कार्यान्वित करता है। इस
कारण स्थूल शरीर की रचना एक समान होने पर भी जीव के
स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं।
स्थूल
शरीर को सूक्ष्म शरीर ने घेर रखा है। वास्तव में स्थूल यानी भौतिक शरीर के चारों
तरफ ऊर्जा का एक क्षेत्र है जो सूक्ष्म शरीर है। भौतिक शरीर कि तरह ही सूक्ष्म
शरीर भी देख सकता है, सूँघ सकता है, भोजन
ग्रहण कर सकता है, चल सकता है और बोल भी सकता है आदि। सूक्ष्म
शरीर अपारदर्शी दीवार के पार भी देख सकता है, मन की बात जान सकता है, पलभर में कहीं
भी जा सकता है। सूक्ष्म शरीर में यह क्षमता है कि वह किसी घटना का पूर्वाभास कर
सकता है। यह अतीत की प्रत्येक बात जान सकता है।
ध्यान से
एक से अधिक शरीरों का अनुभव हो सकता है। लगातार ध्यान करते रहने पर कई बार एक से
अधिक शरीरों का अनुभव होता है। ध्यान के दौरान स्थूल शरीर से बाहर निकलते हुए अन्य
दो शरीरों का भान होता है। जब ऐसा हो तो अपने गुरु से परामर्श करना चाहिये। नये
लोग ध्यान के दौरान ऐसा होने पर घबरा जाते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं उनकी मृत्यु
न हो जाय। सूक्ष्म या कारण शरीर के दर्शन के इस आरम्भिक अनुभव से घबराकर कई लोग
ध्यान करना छोड़ देते हैं। जब एक बार ध्यान का अभ्यास छुट जाय तो पुनः उसी अवस्था
में लौटने में अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता है।
भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर के अलावा और भी शरीर होते हैं। हमारे शरीर में
मुख्यत: सात चक्र हैं। ये सात चक्र हैं-- मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर
चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र। प्रत्येक चक्र से
एक शरीर जुड़ा हुआ है। इस तरह पता चलता है कि शरीर की रचना बहुत अद्भुत व
आश्चर्यजनक है। सामान्य आँखों से दिखायी देनेवाला भौतिक या स्थूल शरीर केवल रक्त,
अस्थि और मांस-मज्जा का जोड़ तो दीखता है मगर इसे संचालित रखनेवाले
शरीर पृथक हैं। योग के उच्च शिखर पर जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो इसका अनुभव
होता है।
वास्तव में चेतन अवस्था यानी चैतन्यता का ही दूसरा नाम
सूक्ष्म शरीर है। किसी भी एक समय में चेतना पाँच में से किसी एक अवस्था में हो
सकती है। चेतना की पाँच अवस्थाएँ हैं-- चैतन्य, उपचैतन्य,
अनाचैतन्य, अचैतन्य और पराचैतन्य। साथ ही शरीर
स्वप्न, जागृत, सुषुप्त अथवा तुरीय–
किसी भी अवस्था में हो सकता है। इस प्रकार मालूम होता है कि जहाँ सभी
भावनाएँ (चैतन्यता) रहती हैं, वह सूक्ष्म शरीर है। शरीर की
सभी स्वाभाविक क्रियाएँ जैसे ह्रदय की धड़कन, नाड़ी-चालन,
रक्तचाप आदि पर सूक्ष्म शरीर का प्रभाव होता है। योग के माध्यम से सूक्ष्म
शरीर पर नियंत्रण कर सभी स्वाभाविक क्रियाओं पर नियंत्रण किया जा सकता है।
कारण शरीर / Causal Body
तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है। कारण शरीर 'प्रकृति' का नाम है। सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण को सामूहिक रूप से 'प्रकृति'
कहते हैं। ये अत्यन्त सूक्ष्मतम कण हैं जिनकी व्यापक चर्चा 'श्रीमद्भगवद्गीता' में
भगवान ने किया है। इसी प्रकृति को 'कारण-शरीर' कहा गया है। कारण-शरीर वेद में 'विज्ञानमय शरीर' कहते हैं। हम किसी भी जन्म में जो भी कार्य करते
हैं, वे सभी जहाँ संचित होते हैं, वही कारण शरीर है। इस जन्म के कर्मों का लेखा भी
इसी शरीर में संचित होता है। जन्म-जन्मान्तर के कर्मों (प्रारब्ध) का यही वहन करता
है और उसका प्रतिफल वर्तमान स्थूल शरीर पर प्रकट होता है।
कारण शरीर
ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसे 'बीज शरीर' भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन
की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और
स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर नष्ट हो
जाता है। इसके बाद सूक्ष्म शरीर कुछ माहों में कारण शरीर की ऊर्जा में शामिल हो
जाता है। मृत्यु के बाद कारण शरीर एक से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के कारण
पुनः स्थूल शरीर (अन्नमय कोश) व सूक्ष्म शरीर (मनोमय कोश) की प्राप्ति होती है, मतलब
नया जन्म होता है। कारण शरीर कभी नहीं मरता, जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो जाय। कारण
शरीर से ही परकाया प्रवेश किया जा सकता है।
जब आत्मा स्थूल शरीर को छोड़ती है, उस समय को मृत्यु कहते हैं। मृत्यु के पश्चात आत्मा अपने साथ सूक्ष्म और कारण शरीर को ले जाती है। इस तरह एक से दूसरे जन्म में आत्मा के साथ बुद्धि और मन भी जाते हैं। यही वजह है जन्म से ही नेत्रहीन व्यक्ति भी स्वप्न देख सकता है; क्योंकि उसके अवचेतन में पूर्व जन्मों की दृश्य-स्मृति शेष है। इस कारण ही कुछ में विलक्षण प्रतिभा भी दीख पड़ती है। मृत्यु के पश्चात स्थूल शरीर पृथ्वी पर ही रह जाता है जिसे 'पार्थिव शरीर' कहा जाता है। अन्तिम संस्कार पार्थिव शरीर का ही किया जाता है।
जब आत्मा स्थूल शरीर को छोड़ती है, उस समय को मृत्यु कहते हैं। मृत्यु के पश्चात आत्मा अपने साथ सूक्ष्म और कारण शरीर को ले जाती है। इस तरह एक से दूसरे जन्म में आत्मा के साथ बुद्धि और मन भी जाते हैं। यही वजह है जन्म से ही नेत्रहीन व्यक्ति भी स्वप्न देख सकता है; क्योंकि उसके अवचेतन में पूर्व जन्मों की दृश्य-स्मृति शेष है। इस कारण ही कुछ में विलक्षण प्रतिभा भी दीख पड़ती है। मृत्यु के पश्चात स्थूल शरीर पृथ्वी पर ही रह जाता है जिसे 'पार्थिव शरीर' कहा जाता है। अन्तिम संस्कार पार्थिव शरीर का ही किया जाता है।
कारण शरीर स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का कारण या
करक है, इसलिए इसे कारण शरीर कहते हैं।
ब्रह्म (आत्मा) सत्य है और उसके अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या है। हमें अज्ञान के कारण
आत्मा का अनुभव नहीं है। इसे ही 'श्रीमद्भगवद्गीता'
में अविद्या कहा गया है। यह अविद्या कारण शरीर है, क्योंकि यह नित्य, आध्यात्मिक व पूर्ण सत्ता का
अज्ञान ही है जिसने हमारी बुद्धि की कोलाहलपूर्ण इच्छाओं, मन
के विचारों और शरीर के कर्मों को जन्म दिया है। विकार-रहित प्रकृति का बना होने के
कारण ही कारण शरीर में पूर्णतया ज्ञान का अभाव होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने
इस अवस्था को 'गाढ़ निद्रा' कहा है। सूक्ष्म और स्थूल शरीर इस अविद्या के ही कार्य हैं।
मतलब यह कि तीनों शरीरों को अविद्या का समाहार कहा जा सकता है। इन तीनों से परे
होकर ही सत्स्वरूप आत्मा का दर्शन सम्भव है। इसके लिए निरन्तर योग साधना आवश्यक है।
सत्स्वरूप ब्रह्म एक है। वह सच्चिदानन्द, अनादि व अनन्त है।
वह अविभाज्य भी है और विभाज्य भी। उनकी विभाज्य प्रवृत्ति के अंतर्गत मायिक शक्ति
से ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार जारी है। माया की उपाधि से ब्रह्म को 'ईश्वर'
कहा गया है। वास्तव में सभी प्राणियों के शरीर ब्रह्माण्ड के अंशभूत हैं। शरीर में
व्याप्त ब्रह्म की उपाधि 'जीव' हो गयी। इस प्रकार एक ही ब्रह्म उपाधि भेद से ईश्वर
और जीव रूप में भासित होता है। 'श्रीमद्भगवद्गीता'
में भगवान ने कहा है कि वह मनुष्य के हृदय में रहते हैं।
शरीर के पञ्च कोश / Five Pounds of the Body
मनुष्य का
पञ्च कोशों का समाहार है। पञ्च कोश वास्तव में शरीर का एक आयाम है। स्थूल से सूक्ष्म
और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जानेवाले ये पञ्च कोश शरीर के ही आकार के होते हैं। ऊपर वर्णित तीनों शरीर (स्थूल, सूक्ष्म व कारण) पाँच कोशों के साथ
मिलकर कार्य करते हैं।
(१) अन्न्मय
कोश : भौतिक या
सूक्ष्म शरीर ही अन्न्मय कोश है।
(२) प्राणमय
कोश : पञ्चवायु
(प्राण, अपान, समान, व्यान
और उदान) से प्राणमय कोश बना है।
(३) मनोमय
कोश : पाँच कर्मेन्द्रियों, मन और
अहङ्कार वाला भाग मनोमय कोश कहलाता है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं-- वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ।
(४) विज्ञानमय
कोश : पाँच ज्ञानेन्द्रियों
और बुद्धि का अंश विज्ञानमय कोश है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं-- कान, त्वचा, नेत्र, जीभ और नाक।
(५) आनन्दमय
कोश : आनन्दमय
कोश को कारण शरीर कह सकते हैं। यह मूल प्रकृति
का भाग है।
इस प्रकार
विदित होता है कि अन्नमय कोश ही स्थूल शरीर है। प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोशों को एक साथ सूक्ष्म शरीर कहते हैं और आनन्दमय कोश
ही कारण शरीर है। तीन शरीरों का विभाजन कोशों के अनुसार
निर्धारित है। ये कोश हमारी अनुभूति के अनुसार हैं, हम
शरीर को इन रूपों में ही अनुभव करते हैं।
ध्यान
करने में ये पञ्च कोश सहायता करते हैं। ध्यान करते समय सर्वप्रथम अन्नमय कोश पर
चित्त को स्थिर करना चाहिए, जैसे भ्रूमध्य (भौहों के बीच में),
नासिकाग्र पर, नाभि पर आदि। अन्नमय कोश
पर जब चित्त स्थिर हो जाय तो इसके उपरान्त प्राणमय कोश यानी अपने श्वास-प्रश्वास
पर ध्यान लगाना चाहिये। प्राणमय कोश पर जब चित्त स्थिर हो जाय तो इसके उपरान्त मनोमय
कोश जो हिलने-डुलने, देखने-सुनने आदि का सङ्कल्प
करता है; उस पर ध्यान लगाना चाहिये। मनोमय कोश पर जब चित्त स्थिर हो
जाय तो इसके उपरान्त विज्ञानमय कोश पर ध्यान लगाना चाहिये। संकल्प के बाद भी हमारी
बुद्धि में विचार आ रहे होंगे तो समझिये कि यह विज्ञानमय कोश है। अब विचारों को
रोकने के लिए ध्यान करना चाहिये। विचारों के स्थिर हो जाने पर आनन्द का अनुभव
होने लगता है। यही आनन्दमय कोश है। आनन्दमय कोश भी सत्य का भ्रम ही
है। इससे आगे बढ़ने पर ही ब्रह्ममिलन यानी आत्मसाक्षात्कार या आत्मा का दर्शन सम्भव
है।
महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर से और मोक्ष मिलने पर कारण शरीर से मुक्ति
जब इस सृष्टि के भौतिक जगत का विनाश होता है तो भौतिक ऊर्जा के सभी तत्व परमात्मा में ही समाहित हो जाते हैं। महाप्रलय के दौरान आत्मा जड़ (निष्क्रिय) हो जाती है। महाप्रलय काल में सभी आत्माओं के स्थूल और सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाते हैं लेकिन कारण शरीर तब भी बना ही रहता है। ये पूर्व के सभी जन्मों का चिठ्ठा लिये चलता है। इसलिए सृष्टि की पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) होने पर आत्मा को सूक्ष्म और स्थूल शरीर उसके कारण शरीर के पास जमा प्रारब्ध (पूर्व जन्म के संस्कार) के अनुरूप ही मिलते हैं। परमात्मा की प्राप्ति (मोक्ष) होने पर परमात्मा को प्राप्त आत्माओं के तीनों शरीर नष्ट हो जाते हैं। तब उसे दिव्य शरीर, दिव्य मन और दिव्य बुद्धि मिलती है। मोक्ष प्राप्त आत्मा इस प्रकार प्राप्त दिव्य चक्षुओं से प्रभु की लीला देखती है। श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है कि अर्जुन को भगवान कृष्ण अपना रूप दिखाने के लिए दिव्य चक्षु देते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ-प्रकाश में दिव्य शरीर को 'तुरीय शरीर' कहा है।तीन शरीर और व्याधियाँ / Three Bodies and Ailments
ऊपर मैंने
जिन तीन शरीरों की चर्चा की है, वे भौतिक शरीर के व्याधियों को प्रभावित करते हैं।
सभी शारीरिक व्याधियाँ मात्र लक्षण होते हैं, कारण नहीं। व्याधियाँ उस
प्रतिबंधित चेतना के लक्षण हैं जो प्रदूषित हो जाते हैं। सूक्ष्म शरीर या कारण
शरीर तनाव में होगा तब रोग के लक्षण भौतिक शरीर पर प्रकट होंगे। चिकित्सा द्वारा
भौतिक शरीर के कुछ व्याधियों पर ही नियंत्रण संभव है। सभी शारीरिक या मानसिक रोगों
की चिकित्सा किसी भी पैथी में सम्भव नहीं है। पर, योग में कोई रोग लाइलाज नहीं है।
संपूर्ण
आरोग्यता तभी सम्भव है, जब सूक्ष्म शरीर में स्थित व्याधि का मूल कारण ही जड़ से समाप्त
कर दिया जाता है। कुछ व्याधियाँ उत्पन्न तो होती हैं भौतिक शरीर में लेकिन वह
सूक्ष्म शरीर (अंतःकरण) से आगे बढ़कर कारण शरीर को भी प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे
रोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक
स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। योग-ध्यान से इन्हें शीघ्र ठीक करना चाहिये। विकृत
मानसिकता या भावनात्मक असंतुलन के कारण जो रोग सीधे सूक्ष्म शरीर में होते हैं,
वे भौतिक शरीर के स्थायी व दीर्घकालिक रोग बनकर उभरते हैं। यों कारण
शरीर से उत्पन्न रोगों का निवारण सबसे अधिक समय लेता है। कई बार कारण शरीर से
उत्पन्न रोग भौतिक शरीर को अत्यन्त रुग्ण बनाकर उसे अंतिम अवस्था तक पहुँचा देते
हैं।
तीन शरीर पर विजय प्राप्ति / Triumph over Three Bodies
उत्तम गुरु के सान्निध्य में निर्बाध योग साधना करके जिन्हें स्थूल,
सूक्ष्म और कारण शरीर पर अधिकार प्राप्त हो गया है, वे जन्म-मरण के जंजाल से मुक्त
हो गये हैं। ऐसे सिद्ध योगी केवल एक वासना के सहारे मात्र जनकल्याण के लिए ही
संसार में सशरीर रहते हैं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन की एक अद्भुत घटना है। उन्हें जो लोग बहुत निकट
से जानते थे, उनको यह बात जानकर अत्यंत क्षोभ
होता था कि रामकृष्ण जैसा परमहंस और समाधिस्थ योगी भोजन के प्रति बहुत लोलुप था। वे
भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कि कई बार उठकर रसोईघर में जाकर पत्नी शारदा को
पूछते कि बहुत देर हो गयी, क्या बन रहा है? कभी-कभी तो ब्रह्म-चर्चा
भी छोड़कर रसोईघर में पहुँच जाते। ऐसे में उन्हें पत्नी के अलावा शिष्यगण भी समझाते
थे कि वे ऐसा न करें; क्योंकि लोग कहते हैं कि जिनकी भोजन-वासना शेष है, वह क्या
ब्रह्म के बारे में सझायेगा!
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक दिन पत्नी शारदा जो स्वयं भी सिद्ध योगिनी
थीं, को अपनी भोजन-वासना के बारे में बताया-- जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरुचि प्रकट
करूँ, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की
यात्रा केवल तीन दिन शेष रह गयी हैं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी
उपेक्षा हो, समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत निश्चित है।
माता शारदा ने इसका अर्थ पूछा तो ब्रहमनिष्ठ स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने समझाया--
मेरी समस्त वासनाएँ क्षीण हो गयी हैं। मेरी सारी इच्छाएँ विलीन हो गयी हैं। मेरे सारे
विचार नष्ट हो गये हैं। केवल जगत के हित के लिए मैं रूका हुआ हूँ। मैं मात्र एक वासना
(भोजन-वासना) को जबर्दस्ती पकड़ा हुआ हूँ। मैं चेष्टा करके रूका हुआ हूँ।
एक दिन माता शारदा थाली लगाकर पति स्वामी रामकृष्ण के कमरे में गयीं। स्वामीजी
बैठे हुए देख रहे थे। उन्होंने थाली देखकर आँखें बंद कर ली। लेट गए और पत्नी शारदा
की तरफ पीठ कर ली। भोजन के प्रति अरूचि और तीन दिन बाद मौत की बात याद आते ही
पत्नी के हाथ से थाली छूट गयी। वह रोने लगीं। पति ने रोने से मना किया और कहा कि
वह जो कहती थीं, वह बात भी अब पूरी हो गयी- अन्तिम वासना (भोजन-वासना) भी अब
समाप्त हो गयी। ठीक तीन दिन बाद स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने शरीर त्याग दिया। एक छोटी
सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा का आधार बनी
थी। वह वासना भी चली गयी तो जीवन-यात्रा का आधार खत्म हो गया। जिस दिन अन्तिम वासना भी क्षीण हो जाती है, उसी दिन जीवन की यात्रा खत्म होकर अनन्त की अन्तहीन यात्रा
आरम्भ हो जाती है। उसके बाद न जन्म है और न मृत्यु। उसके बाद न एक है, न अनेक है।
योग दिवस का इतिहास / History of Yog Day
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 जून को 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' (International yog day) या 'विश्व योग दिवस' (World
yog day) के रूप में मनाने को गुरुवार 11 दिसम्बर 2014 ईस्वी को संयुक्त
राज्य अमेरिका के न्यूयार्क स्थित मुख्यालय में मान्यता दे दी। संयुक्त राष्ट्र महासभा
के अध्यक्ष सैम के. कुटेसा ने न्यूयार्क में इस आशय की घोषणा की। श्री कुटेसा ने कहा
कि 170 से अधिक देशों ने 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' के प्रस्ताव का समर्थन किया है
जिससे पता चलता है कि योग के अदृश्य और दृश्य लाभ विश्वभर के लोग को कितना आकर्षित
करते हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष ने भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
को भी बधाई दी जिनकी पहल से 21 जून को हर साल अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया
गया है। उन्होंने कहा कि सदियों से सभी वर्गों के लोग शरीर और मन को एकाकार करने में
सहायक योग का अभ्यास करते आये हैं। योग विचारों एवं कर्म को सामंजस्यपूर्ण ढंग से एकाकार
करता है तथा स्वास्थ्य को ठीक रखता है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की
मून ने कहा कि इस क्रिया (योग) से शान्ति एवं विकास में योगदान मिल सकता है। यह मनुष्य
को तनाव से राहत दिलाती है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों से अपील की
कि वे योग को प्रोत्साहित करने में मदद करें।