ज्ञानं विशिष्टं न तथाहि यज्ञा:, ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञै:। (कर्मपरक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है।)
-- याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य 'शतपथ ब्राह्मण' की रचना है। इस ग्रंथ में 100 अध्याय हैं जो 14 कांडों में बँटे हैं। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। कांड 3, 4, 5 में पशुबंध और सोमयज्ञों का वर्णन है। कांड 6, 7, 8, 9 का संबंध अग्निचयन से है। इन 9 कांडों के 60 अध्याय किसी समय 'षटि पथ' के नाम से प्रसिद्ध थे। दशम कांड 'अग्निरहस्य' कहलाता है जिसमें अग्निचयन वाले 4 अध्यायों का रहस्य निरूपण है। कांड 6 से 10 तक में शांडिल्य को विशेष रूप से प्रमाण माना गया है। ग्यारहवें कांड का नाम 'संग्रह' है जिसमें पूर्वर्दिष्ट कर्मकांड का संग्रह है। कांड 12, 13, 14 परिशिष्ट कहलाते हैं और उनमें फुटकर विषय हैं। सोलहवें कांड में वे अनेक अध्यात्म विषय हैं जिनके केंद्र में ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य का महान् व्यक्तित्त्व प्रतिष्ठित है। उससे ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य अपने युग के दार्शनिकों में सबसे तेजस्वी थे। मिथिला के राजा जनक उनको अपना गुरु मानते थे। वहाँ जो ब्रह्मविद्या की परिषद बुलाई गई जिसमें कुरु, पांचाल देश के विद्वान भी सम्मिलित हुए उसमें याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि रहा।
-- इन दोनों की एकता ही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। सूर्य की एक कला या अक्षर प्रणव (ॐ) रूप से मानव के केंद्र की संचालक शक्ति है। मानव भी अमृत का ही एक अंश है। याज्ञवल्क्य का यह अध्यात्म दर्शन अति महत्वपूर्ण है। यही याज्ञवल्क्य का अयातयाम अर्थात् कभी बासी न पड़नेवाला ज्ञान है।
सूर्य विद्या एवं प्रणव
-- वैदिक युग में अत्यन्त विद्वान महर्षि याज्ञवल्क्य हुए हैं। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम कात्यायनी तथा दूसरी का मैत्रेयी था। कात्यायनी सामान्य स्त्रियों के समान थीं, वह घर-गृहस्थी में ही व्यस्त रहती थीं, सांसारिक भोगों में अधिक रूचि थी। सुस्वादी भोजन, सुन्दर वस्त्र और विभिन्न प्रकार के आभूषणो में ही वह खोई रहती थीं। याज्ञवल्क्य जैसे प्रसिद्ध महर्षि की पत्नी होते हुए भी धर्म में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता था। मैत्रेयी अपने पति के साथ प्रत्येक धार्मिक कार्य में लगी रहती थी। उनके प्रत्येक कर्मकाण्ड में सहायता देना तथा आवश्यक वस्तु उपलब्ध कराने में उसे आनन्द आता था। अध्यात्म में उसकी गहरी रूचि थी। पति के साथ अधिक समय बिताने के कारण आध्यात्मिक जगत में उसकी गहरी पैठ थी। वह प्रायः महर्षि याज्ञवल्क्य के उपदेशों को सुनती, उनके धार्मिक कर्म में सहयोग देती तथा स्वंय भी चिन्तन-मनन में लगी रहती थी। सत्य को जानने की उसमें तीव्र जिज्ञासा थी।
याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी
-- जब याज्ञवल्क्य संन्यास लेने लगे तो उन्होंने दोनों पत्िनयों को बुलाकर कहा-'' मेरी जो भी सम्पत्ति है उसे मैं तुम दोनों में बराबर-बराबर बाँट देना चाहता हूँ।'' कात्यायनी यह सुनकर चुप रही। तब मैत्रेयी ने कहा- ''भगवन्! इस नश्वर सम्पत्ति को लेकर हम क्या करेंगी? यह तो क्षणिक है। हमें तो आप वह सम्पत्ति दें जिसके कारण आप यथार्थ सम्पत्तिवान् समझे जाते हैं। उसी सम्पत्ति की हमें अधिकारिणी बनाकर उसमें से हिस्सा दीजिये।'' याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को बहुत समझाया कि सम्पत्ति से किस तरह संसार में सुख मिलता है, किस प्रकार बिना सम्पत्ति के असुविधा होती है; किन्तु मैत्रेयी ने उसे स्वीकार नहीं किया। उसने कहा- ''भगवन्! संसारी सुख का मूल्य ही क्या है? नाशवान वस्तु के भरण-पोषण में इतनी चिन्ता की क्या जरूरत? मुझे तो वह ज्ञान दीजिये जिससे सब लालच ही विलीन हो जाय। ब्रह्मवादिनी पत्नी की बात सुनकर महर्षि अपनी पत्नी की सत्य के प्रति जिज्ञासा को जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे बोले- ''देवि! तुम मुझे पहले से ही बहुत प्यारी थीं, किन्तु आज इस उत्तर को सुनकर तो मैं तुम पर बहुत ही अधिक प्रसन्न हुआ। देवि! मैं तुम्हें वह ज्ञान दूंगा जिससे वास्तव में तुम्हारी आत्मा का कल्याण होगा और तुम संसार के माया-मोह से सदा के लिए मुफ्त हो जाओगी। यथार्थ बात यही है, सच्चा धन तो ब्रह्मज्ञान ही है।'' ऐसा ही हुआ, मैत्रेयी ने पति द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके ईश्वर को पा लिया और उसका मन स्थायी शांति तथा आनन्द से परिपूर्ण हो गया।
स
-- एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य और जनक आपस में बैठकर किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी जनक ने जिज्ञासावश महर्षि याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया, ''महर्षि, हम किसकी ज्योति से देखने की सामर्थ्य प्राप्त करते हैं?’ महर्षि बोले, ''सूर्य की ज्योति से।'' यह सुनकर जनक बोले, ''जब सूर्य अस्त हो जाता है तो हमें प्रकाश कहां से प्राप्त होता है?'' जनक का प्रश्न सुनकर महर्षि बोले, ''सूर्य के अस्त हो जाने पर चंद्रमा हमें प्रकाश देता है।'' यह जवाब सुनकर जनक फिर बोले, ''महर्षि, यदि आसमान में बादल छा जाएं और अमावस की काली रात में हम मार्ग भटक जाएं, तो उस समय प्रकाश कहां से उत्पन्न होता है और हम किस प्रकाश के सहारे भटके मार्ग से सही मार्ग पर आ पाते हैं?'' जनक के फिर से किए गए प्रश्न पर महर्षि मुस्कुराते हुए बोले, ''तब शब्दों के सहारे हमारा रास्ता प्रकाशमान होता है और शब्द हमसे कहते हैं-- भटको नहीं मैं तुम्हारे साथ हूं, मेरी आवाज को माध्यम मानकर, प्रकाश जानकर बढ़ते चलो।'' जनक यह उत्तर सुनकर फिर प्रश्न करते हुए बोले, ''यदि सूर्य, चंद्रमा तथा शब्दों का भी अभाव हो, तो उस समय हमारा मार्ग प्रशस्त करने के लिए कौन प्रकाश का रूप लेता है?'' महर्षि याज्ञवल्क्य ने जनक के इस प्रश्न पर कहा, ''जनक जी, यदि प्रकाश सब ओर से लुप्त हो जाए और अंधकार में कुछ न सूझे तो उस समय आत्मा की ज्योति सर्वोपरि होती है। हमारी आत्मा हमें विपत्तियों में, तनाव में, पथरीले मार्ग पर व हर मोड़ पर सदैव सच्चा रास्ता दिखाने को तत्पर रहती है। आत्मा जैसा निश्चल, स्वच्छ, शुभ्र प्रकाश इस पृथ्वी में अन्य कहीं भी विद्यमान नहीं है।'' महर्षि याज्ञवल्कय के इस जवाब पर (आत्मा का प्रकाश ही सर्वोत्तम है व सब प्रकाश लुप्त हो जाने पर आत्मा का प्रकाश ही मानव को राह दिखाता है और उसे जीना सिखाता है) जनक संतुष्ट हो गए और उनके सामने नतमस्तक हो गए।
आत्मा का प्रकाश ही मानव को राह दिखाता है-स्मृति-- इनके द्वारा विरचित 'याज्ञवल्क्य-स्मृति' एक महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है, जिसपर 'मिताक्षरा' आदि प्रौढ़ संस्कृत-टीकाएँ हुई हैं। याज्ञवल्क्य-स्मृति प्रसिद्ध है। इस स्मृति में 1003 श्लोक हैं। इसपर विश्वरूप कृत'बालक्रीड़ा'(800-825), अपरार्क कृत'याज्ञवल्कीय धर्मशास्त्र निबंध'(12वीं शती) और विज्ञानेश्वर कृत 'मिताक्षरा'(1070-1100) टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। कारणे का मत है कि इसकी रचना लगभग विक्रम पूर्व पहली शती से लेकर तीसरी शती के बीच में हुई। स्मृति के अंत:साक्ष्य इसमें प्रमाण है। इस स्मृति का संबंध शुक्ल यजुर्वेद की परंपरा से ही था। इसमें तीन कांड हैं आचार, व्यवहार और प्रायश्चित। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत बेहतर है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है। मानव धर्मशास्त्र की रचना प्राचीन धर्मसूत्र युग की सामग्री से हुई, ऐसे ही याज्ञवल्क्य-स्मृति में भी प्राचीन सामग्री का उपयोग करते हुए नएसामग्री को भी स्थान दिया गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की सामग्री से भी याक्ज्ञवल्क्य के अर्थशास्त्र का विशेष साम्य है। वृहदारण्यकोपनिषद-- वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य का यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि ब्रह्म ही सर्वोपरि तत्त्व है और अमृत्त्व उस अक्षर ब्रह्म का स्वरूप है। इस विद्या का उपदेश याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी को दिया था। शरीर त्यागने पर आत्मा की गति की व्याख्या याज्ञवल्क्य ने जनक से की। यह भी वृहदारण्यकोपनिषद का विषय है। जनक के उस बहुदक्षिण यज्ञ में एक सहस्र गौओं की दक्षिणा नियत थी जो ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य ने प्राप्त की। शांतिपर्व के मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक (इनका नाम दैवराति है) का अव्यय अक्षर ब्रह्मतत्त्व के विषय में एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। उसमें नित्य अभयात्मक ब्रह्मतत्व का अत्यंत स्पष्ट और सुदर विवेचन है। उसके अंत में याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा--''हे राजन्, क्षेत्रज्ञ को जानकर तुम इस ज्ञान की उपासना करोगे तो तुम भी ऋषि हो जाओगे। कर्मपरक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है (ज्ञानं विशिष्टं न तथाहि यज्ञा:, ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञै:, शांति. 306।105)।''वृहदारण्यक उपनिषद' ,वह भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा ही हमें प्राप्त है। यजुर्वेद-- भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य ने प्रत्यक्ष देव सूर्य से प्रार्थना की--''हे भगवन! मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिली हो।'' भगवान सूर्य ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिया और अश्वरूप धारण कर यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश दिया, जो तब तक किसी को प्राप्त नहीं हुए थे। अश्वरूप सूर्य से प्राप्त होने के कारण शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा 'वाजसनेय' और मध्य दिन के समय प्राप्त होने से 'माध्यन्दिन' शाखा के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। भागवत के अनुसार याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद की 15 शाखाओं को जन्म दिया। शुक्ल यजुर्वेद-संहिता के मुख्य मन्त्रद्रष्टा ऋषि आचार्य याज्ञवल्क्य हैं। उन्होंने ही हमें 'शुक्ल यजुर्वेद' दिया है। इस संहिता में चालीस अध्याय हैं। 40 अध्यायों में पद्यात्मक मंत्र और गद्यात्मक यजु: भाग का संग्रह है। इसके प्रतिपाद्य विषय ये हैं- दर्शपौर्णमास इष्टि (1-2 अ0); अग्न्याधान (3 अ0); सोमयज्ञ (4-8 अ0); वाजपेय (9 अ.); राजसूय (9-10 अ.); अग्निचयन (11-18 अ.) सौत्रामणी (19-21 अ.); अश्वमेघ (22-29 अ.); सर्वमेध (32-33 अ.); शिवसंकल्प उपनिषद् (34 अ.); पितृयज्ञ (35 अ.); प्रवग्र्य यज्ञ या धर्मयज्ञ (36-39 अ.); ईशोपनिषत् (40 अ.)। यज्ञीय कर्मकांड का संपूर्ण विषय यजुर्वेद के अंतर्गत आता है। आज प्राय: अधिकांश लोग इस वेद शाखा से ही सम्बद्ध हैं और सभी पूजा, अनुष्ठानों, संस्कारों आदि में इसी संहिता के मन्त्र विनियुक्त होते हैं। 'रुद्राष्टाध्यायी' नाम से जिन मन्त्रों द्वारा भगवान रुद्र (सदाशिव) की आराधना होती है, वे इसी संहिता में विद्यमान हैं। इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य का लोक पर महान उपकार है। इस संहिता का जो ब्राह्मण भाग 'शतपथ ब्राह्मण' के नाम से प्रसिद्ध है और जो '4 महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र का प्रणयन हुआ-- से शास्त्रार्थ-- गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि ब्रह्मवादिनी नारियों से याज्ञवल्क्य का ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्मतत्त्व-सम्बन्धी शास्त्रार्थ हुआ। -- महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्िनयाँ थीं- एक तो महर्षि भरद्वाज की पुत्री कात्यायनी, दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी। मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी हुई। शुक्ल पक्ष की पंचमी को महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म हुआ था। यज्ञ में पत्नी सावित्री की जगह गायत्री को स्थान देने पर सावित्री ने ब्रह्मा को शाप दे दिया। वे ही कालान्तर में याज्ञवल्क्य के रूप में चारण ॠषि के यहाँ जन्म लिया। वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों तथा उपदेष्टा आचार्यों में महर्षि याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि है। ये महान अध्यात्मवेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा तथा श्रीरामकथा के मुख्य प्रवक्ता थे। भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा इन्हें प्राप्त थी। पुराणों में इन्हें ब्रह्माजी का अवतार बताया गया है। श्रीमद्भागवत में आया है कि ये देवरात के पुत्र थे। याज्ञवल्क्य, वैदिक साहित्य में 'शुक्ल यजुर्वेद' की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है। इनका काल लगभग 1800 ई. पू. माना जाता है। विदेहराज जनक जैसे अध्यात्म-तत्त्ववेत्ताओं के ये गुरु रहे हैं। इन्होंने प्रयाग में भरद्वाज को भगवान श्रीराम का चरित सुनाया। इन्हें ज्ञान हो जाने पर लोग बड़े उत्कट प्रश्न करते थे, तब सूर्य ने कहा- ''जो तुमसे अतिप्रश्न तथा वाद-विवाद करेगा उसका सिर फट जायेगा।'' शाकल्य ॠषि ने उपहास किया तो उनका सिर फट गया।-- याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे। इन्हीं से उन्हें मन्त्र शक्ति तथा वेद ज्ञान प्राप्त हुआ। वैशम्पायन अपने शिष्य याज्ञवल्क्य से बहुत स्नेह रखते थे और इनकी भी गुरु में अनन्य श्रद्धा एवं सेवा-निष्ठा थी। एक बार गुरु वैशम्पायन से इनका कुछ विवाद हो गया। गुरु रुष्ट हो गये और कहने लगे-- ''मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मन्त्रों का उपदेश दिया है, उन्हें तुम वमन कर दो।'' निराश हो याज्ञवल्क्य ने सारी वेद मन्त्र विद्या मूर्तरूप में उगल दी, जिन्हें वैशम्पायन के दूसरे अन्य शिष्यों ने तीतर पक्षी बनकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लिया और वे सुरम्य वेद मन्त्र उन्हें प्राप्त हो गये। यजुर्वेद की वही शाखा जो तीतर बनकर ग्रहण की गयी थी, 'तैत्तिरीय उपनिषद्' के नाम से प्रसिद्ध हुई। याज्ञवल्क्य ने वाष्कल मुनि से ॠगवेद संहिता और वैशम्पायन के रुष्ट होने पर भगवान सूर्य से यजुर्वेद संहिता पढ़ी।
2 टिप्पणियां:
महर्षि याज्ञवल्क का जन्म देवरात के यहा हुवा ये लेकिन चारण देवरात के यहां हुवा और सावित्री के श्राप के कारण हुवा ये श्लोक अगर उपलब्ध है तो उस ग्रंथ के संदर्भ के साथ रखने की कृपा करे जी मैं
रणजीतसिंह चारण गुजरात वोट्सेप फेसबुक मो नो 9925030192
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