गुरुवार, 23 अगस्त 2012

हिन्दू और मुसलमान के धार्मिक प्रेम Religious Love of Hindus & Muslims

 
रामचरितमानस की रचना के दौरान गोस्वामी तुलसीदास

  
    भारत में कई ऐसे अवसर आये, जब सनातन (हिन्दू) और इस्लाम (मुसलमान) के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक एकता के व्यावहारिक भाव प्रकट हुए। ये भाव दूरगामी और सकारात्मक प्रभाववाले सिद्ध हुए और हो रहे हैं। दरअसल, विश्व का सब से प्राचीन धर्म सनातन धर्म ही है, जिसे हिन्दू धर्म भी कहा जाता है। सच यह है कि सभी धर्म इसी धर्म के अंश हैं। अन्य धर्मों के जिन विद्वानों ने इस सच्चाई को माना है, उन्होंने सनातन धर्म को 'मातृधर्म' के रूप में सम्मान दिया है। यहाँ ऐसे ही कुछ मुसलमान विद्वानों की चर्चा करता हूँ :

    १. रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना अपने प्रिय मित्र अब्दुल रहीम खानखाना, जो बनारस {वाराणसी} के गवर्नर थे, के संरक्षण में रहकर की। रहीम खानखाना वास्तव में कृष्ण भक्त थे और आज भी उन के दोहे हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं। बनारस के शक्तिशाली ब्राह्मण पण्डे तुलसीदास को नुक़सान पहुँचाना चाहते थे। वे चाहते थे कि तुलसीदास 'रामचरितमानस' की रचना आम बोलचाल की भाषा अवधी में नहीं; बल्कि शुद्ध संस्कृत में करें।

    २. अवध के नवाब तेरह दिनों तक होली मनाते थे। नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में कृष्ण रासलीला खेली जाती थी। भगवान हनुमान के सम्मान के तहत राज्य में बंदरों को मारना कानूनी अपराध था। एक मुसलमान लेखक सुविख्यात नाटक ‘इन्द्र सभा’ का मंचन करता था, जिसे तमाम जनता बड़े चाव से देखती थी। जब अंग्रेज़ों ने अवध के राजा को वनवास देकर अवध से निकाल दिया, तब प्रजा रो-रोकर ‘‘राम जी को फिर हुआ वनवास’’ गीत गाती थी। नवाब का कलकत्ता का महल जिस में वह नजरबंद रहते थे,‘राधा मंजिल’ कहलाता था।   

    ३. पंजाबी सूफी कवि गुरु बाबा बुल्लेशाह का असली नाम माधव लाल हुसैन था, जो न हिन्दू और न मुसलमान नाम है। उन की सब से पसंदीदा पंक्तियां थीं :

‘‘मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे,

ढा दे जो कुछ ढाहंदा,

पर किसी दा दिल ना ढाई,

रब दिलों विच रहदां’’।

    ४. अहमदाबाद की सूफी सुहागनें खुद को भगवान की दुल्हन मानती थीं। वे हिन्दू दुल्हनों की तरह शृंगार करती थीं, लाल सिंदूर लगाती थीं। आज तक लाल सिंदूर और काँच की चूड़ियाँ (उनके दरगाह पर) चढ़ाई जाती हैं।

    ५. मुगल सम्राट शाहजहाँ के प्रिय कवि का नाम जगन्नाथ पंडित था जिन्हें सम्राट ने ‘कवि राय’ की उपाधि से नवाज़ा था। कवि राय हिन्दी व संस्कृत में रचनाएँ लिखते थे। शाहजहाँ की पत्नी बेगम मुमताज़ महल की प्रशंसा में गीत लिखनेवाले मुख्य कवि वंशीधर मिश्र और हरि नारायण मिश्र थे। शाहजहाँ के काल में मनेश्वर, भगवती और बेदांग राजा नामक अन्य विद्वान भी थे जो ज्योतिष पर आधारित शास्त्रों की रचना करते थे और उन्हें सम्राट को (संस्कृत में) समझाते थे।

    ६. बादशाह शाहजहाँ के सब से बड़े पुत्र दारा शिकोह एक उच्च कोटि के संस्कृत विद्वान थे जिन्हें काशी के पंडित, सिक्ख गुरु और सूफी संत समान रूप से चाहते थे। कहा जाता है कि दारा शिकोह को एक सपना आया था जिस में भगवान राम ने उन्हें उपनिषद्, योग वासिष्ठ और भगवद्गीता को फारसी में अनूदित करने का आदेश दिया था। दारा शिकोह का यह अनुवाद मैक्सम्यूलर ने दुनियाभर में प्रचलित किया। बयालीस वर्ष की उम्र में दारा शिकोह ने फारसी में ‘मजमौल-बहरैन’ (दो समुन्दरों का मिलाप अर्थात वैदिक और इस्लामी संस्कृतियों का मिलाप) नाम के ग्रंथ की रचना की जिस में उन्होंने हिन्दू धर्म व इस्लामी सोच की समानताओं का बखान किया। इस रचना के अनुसार हिन्दू वेदान्त और इस्लामी सूफियत सिर्फ एक ही सोच के अलग-अलग नाम हैं। हिन्दू धर्म में ‘मोक्ष’ और इस्लाम में ‘जन्नत’ जाने का अर्थ एक ही है यानी मुक्ति पा जाना।

    ७. प्रसिद्ध मराठा राजा शिवाजी की फौज में हिन्दू और मुसलमान दोनों अधिकारी थे। शिवाजी सभी धर्मों को समान आदर देते थे। उन की प्रजा और सेना को सख्त निर्देश थे कि वे औरतों, बच्चों और कुरान, गीता आदि धार्मिक ग्रंथों का कभी अनादर नहीं करेंगे और न ही उन पर हमला करेंगे।

    ८. स्वर्ण मंदिर की नींव गुरु अर्जुन देव के प्रिय मित्र हज़रत मियाँ मीर ने रखी थी, जो एक मुसलमान सूफी सन्त थे। मियाँ मीर वास्तव में शाहजहाँ के पुत्र मुगल युवराज दारा शिकोह के गुरु भी थे। बचपन में गुरु अर्जुन देव ने दारा शिकोह की जान बचायी थी। जिस के कारण दोनो में बहुत स्नेह था।

    ९. गुरु नानक के जीवनभर के साथी थे मियाँ मरदाना, जो एक मुसलमान थे और रबाब वादक थे। मियाँ मरदाना गुरुवाणी गानेवाले पहले गायक हैं। कहा जाता है कि मियाँ मरदाना गुरु नानक के साथ हरिद्वार से मक्का तक घूमे। मरदाना के वंशज पाँच सौ साल तक स्वर्ण मंदिर में रबाब बजाते थे। यह किस्सा सन् १९४७ में भारत और पाकिस्तान बँटवारे के साथ खत्म हुआ।

    १०. रसखान एक मुसलमान कृष्ण भक्त थे जो एक बनिये के बेटे को कृष्ण का अवतार मानकर उस की पूजा करते थे। वे उस के नजदीक रहने के लिए वृंदावन में संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे। रहीम, हज़रत सरमद, दादू, बाबा फरीद जैसे बहुत से मुसलमान कवियों ने बड़ी तादाद में कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत रचनाएँ कीं जिन में से कुछ 'गुरुग्रंथ साहिब' में शामिल हैं।

    ११. मुसलमान राजा बाज बहादुर और राजपूत पुत्री रूपमति के प्रेम के किस्से माण्डू (वर्तमान मध्य प्रदेश के धार ज़िले में स्थित) में आज भी सुनाये जाते हैं। माण्डू युद्ध में पराजित होने के बाद रानी रूपमति ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली; क्योंकि उन्हें बाज बहादुर से बिछड़ना गंवारा नहीं था।

    १२. गुरु गोविन्द सिंह के प्रिय मित्र सूफ़ी बाबा बदरुद्दीन थे। औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध में बाबा बदरुद्दीन ने अपनी, अपने बेटों, अपने भाइयों और अपने सात सौ शिष्यों की जान न्योछावर कर दी थी। उन के अनुसार, यह असमानता और अन्याय के खिलाफ इस्लाम द्वारा सुझाया सच्चा रास्ता है। बदरुद्दीन बाबा को गुरु गोविन्द सिंह बेहद प्यार व सम्मान देते थे। गुरुजी ने उन्हें अपना खालसा कंघा और कृपाण भेंट में दी थी। ये दोनों चीज़ें बाबा बदरुद्दीन के दरगाह ‘कंघे शाह’ में अभी तक महफूज़ रखे हैं।

    १३. सन् १८५७ ईस्वी की क्रांति में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की रक्षा उन के मुसलमान पठान जनरल गुलाम गौस खान और खुदादाद खान ने की थी। उन्होंने अपनी मौत तक झाँसी के किले की हिफाज़त की। उन के अंतिम शब्द थे, ‘‘अपनी रानी के लिए हम अपनी जान न्योछावर कर देंगे।’’

    १४. सन् १९४२ ईस्वी में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के नारे ‘जय हिन्द’ की रचना कैप्टन आबिद हसन ने की थी। यह नारा फौज में अभिवादन का तरीका बनाया गया और सभी भारतीयों ने इसे मूल मंत्र की तरह स्वीकारा। (समरथ पत्रिका से साभार/prawakta)