वह भी क्या दिन थे, जब हम अपनी मर्जी का करते थे। जो मन में आता था, करते थे। जो मन में नहीं आता था, नहीं करते थे। सारी दुनिया को अपनी बपौती समझ जो भी जी आता, करते रहे। बेख़ौफ़ हो घूमते थे।बिन्दास... बेखौफ... बेफिक्र... बेपरवाह!
जाने कहाँ गये वो दिन...
हाय रे वायरस! तूने कर दिया जीवन में व्हाई (Why) रस। दुनिया रास-रंग के रस को तरस गयी। शृँगार रस से भरी ज़िन्दगी थी। ऐसी रसहीन ज़िन्दगी जीने से क्या फ़ायदा?
हाय-हाय! हाय ड्यूट! हाय क्यूट! ऐसा कहती दुनिया अचानक ‘हाय-हाय’ पर उतर आयी। ‘काँय-काँय’ पर विवश हो गयी। मन तो कर रहा है कि सारी दुनिया पर चिल्लाएँ, ख़ुद पर झल्लाएँ! मगर होगा क्या? सुननेवाला कौन है- सड़कें तो वीरान पड़ी हैं, दीवारें ही सुनेंगी। मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे- सब के कपाट बन्द हैं। भगवान के पास जाकर घण्टी भी नहीं बजा सकते; क्योंकि कोरोना ने सब की घण्टी बजा दी है और बजा दिया है बारह!
पीढ़ियों का फ़ासला
अब तो यही लगता है कि आनेवाले दिनों में यदि बच गये तो आनेवाली पीढ़ियों को सुनाने के लिए हांेंगी कहानियाँ कि कोरोना से पहले हम ऐसे जीते थे और इस के आने के बाद ऐसे जीने लगे। पहले फ्री स्टाइल में जीते थे और फिर ‘रिरियाते स्टाइल’ में जीने को बाध्य हुए। नयी पीढ़ी से आगे कहेंगे- तुम्हें फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारे लिए यही रियल स्टाइल है मगर मेरे लिए तो यह रील स्टाइल है। अभी से ही कोरोना से पहले का समय किसी सुखद फिल्म की तरह लगने लगा है।
अतीत और वर्तमान
‘‘वर्तमान, अतीत से ज़्यादा दुःखद हो तो अतीत कितना सुखद लगता है!’’ यादें...यादें तो लाइब्रेरी होती हैं- अच्छी बातों को महसूस कीजिये। अब ठण्डी साँस लेने से क्या फायदा? अब तो गर्म हवा आने लगी है। हमें इसी के साथ जीना होगा या फिर ऐसा करना होगा कि हम गर्म हवा में सुखपूर्वक जीने लायक बन जाएँ अथवा सब कुछ पहले की तरह हो जाय। ओह! फिर से एक ठण्डी आह आ ही गयी। बिन्दास जीवन लगता है कि बीते समय की बात हो गयी है।
2 टिप्पणियां:
Dhanyawad aapke article ke liye
Sarkari Yojana
अनिल जी! आप का स्वागत है...
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