गुरुवार, 22 अगस्त 2013

लुट गया रुपया, हुआ 65 पार


    शीतांशु कुमार सहाय
    दरअसल, आर्थिक सुधारों का अभाव, बेलगाम भ्रष्टाचार, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी जैसे कुछ प्रमुख कारण हैं जिन्होंने भारत के रुपये को रसातल पर पहुँचा दिया। देश गहरे आर्थिक संकट में है, आर्थिक विकास का उभरता हुआ, बड़ा होता हुआ बुलबुला फोड़ दिया गया है। जब जुलाई में भारतीय मुद्रा रुपया अमेरिकी मुद्रा डॉलर के मुकाबले लुढ़ककर 60 रुपये प्रति डॉलर की दर से भी नीचे पहुँच गया था तब लगा कि उसके गिरने की यही अन्तिम सीमा है। पर, उसे और अधिक गिरना था और भारतीयों को और अधिक मनोवैज्ञानिक सदमे सहने थे। सो 16 अगस्त से अब तक के बीच वह 61.81 से गिरकर 65 रुपये प्रति डॉलर से भी कम मूल्य पर आ गया। ब्रिटेन की मुद्रा पाउण्ड के मुकाबले तो इसकी कीमत 100 से भी कम हो गयी है। एक समय था जब सरकार द्वारा रुपये का अवमूल्यन किया जाना बड़ा राजनीतिक व आर्थिक निर्णय माना जाता था। उस पर सरकार की स्थिरता निर्भर करती थी। बात अब वैसी नहीं रही। हर दिन रुपये का अवमूल्यन हो रहा है। उसे संभालने के प्रयत्नों के असर नहीं हो रहे हैं। जनवरी से अब तक रुपये का मूल्य 17 प्रतिशत गिरा। यों आयात महंगा होता जा रहा है, महंगाई बढ़ती जा रही है। मतलब यह कि रुपये के अवमूल्यन से सर्वाधिक हानि आम जनता को हो रही है। ऐसे में सरकार को कम ब्याज दर और रुपये की स्थिरता में से किसी एक को चुनना चाहिये। उसने दोनों को चुना। लिहाजा उसे मुँह की खानी पड़ी। सरकार को व्यापार, वित्त व खाता उदारीकरण के क्षेत्र में आर्थिक सुधारों की दिशा को विपरीत घुमाने वाले नीतिगत निर्णयों को वापस लेना होगा। पर, आर्थिक नीति के क्षेत्र में विचारों के अभाव की स्थिति यह है कि पिछले सप्ताह विदेशी मुद्रा के बाहर जाने को रोकने के लिए सरकार ने 71 वर्ष बाद ऐसे नियन्त्रण लगाये जिन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने लगाये थे। इससे मुद्रा बाजार में गलत संकेत गया और रुपये के लुढ़कने की गति तेज हो गयी। विदेशी निवेशकों द्वारा लगातार पूँजी निकासी से बाजार पस्त है। हालाँकि ब्राजील के रियाल और अर्जेंटीना के पीसो का भी ऐसा ही हाल है। वैसे वृहस्पतिवार को रिजर्व बैंक के 8000 करोड़ रुपये के बॉण्ड खरीदने से रुपये की गिरावट कुछ समय के लिए रूकी मगर दोपहर बाद पुनः रुपया लुढ़कने लगा। यों प्रतिभूतियों की बिकवाली बढ़ने से सेंसेक्स व निफ्टी में भी सुधार हुआ जिसे स्थाई नहीं कहा जा सकता।
    इस बीच देश आर्थिक रूप से बदहाल होता जा रहा है। यदि शीघ्र ही रुपये की ढलान को रोका नहीं गया तो हालात वर्ष 1991 जैसे हो सकते हैं। अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री की ‘आर्थिक सूझ-बूझ’ अब निशाने पर है। भारतीय जनता पार्टी के सांसद व पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा का कहना है कि सरकार की साख ही खत्म हो गयी है। देश की अर्थव्यवस्था उसके नियन्त्रण से बाहर जा रही है, वह कोई उपाय करने में असमर्थ है। तभी तो बुधवार को डॉयचे बैंक की रिपोर्ट कि रुपया एक-दो महीने में 70 के पार जा सकता है, पर विश्वास होने लगा है। हालाँकि मनमोहन सिंह वर्तमान आर्थिक संकट का कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को बता रहे हैं। यह तर्क गले नहीं उतरता; क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था संकट से उबर चुकी है और उसमें उछाल दीख रहा है। इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास दर गिरकर अब केवल 5 प्रतिशत के निकट है। उसके 6 प्रतिशत तक पहुँचने के कोई आसार नहीं हैं। ऐसे में मुद्रा बाजार की आवाज को सुनने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय ने उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। चालू खाते में घाटा बहुत अधिक है, ऊपर से रुपये की परिसम्पत्तियों को खरीदने में लोगों की दिलचस्पी कम हो गयी; क्योंकि सरकार अनेक तरह के नियन्त्रणों से रुपये की कीमत को स्थिर रखने की नाकाम कोशिश में लगी थी और लगी है। लोगों के लिए मुद्रा बाजार के जोखिम को कम करने के रास्ते बन्द हो गये हैं। नतीजतन वित्तीय बाजार के उदारीकरण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता संदिग्ध हो गयी। वैसे रुपये का लुढ़कना रोग नहीं, रोग का लक्षण है। जब तक इसका निदान नहीं होगा, लक्षण बार-बार प्रकट होंगे और अर्थव्यवस्था स्वस्थ नहीं रहेगी।
न बीवी न बच्चा, न बाप बड़ा न मइया, द होल थिंग इज दैट कि भइया सबसे बड़ा रुपइया..... महमूद की फिल्म ‘सबसे बड़ा रुपइया’ का यह गाना वर्ष 1976 में सबकी जुबान पर था जब एक डॉलर की तुलना में रुपया 8.50 के लगभग था। आज यह 65 रुपये को पार कर गया है। भारतीय मुद्रा में लगातार गिरावट जारी है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यों केन्द्र की काँग्रेस नेतृत्व वाली सरकार लगातार स्थिति संभालने का आश्वासन दे रही है मगर रुपया उबर नहीं पा रहा। कुछ दिनों पहले ही प्रधान मंत्री ने रिजर्व बैंक के वर्तमान व भावी गवर्नर के साथ एक महत्त्वपूर्ण बैठक कर देशवासियों को बताया कि उनपर भरोसा रखें, वे स्थिति को संभाल लेंगे। पर, कुछ भी संभलता हुआ नहीं दीख रहा। उनके आश्वासन के अगले ही दिन रुपया और लुढ़क गया और लुढ़कता ही जा रहा है। प्रधान मंत्री स्वयं अर्थशास्त्री हैं और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं। ऐसे में लगता है कि कोई ‘शक्ति’ उन्हें रुपये को संभालने से रोक रही है! यदि ऐसा है तो उसका पर्दाफाश होना चाहिये।

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