-शीतांशु कुमार सहाय / Sheetanshu Kumar Sahay
योग में अनेक सिद्धियों की चर्चा की गयी है। यदि नियमित और अनुशासनबद्ध रहकर योग की साधना की जाए तो अनेक प्रकार की परा और अपरा सिद्धियाँ पायी जा सकती हैं। सिद्धि शब्द का सामान्य अर्थ है सफलता। सिद्धि अर्थात किसी कार्य विशेष में पारंगत होना। समान्यतया सिद्धि शब्द का अर्थ चमत्कार या रहस्य समझा जाता है लेकिन योगानुसार सिद्धि का अर्थ इंद्रियों की पुष्टता और व्यापकता होती है। सिद्धियाँ दो प्रकार की होती हैं-- एक परा और दूसरी अपरा। विषय संबंधी सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ 'अपरा सिद्धि' कहलाती है। यह मुमुक्षुओं के लिए है। इसके अलावा जो स्व-स्वरूप के अनुभव की उपयोगी सिद्धियाँ हैं, वे योगी के लिए उपादेय 'परा सिद्धियाँ' हैं। योग मानता है कि सिद्धियाँ मोक्ष के मार्ग में बाधा न बनें; बल्कि सहायक बनें। जो योगी आम जनता के समक्ष योग के चमत्कार दिखाने लगता है, वह मार्ग से भटका योगभ्रष्ट योगी माना जाता है। योग के अभ्यास में सफलता प्राप्त करने पर साधक के मानसिक धरातल पर काफी अच्छे, उत्कृष्ट एवं अद्भुत अनुभव होते हैं। उन सिद्धियों के नाम हम यहाँ सरलरूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जबकि योग में ये अलग नाम से प्रसिद्ध हैं ---
1. आत्मबल की शक्ति : योग के साधक का आत्मबल शक्तिशाली होना आवश्यक है जिससे योग में तेजी से सफलता मिलती है। यम-नियम के अलावा मैत्री, मुदिता, करुणा और उपेक्षा आदि पर संयम करने से आत्मबल की शक्ति प्राप्त होती है।
2. बलशाली व्यक्तित्व : आसनों के करने से शरीर तो पुष्ट होता ही है साथ ही प्राणायाम के अभ्यास से वह बलशाली बनता है। बल में संयम करने से व्यक्ति बलशाली हो जाता है। बलशाली अर्थात जैसे भी बल की कामना करें वैसा बल उस वक्त प्राप्त हो जाता है। जैसे कि उसे हाथीबल की आवश्यकता है तो वह प्राप्त हो जाएगा।
3. निरोध परिणाम सिद्धि : इंद्रिय संस्कारों का निरोध कर उस पर संयम करने से 'निरोध परिणाम सिद्धि'प्राप्त होती है। यह योग साधक के लिए आवश्यक है अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उक्त सिद्धि प्राप्ति का अर्थ है कि अब आपके चित्त में चंचलता नहीं रही। नि:श्चल अकंप चित्त में ही सिद्धियों का अवतरण होता है।
4. उपवास शक्ति : योगी कई-कई महीनों तक भूख और प्यास से मुक्त रह सकता है। कंठ के कूप में संयम करने पर भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है।
5. स्थिरता शक्ति : शरीर और चित्त की स्थिरता आवश्यक है अन्यथा सिद्धियों में गति नहीं हो सकती। कूर्मनाड़ी में संयम करने पर स्थिरता होती है। कंठ कूप में कच्छप आकृति की एक नाड़ी है। उसको कूर्मनाड़ी कहते हैं। कंठ के छिद्र जिसके माध्यम से उदर में वायु और आहार आदि जाते हैं उसे कंठकूप कहते हैं।
6. समुदाय ज्ञान शक्ति : शरीर के भीतर और बाहर की स्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है। इससे शरीर को दीर्घकाल तक स्वस्थ और जवान बनाए रखने में मदद मिलती है। नाभिचक्र पर संयम करने से योगी को शरीर स्थित समुदायों का ज्ञान हो जाता है अर्थात कौन-सी कुंडली और चक्र कहाँ है तथा शरीर के अन्य अवयव या अंग की स्थिति कैसी है।
7. चित्त ज्ञान शक्ति : हृदय में संयम करने से योगी को चित्त का ज्ञान होता है। चित्त में ही नए-पुराने सभी तरह के संस्कार और स्मृतियाँ होती हैं। चित्त का ज्ञान होने से चित्त की शक्ति का पता चलता है।
8. पुरुष ज्ञान शक्ति : बुद्धि पुरुष से पृथक है। इन दोनों के अभिन्न ज्ञान से भोग की प्राप्ति होती है। अहंकारशून्य चित्त के प्रतिबिंब में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है।
9. दिव्य श्रवण शक्ति : समस्त स्रोत और शब्दों को आकाश ग्रहण कर लेता है, वे सारी ध्वनियाँ आकाश में विद्यमान हैं। कर्ण-इंद्रियाँ और आकाश के संबंध पर संयम करने से योगी दिव्यश्रवण को प्राप्त होता है।
10. कपाल सिद्धि : कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धगणों के दर्शन होते हैं। मस्तक के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं।
11. पंचभूत सिद्धि : पंचतत्वों के स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्तव ये पाँच अवस्था हैं इसमें संयम करने से भूतों पर विजय लाभ होता है। इसी से अष्टसिद्धियों की प्राप्ति होती है।
12. इंद्रिय शक्ति : ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अव्वय और अर्थवत्तव नामक इंद्रियों की पाँच वृत्तियों पर संयम करने से इंद्रियों का जय हो जाता है।
13. सर्वज्ञ शक्ति : बुद्धि और पुरुष में पार्थक्य ज्ञान सम्पन्न योगी को दृश्य और दृष्टा का भेद दिखाई देने लगता है। ऐसा योगी संपूर्ण भावों का स्वामी तथा सभी विषयों का ज्ञाता हो जाता है।
14. उदान शक्ति : उदानवायु के जीतने पर योगी को जल, कीचड़ और कंकड़ तथा काँटे आदि पदार्थों का स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वश में हो जाती है। कंठ से लेकर सिर तक जो व्यापाक है वही उदान वायु है।
15. तेजपुंज शक्ति : समान वायु को वश में करने से योगी का शरीर ज्योतिर्मय हो जाता है। नाभि के चारों ओर दूर तक व्याप्त वायु को समान वायु कहते हैं।
16. भाषा सिद्धि : हमारे मस्तिष्क की क्षमता अनंत है। शब्द, अर्थ और ज्ञान में जो घनिष्ट संबंध है उसके विभागों पर संयम करने से 'सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान' हो जाता है।
17. पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि : जाति स्मरण का अभ्यास करने या चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से 'पूर्वजन्म का ज्ञान'होने लगता है।
18. मन: शक्ति : ज्ञान की स्थिति में संयम होने पर दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है। यदि चित्त शांत है तो दूसरे के मन का हाल जानने की शक्ति हासिल हो जाएगी।
19. अंतर्ध्यान शक्ति : इसे आप गायब होने की शक्ति भी कह सकते हैं। कायागत रूप पर संयम करने से योगी अंतर्ध्यान हो जाता है। फिर कोई उक्त योगी के शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस को जान नहीं सकता।
20. कर्म सिद्धि : सोपक्रम और निरपक्रम, इन दो तरह के कर्मों पर संयम से मृत्यु का ज्ञान हो जाता है। सोपक्रम अर्थात ऐसे कर्म जिसका फल तुरंत ही मिलता है और निरपक्रम जिसका फल मिलने में देरी होती है। क्रिया, बंध, नेती और धौती कर्म से कर्मों की निष्पत्ति हो जाती है।
21. ज्योतिष शक्ति : ज्योति का अर्थ है प्रकाश अर्थात प्रकाश स्वरूप ज्ञान। ज्योतिष का अर्थ होता है सितारों का संदेश। संपूर्ण ब्रह्माण्ड ज्योति स्वरूप है। ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्मादि वस्तुओं में न्यस्त कर उस पर संयम करने से योगी को सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।
22. लोक ज्ञान शक्ति : सूर्य पर संयम से सूक्ष्म और स्थूल सभी तरह के लोकों का ज्ञान हो जाता है।
23. नक्षत्र ज्ञान सिद्धि : चंद्रमा पर संयम से सभी नक्षत्रों को पता लगाने की शक्ति प्राप्त होती है।
24. तारा ज्ञान सिद्धि : ध्रुव तारा हमारी आकाश गंगा का केंद्र माना जाता है। आकाशगंगा में अरबों तारे हैं। ध्रुव पर संयम से समस्त तारों की गति का ज्ञान हो जाता है।
25. प्रतिभ शक्ति : प्रतिभ में संयम करने से योगी को संपूर्ण ज्ञानी की प्राप्त होती है। ध्यान या योगाभ्यास करते समय भृकुटि के मध्य तोजोमय तारा नजर आता है। उसे प्रतिभ कहते हैं। इसके सिद्ध होने से व्यक्ति को अतीत, अनागत, विप्रकृष्ट और सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।
26. परकाय प्रवेश : बंधन के शिथिल हो जाने पर और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गम मार्ग नाड़ी के ज्ञान से चित्त दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यह बहुत आसान है, चित्त के स्थिरता से शूक्ष्म शरीर में होने का अहसास बढ़ता है। सूक्ष्म शरीर के निरंतर अहसास से स्थूल शरीर से बाहर निकलने की इच्छा।
27. उड़ने की शक्ति : शरीर और आकाश के संबंध में संयम करने से लघु अर्थात हलकी रूई जैसे पदार्थ की धारणा से आकाश में गमन कर सकता है।
28. महाविदेह धारणा : शरीर से बाहर मन की स्वाभाविक वृत्ति है उसका नाम 'महाविदेह' धारणा है। उसके द्वारा प्रकाश के आवरणा का नाश हो जाता है। स्थूल शरीर से शरीर के आश्रय की अपेक्षा न रखने वाली जो मन की वृत्ति है उसे 'महाविदेह' कहते हैं। उसी से ही अहंकार का वेग दूर होता है। उस वृत्ति में जो योगी संयम करता है, उससे प्रकाश का ढँकना दूर हो जाता है।
2 टिप्पणियां:
अष्टसिद्धि का भी उलेख ज्यादा आता है
Yah yog kitne din tak karne se safalta milegi
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