गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

छठ व्रत कथा / CHHATH VRAT KATHA

सात घोड़ों के रथ पर सवार सूर्यनारायण
आदिदेवं नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर। 
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते।।
-शीतांशु कुमार सहाय
सृष्टि को ऊर्जा प्रदान करनेवाले देव सूर्य के विशेष पूजन के वर्ष में दो अवसर आते हैं जिन्हें छठ कहते हैं। छठ को सूर्यषष्ठी व्रत भी कहा जाता है। वर्ष का प्रथम छठ प्रथम महीना चैत्र में शुक्ल पक्ष की षष्ठी को व दूसरा आठवाँ महीना कार्तिक में शुक्ल षष्ठी को होता है। वैसे यह चार दिवसीय व्रत है- चतुर्थी को ‘नहाय-खाय’, पंचमी को ‘खरना’, षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य व सप्तमी को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत की समाप्ति की जाती है।
यहाँ हम जानते हैं छठ व्रत कथा के बारे में जो अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय और महर्षि वैशम्पायन के बीच वार्तालाप शैली में है। वैसे इसे चारों दिन कहा-सुना जा सकता है, पर षष्ठी को सन्ध्या अर्घ्य देने के पश्चात् शान्त व भक्ति भाव से अवश्य ही सुनना, पढ़ना या कहना चाहिये। यह कथा ‘भविष्योत्तपुराण’ में उल्लिखित है।
खरना का पूजन :  केले के पत्ते पर गुड़ की खीर, घी लगी रोटी, केला और तुलसी 

छठ व्रत कथा आरम्भ

राजा जनमेजय ने वैशम्पायन से पूछा- ‘‘दुरात्मा दुर्योधन द्वारा कपटरूप जुआ से परास्त पाण्डव  वनवास के लिए भेजे गये तो जंगल में जाकर उन्होंने क्या किया?’’

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वैशम्पायन जी बोले- ''हे जनमेजय! सुनो, वह पाण्डु के पुत्र पाण्डव (पाँचों भाई) अत्यन्त दुःख-सागर मेें डूबे हुए वनवास के लिए घोर जंगल में जाकर दुःख और चिन्तामग्न हो वन में रहने लगे। वन के फल-मूल खाकर पृथ्वी तल पर शयन करते हुए केला और भोजपत्र के वस्त्र पहनकर दुःख के दिन काटने लगे। राजकन्या का सुख भोगनेवाली पतिव्रता गजगामिनी द्रौपदी भी धर्म का पालन करती हुई पतियों के साथ वन को गयी थी। जिस स्थान पर द्रौपदी सहित पाण्डव थे, वहाँ पर ब्रह्मवेत्ता तपोरूप अठासी हजार मुनि जा पहुँचे। ऋषियों के आये हुए जानकर महाराज युधिष्ठिर चिन्ता से अत्यन्त घबरा गये कि उन के भोजन के लिए क्या प्रबन्ध करें। जब युधिष्ठिर को यह चिन्ता हुई कि भोजनार्थ क्या व्यवस्था करें तो मुख की चेष्टा मलिन किये स्वामी युधिष्ठिर को देखकर द्रौपदी अत्यन्त दुःख से व्याकुल हो गयी। उसी क्षण द्रौपदी निज पुरोहित महर्षि धौम्य को पवित्र आसन पर बैठाकर प्रदक्षिणा की और नमस्कार करने के पश्चात् बोली- हे धौम्य! हे महाभाग! इन दुःखित पाण्डुपुत्रों को देखिये। हे स्वामिन्! इन के दुःख नाशार्थ कोई व्रत मुझ से कहिये, जिस से इनके क्लेश शान्त हो जायें। थोड़े ही उपाय से प्रत्यक्ष महत्पुण्य को देनेवाला व्रत कहिये, जिस से हमारे स्वामी पृथ्वी तल पर सुखी हो जायें, जिस से शत्रु का नाश हो जाय, निज राज्यलक्ष्मी वापस मिले और इस समय हमारे यहाँ आये हुए ब्राह्मणों को दुग्धपान करने को मिल जाय।’’
अस्ताचलगामी सूर्यनारायण को सांध्य अर्घ्य
 द्रौपदी के इस वचन को सुनकर वैशम्पायन जी जनमेजय जी से आगे कहते हैं- ‘‘ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महाराज धौम्य जी प्रसन्न हुए और मुहूर्तमात्र ध्यानस्थ होने के पश्चात् बोले- हे पांचालपुत्री! एक उत्तम व्रत को सुनो, जिसे पूर्व काल में नागकन्या के उपदेश से सुकन्या ने किया था। हे महाभागे! स्त्रियों के साथ तुम अनेक विघ्नों को शान्त करनेवाले रविषष्ठी (छठ) व्रत को करो।’’
द्रौपदी बोलीं- ‘‘हे विप्र। आप का कहा हुआ व्रत कैसा है और उस की विधि क्या है? उस व्रत में किस का पूजन किया जाता है? वह नागकन्या कौन थी और किस हेतु उस ने इस व्रत को किया था? हे महाभाग! वह सुकन्या अत्याश्चर्य रूपी व्रत को करनेवाली कौन थी? हे शरणागतवत्सल! मेरे इस संशय का आप निवारण करें।’’
द्रौपदी के प्रश्नों को सुनकर धौम्य जी बोले- ‘‘हे देवी! सतयुग में एक शर्याति नाम के राजा थे। उन की एक हजार स्त्रियाँ थीं। राजा को एकमात्र कन्या उत्पन्न हुई थी। अकेली सन्तान होने के कारण वह माता-पिता की अत्यन्त प्यारी थी। पिता के घर में वह पलने-बढ़ने लगी। कुछ समय पश्चात् वह कन्या चन्द्रवत् मुख, कमलवत् नेत्र और कुम्भस्तनी होती हुई युवावस्था को प्राप्त हुई। बाल्यावस्था से ही चंचला वह कन्या पिता को प्राण के समान प्रिय थी। इस पृथ्वीलोक में उस के सदृश अन्य कोई ऐसी कन्या न थी जिस को मैं ने देखा हो। इस कारण उस का नाम सुकन्या पड़ा।’’
अस्ताचलगामी सूर्यनारायण को सांध्य अर्घ्य

‘‘एक समय राजा शर्याति मृगया (शिकार) के लिए मन्त्री, सेना, बड़े-बड़े योद्धाओं और पुरोहित को साथ लेकर घोर जंगल को गये। राजा शर्याति दिन में शिकार खेलकर रात्रि में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए वन में रहने लगे।‘‘
‘‘एक समय सखियों के साथ सुकन्या फूल लेने के निमित्त वन में गयी। वहीं महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। सुकन्या समाधिस्थ च्यवन के शरीर में दीमक लगा देखी। दीमक और उन के शरीर पर लगी मिट्टी के बीच च्यवन ऋषि के दोनों नेत्र जुगनु की भाँति चमक रहे थे। सुकन्या विस्मित हो उन के दोनों नेत्र फोड़ डाली। ऐसा होते ही मुनि के नेत्रों से रक्त की धारा प्रवाहित होने लगी और वह चकोराक्षी सुकन्या फूलों को लेकर सखियों के साथ गृह को चली आयी।’’
‘‘च्यवन ऋषि के नेत्र सुकन्या द्वारा फोड़े जाने के कारण राजा शर्याति और सेना के मल-मूत्र आदि बन्द हो गये और सभी हाहाकार करने लगे। ऐसे ही तीन दिन व्यतीत हो जाने के पश्चात् राजा ने अपने पुरोहित से पूछा- हे मुनिसत्तम! किस हेतु हमारे मल-मूत्र बन्द हो गये? आप दिव्य-दृष्टि से देखकर कहिये।’’
‘‘पुरोहित जी बोले- हे राजन! भार्गववंशी च्यवन नाम के एक ऋषि इसी वन में घोर तपस्या कर रहे हैं। उन के शरीर में दीमक लग गये हैं और शरीर के मांस का भक्षण कर गये हैं। अब उन के हड्डी मात्र मिट्टी से लिपटी हैं। हे राजन! आप कीे कन्या ने अज्ञानतावश उन महर्षि च्यवन के दोनों नेत्र काँटों से फोड़ डाले हैं जिन से रुधिर प्रवाहित हो रहा है। उन्हीं के क्रोध से यह कष्ट उपस्थित हुआ है। अतः हे राजन! आप उन को प्रसन्न कीजिये और अपनी कन्या उन्हें दे दीजिये। कन्यादान से मुनि च्यवन प्रसन्न हो जायेंगे।’’
‘‘पुरोहित के वचन सुनकर राजा शर्याति अपनी पुत्री सुकन्या को लेकर ऋषि के पास गये और जल से धोने पर हड्डी मात्र के दर्शन हुए। नेत्रहीन ऋषि को देखकर राजा बोले- हे प्रभो! मेरी कन्या से अनजाने में यह अपराध हुआ है जिस से आप के ये नेत्र फूट गये हैं। हे मुनिवर! टाप की सेवा हेतु मैं अपनी कन्या आप को दान में देते हैं; ताकि आप को कष्ट न हो।’’
‘‘राजा के वचन सुनकर ऋषि च्यवन बड़े प्रसन्न हुए। उसी समय राजा शर्याति ने सुकन्या को ऋषि के लिए दान कर दिया। राजा से कन्या प्राप्त कर च्यवन अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन का क्रोध शान्त हो गया। इस के पश्चात् राजा और अन्य को मल-मूत्र हुए। सेना सहित राजा प्रसन्नचित्त अपने देश को वापस गये।’’
‘‘सुकन्या नेत्रहीन च्यवन ऋषि की सेवा करने लगी। वह कार्तिक महीने में एक दिन जल हेतु पुष्करिणी (छोटा तालाब) में गयी। वहाँ पर वह अनेक आभूषणों से युक्त नागकन्या को देखी। ऋषि कश्यप के यज्ञ मण्डप में भगवान सूर्य का पूजन करती हुई नागकन्या को देखकर सुकन्या धीरे से निकट जाकर पूछीं- ‘‘हे महाभागे! आप क्या करती हैं? किस कारण यहाँ आयी हैं?’’
सुकन्या के वचन सुनकर नागकन्या बोली- ‘‘हे साध्वी! मैं नागकन्या हूँ। मैं व्रत धारण कर ऋषि कश्यप के पूजनार्थ यहाँ आयी हूँ।’’
सुकन्या बोली- ‘‘इस व्रत का और पूजा का क्या प्रभाव है? क्या फल है? इस पूजा की विधि क्या है? किस महीने और किस तिथि को यह उत्तम व्रत किया जाता है?’’
नागकन्या ने बताया- ‘‘कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सप्तमी युक्त होने पर सर्वमनोरथ सिद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। व्रती को चाहिये कि पंचमी के दिन नियम से व्रत को धारण करे। सन्ध्या काल में खीर का भोजन कर पृथ्वी पर सोये। षष्ठी (छठ) के दिन व्रत (उपवास) रहे। दिन में चार रंगों से सुशोभित मण्डप में सूर्यनारायण का पूजन करे और रात्रि में जागरण करे। अनेक प्रकार के फल और पकवान आदि के नैवेद्य चढ़ाये और सूर्यनारायण की प्रीति के लिए गीत-वाद्य आदि से गा-बजाकर उत्सव मनाये। जब तक सूर्यनारायण का दर्शन न हो, तब तक व्रत धारण किये रहे। प्रातःकाल सप्तमी को सूर्यनारायण के दर्शन कर अर्घ्य दे। दूध, नारियल, कदलीफल, पुष्प, चन्दन से सूर्य के बारह नामों के उच्चारण करते हुए प्रत्येक नाम से दण्डवत् प्रणाम करते हुए अर्घ्य दे। जगत के सविता, जगत के नेत्र, जगत के उत्पत्ति-पालन-नाश हेतु त्रिगुण रूप, त्रिगुणात्मक, ब्रह्मा, विष्णु, शिव रूप सूर्यनारायण को नमस्कार है! इस प्रकार इस व्रत के करने से सूर्यनारायण महाघोर कष्ट को दूर कर मनवांछित फल प्रदान करते हैं। हे सुव्रत! मैं ने यह रविषष्ठी व्रत तुम से कहा।’’
ऋषि धौम्य ने कहा- ‘‘हे द्रौपदी नागकन्या के इस वचन को सुनकर सुकन्या ने इस उत्तम व्रत को किया। इसी व्रत के प्रभाव से च्यवन ऋषि के नूत्र पुनः पूर्ववत् हो गये। ऋषि का शरीर भी नीरोग हो गया और वे सुकन्या के साथ लक्ष्मी-नारायण की भाँति राज्ययुक्त हो सुख भोग करने लगे। इस से हे पांचालनन्दिनी! तुम भी इस उत्तम व्रत को करो। इसी व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पति पुनः राज्यलक्ष्मी को पायेंगे और निःसन्देह तुम्हारा कल्याण होगा।
तब द्रौपदी ने धौम्य ऋषि की आज्ञा से यह व्रत यथाविधि किया। व्रत के प्रभाव से युधिष्ठिर अतिथि रूप में आये हुए ब्राह्मणों को भोजन देकर प्रणाम किया।
महर्षि वैशम्पायन ने कहा- ‘‘हे जनमेजय! धौम्य से इस उत्तम व्रत को जानकर द्रौपदी ने विधिपूर्वक किया जिस के प्रभाव से पाण्डव सहित द्रौपदी पुनः राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हुई। जो कोई स्त्री इस पुनीत व्रत को करेगी उस के समस्त पाप नाश होकर सुकन्या की भाँति पति सहित सुख को पायेगी। इस व्रत का विधिवत् उद्यापन करे, विधि-विधान से प्रत्येक वर्ष व्रत करते हुए कथा को सुने, ब्राह्मणों को दक्षिणा दे तो उस का मनोरथ सिद्ध होता है। जो कोई भक्तियुक्त इस कथा को सुनता है, उस को पुत्र, पौत्र, धन-सम्पत्ति तथा अक्षय सुख मिलता है। इस भाँति कथा को सुनकर सूर्यनारायण को अर्घ्य देकर नमस्कार करते हुए श्रोता निज-निज घर को जायें।’’

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