गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

दीपावली में जलाइये प्यार का दीया / Burning Lamp of Love In Deepawali

शीतांशु कुमार सहाय की ओर से दीपावली की शुभकामना, हृदय से!
-शीतांशु कुमार सहाय
दिन गिनते-गिनते फिर बीत ही गये ३६५ दिन। उड़ान की बात तो दूर, सोच ने पर फड़फड़ाये भी नहीं और पुनः गयी दीपावली। क्या-क्या सोचा था मगर कुछ हुआ नहीं!? कुछ हुए भी तो आधे-अधूरे! कुछ तो सोच की परिधि से बाहर भी सके! कुछ हसरतें तो विचार के धरातल पर भी नहीं आये! यदि आप के साथ ऐसा हुआ है तो यकीन मानिये कि आप के हाथ से सफलताएँ लगातार फिसल रही हैं। जब असफलताएँ हाथ लगती रहेंगी तो तमाम पर्व-त्योहारों का मज़ा ता नहीं, मज़ा किरकिरा हो जाता है। किरकिराते मजे का समूल बदलने की शक्ति वास्तव में मनुष्य के हाथों में है। बस, करना यही है कि दिल से प्यार का एक दीया जलाना है। इस के उजियारे में उन हसरतों के सिलसिले को सजाना है; ताकि उस फेहरिश्त पर नज़र पड़ते ही याद ताजा हो जाय। ऐसा करने से तमाम हसरतें नतीजे के मुकाम तक अवश्य ही पहुँचेंगी।

दीपावली या दिवाली का वीडियो 

दीपावली, भगवान श्रीराम के लंका-विजय के पश्चात् अयोध्या वापस आने के काल से मनायी जाती है। उस समय सारे अयोध्यावासी प्रसन्न थे लेकिन अपनी प्रसन्नता के लिए आप कीजिये वही जो आप को अच्छा लगता है। ज़रूरी नहीं कि जो एक को पसन्द है, वही दूसरे को भी पसन्द हो। लिहाजा अपनाइये वही जिस से औरों को हानि हो। निश्चय ही वही कार्य सराहनीय है जिसे समाज भी सराहे, जिस से किसी का दिल दुखाये। पर, अफसोस यही है कि इन दिनों वही ज्यादा हो रहा है जिसे अधिकतर लोग पसन्द नहीं करते हैं। समाज के कथित अगुआ व्यक्ति उन कार्यों को अंजाम दे रहे हैं जो हर किनारे से आलोचित होते हैं, निन्दित होते हैं। यहाँ किसी का नाम लेना उचित नहीं है। पर, इतना तो कहना ही पड़ेगा कि लोकतन्त्र में तन्त्र से जुड़े अधिकतर लोग वही कर रहे हैं जो लोक यानी जनता को पसन्द नहीं, उन के कार्यों से लोकोपकार कम, लोकापकार अधिक हो रहा है। हम यहाँ तन्त्र से नहीं, लोक से मुखातिब हैं कि करें वही जो लोकोपकारी हो।
चूँकि वर्तमान दौर पूर्णतः व्यावसायिक है, लिहाजा हर क्षेत्र को व्यवसाय से जोड़कर देखा जाता है। इस व्यावसायिक नजरिये का अपवाद पर्व-त्योहार भी नहीं हैं। दीपावली को भी व्यवसायियों ने अपने हित में उपयोग किया है, परम्परा में व्यावसायिकता को जोड़ दिया है। तभी तो दीपावली के पावन अवसर पर पटाखे छोड़ने की 'प्रदूषणयुक्त परम्परा' को शामिल किया है। यदि समुद्र मन्थन में लक्ष्मी प्रकट हुईं तो दीप जलाकर देवों द्वारा उन के स्वागत की बातें ग्रन्थों में मिलती हैं मगर पटाखे छोड़ने की कला का प्रदर्शन देवताओं ने नहीं किया था। अयोध्या की प्रजा भी विस्फोटक नहीं जलाये थे। वातावरण को प्रदूषित करने का कोई प्रमाण हमारे ग्रन्थों में नहीं मिलता है। अगर भगवान राम से दीपावली को जोड़ें तो उन के वनवास से लौटने पर अयोध्यावासियों के दीपोत्सव के बीच कहीं विस्फोट की बातों का जिक्र नहीं मिलता। तेज पटाखों को छोड़ने से पूर्व आस-पड़ोस के किसी हृदय रोगी या किसी अन्य बीमार की राय ले लें। इसी तरह कम आवाज़ वाले पटाखों में आग लगाने से पूर्व किसी बच्चे से पूछें। दोनों स्थितियों में पता यही चलता है कि आप का व्यवहार उन के लिए क्षतिकारक है।
दरअसल, दीपावली को कई नज़रिये से देखा जाता है। सब के नज़रिये पृथक हो सकते हैं। यदि जेब 'गर्म' हो तो वर्ष में एक दिन नहीं, पूरे वर्ष की हर रात दीपावली हर दिन होली ही है। पर, उस देश में जहाँ की एक-चौथाई आबादी को दो वक्त का भोजन भी नहीं मिल पाता, वहाँ रुपये में आग लगाना उन दुखियों का मखौल उड़ाना ही तो है।
ज़रूरी नहीं कि १०० दीये ही जलाएँ, एक ही दीया जलाइये, पूरे मन से, दिल से और पूरे वर्ष वैसों के साथ प्यार का दीया जलाइये जो आप के खर्च की सीमा का कभी अन्दाज़ भी नहीं लगा पाते। प्यार का एक दीया केवल घर को ही नहीं, समाज को रौशन करेगा!
आप सभी को शीतांशु कुमार सहाय की ओर से दीपावली की शुभकामना, हृदय से!

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