गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

नवदुर्गा का प्रथम रूप शैलपुत्री / Shailputri is the First Similitude of Navdurga

-शीतांशु कुमार सहाय
नवरात्र के प्रथम दिवस को आदिशक्ति दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की आराधना की जाती है। पर्वत को संस्कृत में शैल भी कहते हैं। अतः पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण देवी का नाम शैलपुत्री पड़ा। वृषभ (साँढ़) की सवारी करनेवाली माता शैलपुत्री द्विभुजा हैं। दायें हाथ में त्रिशूल व बायें हाथ कमल का फूल धारण करती हैं। इन्हें प्रथम दुर्गा भी कहा जाता है। माता शैलपुत्री का विवाह भगवान शंकर से हुआ। प्रत्येक जन्म की भाँति इस जन्म में भी शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए शैलपुत्री को तपस्या करनी पड़ी। पर्वत की पुत्री होने के कारण इन्हें पार्वती भी कहा जाता है। पिता हिमालय के नाम के आधार पर इन्हें हैमवती की संज्ञा भी दी जाती है। माता ने हैमवती स्वरूप में देवताओं के गर्व अहंकार को समाप्त किया था। अतः मांँ को देवगर्वभंजिका भी कहा गया। नवरात्र के प्रथम दिन कलश स्थापित करने के पश्चात वृषारूढ़ा शैलपुत्री की विधिवत् पूजा की जाती है। भक्तों-उपासकों को कर्मफल प्रदान करनेवाली माता सद्कर्म की प्रेरणा देती हैं।

माता शैलपुत्री का वीडियो नीचे के लिंक पर देखें---

योग के माध्यम से भी शैलपुत्री की आराधना की जाती है। इस विधि से माता की आराधना करने के लिए किसी वाह्य-सामग्री की आवश्यकता नहीं होती। माँ शैलपुत्री का दर्शन योगीजन मूलाधार चक्र में करते हैं। नवरात्र के प्रथम दिन मूलाधार चक्र में ही ध्यान लगाना चाहिये। मूलाधार चक्र गहरे लाल रंग का कमल है जिस की चार पंखुड़िया हैं। पंखुड़ियों पर क्रमशः वं, शं, षं, मन्त्र अंकित हैं। इस चक्र की आकृति चौकोर है। मूलाधार चक्र पर बीजमन्त्र लं है। वाहन हाथी है जो पृथ्वी की दृढ़ता का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव ब्रह्मा और देवी डाकिनी हैं जिन का अधिकार स्पर्शानुभूति पर है। मूलाधार चक्र के केन्द्र में लाल त्रिभुज है जिस का सिरा नीचे की ओर है।
पूर्वजन्म में दक्ष की पुत्री सती के रूप में माँ शैलपुत्री प्रकट हुई थीं। सती का विवाह शंकर से हुआ था। एक बार दक्ष ने एक विशेष यज्ञ का आयोजन किया जिस में भगवान शिव अर्थात् अपने दामाद को निमंत्रित नहीं किया। पर, पिता के यज्ञ मेें शामिल होने की आज्ञा सती ने येन-केन प्रकारेण अपने पति शिव से ले ही ली। अन्ततः सती अपने शरीर को यज्ञ स्थल पर योगाग्नि में भस्म कर देती है। तत्पश्चात्  हिमालय की पुत्री के रूप में अवतरित हुईं और शैलपुत्री कहलायीं।
हाथ जोड़कर माँ शैलपुत्री की आराधना करें-
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्द्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।

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