यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमर्धमस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब मैं प्रकट होता हूँ और धर्म की रक्षा करता हूँ। कलियुग की पन्द्रहवीं सदी में भगवान ने नानक के रूप में धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया।
सुधी पाठक! आप इस आलेख में जानेंगे कि गुरु नानक ने कौन-कौन से प्रमुख उपदेश दिये जो हम सब के जीवन को सकारात्मक रूप से बदलने में सक्षम हैं। यहाँ आप यह भी जानेंगे कि भारत को नानकदेव ने ‘हिन्दुस्तान’ कब और क्यों कहा? बिना स्कीप किये हुए पूरा आलेख पढ़ेंगे तो आप जान सकंेगे कि सिक्खों के प्रथम गुरु ने निराकार परमात्मा को एकमात्र किस मन्त्र से सम्बोधित किया। इन सब बातों को जानने से पहले थोड़ी चर्चा गुरु नानक की कर लेते हैं।
15 अप्रील सन् 1469 ईस्वी को पंजाब के तलवण्डी नाम के स्थान में नानक का जन्म हुआ था जो अब पाकिस्तान में लाहौर से करीब 120 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। अधिकतर लोग उन का जन्म दिन कार्तिक पूर्णिमा सन् 1469 ईस्वी को मानते हैं। प्रतिवर्ष नानकदेव की जयन्ती या अवतरण दिवस के रूप में कार्तिक पूर्णिमा को ही प्रकाश पर्व मनाया जाता है। गुरु नानक के नाम पर अब तलवण्डी को ‘ननकाना’ कहा जाता है। वहाँ एक भव्य गुरुद्वारा बना है जो ‘ननकाना साहिब’ कहलाता है।
विश्व को कल्याण का मार्ग दिखानेवाले महान सन्त नानक के पिता कल्याणचन्द थे जो मेहता कालू के नाम से भी जाने जाते थे। माता का नाम तृप्ता था। पाँच वर्ष बड़ी बहन नानकी थीं जिन के नाम के आधार पर ही इन्हें ‘नानक’ नाम दिया गया। सामान्यतः बच्चे रोते हुए जन्म लेते हैं पर नानक जन्म के समय हँस रहे थे।
सामान्य बच्चों की तरह खेलने या पढ़ने में उन का मन नहीं लगा। बचपन से ही वे ध्यानस्थ हो जाया करते थे। न पण्डित हरदयाल उन्हें पढ़ा सके और न मौलवी कुतुबुद्दीन कोई सबक सिखा सके। ये दोनों शिक्षक बालक नानक के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहे।
नानक का विवाह सन् 1485 ईस्वी में बटाला की रहनेवाली कन्या सुलक्षणी (सुलक्खनी) से हुआ। इन्होंने दो पुत्रों श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द को जन्म दिया। दोनों सिद्ध योगी के रूप में प्रसिद्ध हुए।
कृषि या व्यापार में नानक का मन नहीं लगा। कुछ दिनों बाद वे सुल्तानपुर में अपने बहनोई के घर चले गये और वहीं सुल्तानपुर के राजा दौलत खाँ के यहाँ नौकरी करने लगे।
नानक प्रतिदिन बेई नदी में स्नान करते थे। एक दिन स्नान के पश्चात् नदी किनारे स्थित वन में अन्मर्ध्यान हो गये। उस दौरान परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- ‘‘मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ। तृम्हारे सम्पर्क में जो भी आयेगा, वह भी आनन्दित हो जायेगा। तुम दान दो और उपासना करो। मेरे नाम का कीर्तन और जप करो तथा दूसरों से भी कराओ।’’
परमात्म-दर्शन की इस घटना के पश्चात् सन् 1507 ईस्वी में नानक ने पारिवारिक जिम्मेदारी ससुर को सौंप दी और स्वयं देश-विदेश के तीर्थ-परिभ्रमण पर निकल गये। सिक्ख सम्प्रदाय में तीर्थ यात्रा को उदासी कहते हैं। नानक ने चार उदासियाँ कीं। उन्होंने धर्म रक्षार्थ प्रचार आरम्भ कर दिया और सद्मार्ग पर चलने का उपदेश दिया।
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करतारपुर में भव्य गुरुद्वारा करतारपुर साहिब |
सन् 1521 ईस्वी से जीवन के अन्तिम समय 1539 ईस्वी तक नानक करतारपुर में रहे। करतारपुर भी पाकिस्तान में ही पड़ता है। करतारपुर में भी विशाल गुरुद्वारा है, जहाँ विश्वभर से सिक्ख और अन्य धर्मों के श्रद्धालु सालोंभर आते हैं। पाकिस्तान और भारत के सम्मिलित सहयोग से करतारपुर कॉरिडोर का निर्माण हुआ है। फिलहाल करतारपुर जानेवाले भारतीय श्रद्धालुओं को 20 डॉलर का शुल्क पाकिस्तान सरकार को अदा करना पड़ता है। प्रतिदिन अधिकतम 5,000 भारतीय श्रद्धालु करतारपुर की तीर्थ यात्रा कर सकते हैं।
गुरु नानक देवजी ने जाति-पाँति को समाप्त करने और सब में समभाव प्रकट करने के लिए ‘लंगर’ की प्रथा आरम्भ की थी। लंगर में छोटे-बड़े और अमीर-ग़रीब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी गुरुद्वारों में लंगर की परम्परा जारी है। लंगर में सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है।
गुरु नानक जी ने जो उपदेश दिये वे सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे। उन्होंने कहा है- परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान और सत्य हैं। वह सर्वत्र व्याप्त हैं।
नानकदेव ने मन्त्र को ‘नाम’ कहा है। भगवान के मन्त्र अर्थात् नाम का स्मरण ही सर्वाेपरि तत्त्व है और यह नाम गुरु द्वारा ही प्राप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने चौथे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में कहा है कि ज्ञान की बातें तत्त्वदर्शी गुरु को दण्डवत् प्रणाम और सेवा कर, उन के आगे झुककर ही प्राप्त किया जा सकता है। यही बात नानक ने भी कहा।
नाम और गुरु की महत्ता बताने के बाद नानक कहते हैं कि परमात्मा निराकार हैं और जो भी दीख रहा है, वह सब उन का ही प्रकट रूप है, साकार रूप है। परमात्मा को उन्होंने ‘एक ओ अंकार’ (1ऊँ) अर्थात् एक मात्र ऊँकार के नाम से पुकारा है। इस ऊँकार शब्द को ही गुरु नानक ने गुरु माना है और कहा है कि इस शब्द के बिना यह विश्व पागल हो जायेगा। उन्हीं के शब्दों में-
सबदु गुरु, सुरति धुनि चेला;
सबदु गुर पीरा, गहिर गम्भीरा।
बिनु सबदै जगु बउरान।
उन्होंने भगवान को काल से परे माना है। इसलिए भगवान को उन्होंने ‘अकाल’ कहा है। वह अकाल ही एकमात्र सत्य है। जो बोले सो निहाल सतश्री अकाल!
शिक्षा को सीख भी कहते हैं। इस तरह जिन्होंने नानकदेव की शिक्षा को माना और उन के अनुयायी बन गये, वे सिक्ख कहलाये।
सन् 1526 ईस्वी में जब बाबर ने पाँचवीं बार भारत पर आक्रमण कर दिल्ली सल्तनत के अन्तिम शासक इब्राहिम लोदी को परास्त कर मुगल राजवंश की स्थापना की और भारतीयों के सनातन धर्म-संस्कृति पर प्रहार करना आरम्भ किया तो उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए सिक्ख सम्प्रदाय की स्थापना की। उस दौरान सिक्खों के प्रथम गुरु नानक ने भारत को पहली बार ‘हिन्दुस्तान’ की संज्ञा दी। उन्होंने बाबर के हमले के सन्दर्भ में कहा था-
खुरासान खसमाना कीआ
हिन्दुस्तान डराईआ।
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उपदेश और सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते नानक देव |
गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है। उन्होंने सिक्खों और समस्त श्रद्धालुओं को जीवन जीने और मोक्ष प्राप्त करने के आसान रास्ते बताये-
- - ईश्वर एक हैं पर उन के रूप अनेक हैं। ईश्वर के अनन्त रूपों के जंजाल में उलझना नहीं चाहिये; बल्कि उन के किसी एक रूप की ही उपासना करनी चाहिये।
- - ईश्वर सब जगह व्याप्त हैं। वे सभी प्राणियों और निर्जीवोें में मौज़ूद हैं।
- - ईश्वर की भक्ति करनेवालों को किसी का भय नहीं रहता। भगवान का भक्त निर्भय हो जाता है।
- - ईमानदारी से मेहनत कर के ही जीवनयापन करना चाहिये। बेईमानी का धन रोग, शोक और दुःख का कारण होता है।
- - मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से निर्धन और ज़रूरतमन्द व्यक्ति को भी कुछ दानस्वरूप देना चाहिये।
- - बुरा कार्य करने के बारे में कभी नहीं सोचना चाहिये और न ही किसी को सताना चाहिये। कोई आर्थिक रूप से कमजोर हो या शारीरिक रूप से, उसे सताने के बदले उस का सहयोग करना चाहिये।
- - सदैव प्रसन्न रहना चाहिये। जाने-अनजाने में हुई ग़लतियों के लिए ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिये। हमेशा ऐसा कार्य करें जिस में ग़लतियों की सम्भावना न हो।
- - सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं। लिंग, जाति आदि किसी आधार पर भी भेदभाव नहीं करें।
- - शरीर को जीवित रखने के लिए भोजन आवश्यक है परन्तु स्वाद का गुलाम नहीं बनना चाहिये। रसना अर्थात् जीभ की गुलामी स्वीकार करने से शरीर रोगों का घर बन जाता है।
- - लोभ, लालच और धन संग्रह करने की वृत्ति यानी आदत बहुत ही बुरी है। ऐसा करने से कभी शान्ति नहीं मिलती और पारिवारिक-सामाजिक प्रतिष्ठा की क्षति होती है।
गुरु नानकदेव जी के इन उपदेशों को अपनाकर आप भी सार्थक जीवन का आनन्द ले सकते हैं। आप चाहें तो अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी यह वीडियो शेयर कर सकते हैं।
स्वस्थ रहिये, आनन्दित रहिये और पढ़ते रहिये शीतांशु कुमार सहाय का अमृत और देखत रहिये शीतांशु टीवी!